Monday, August 14, 2023

मार्क्सवाद 290 (1857)

 एक मित्र ने लिखा कि यदि 1857 की क्रांति सफल होती तो भारत तमाम रजवाड़ों में बंटा होता, उसपर:


इतिहास में क्या होता तो क्या होता कि बहस निरर्थक है। ऐतिहासिकतथ्य है कि भारत के सामंती शासक वर्गों की गद्दारी और लोगों की दास मानसिकता तथा 1857 के आंदोलन में भी आमजन की शिरकत के अभाव में 1857 का आंदोलन असफल रहा। छद्म राष्ट्रवादियों, खासकर ब्राह्मणों की भावनाएं मेरी इस बात से आहत होंगी लेकिन अँग्रेजी बनियों की एक कंपनी, ईस्ट इंडिया कंपनी मंगल पांडेय जैसे सिपाहियों की वफादारी के ही चलते भारत पर राज कर रही थी, कारतूस के मसले पर उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुईं तथा उन्होंने अपने किसी अधिकारी पर गोली चलाकर शहादत प्राप्त कर ली। 2-4 दिन पहले तक कोई जानता था कि जिसअंग्रेज अधिकारी के आदेश पर वे अपने देशवासियों पर गोली चलाते थे, आवेश में वे उसी पर गोली चला देंगे और कुछ दिनों बाद नियोजित विद्रोह को कुछ दिन पहले शुरू करके तुरत-फुरत में योजना बदलना पड़ेगा? 'अगर ये दुनिया मिल जाए' का सवाल निरर्थक है यह दुनिया पहले से मिली हुई है, इसी में हमें तय करना पड़ेगा कि क्या करना है। 1857 कि किसान क्रांति यदि सफल हो जाती तो हो सकता है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण इस स्तर तक पहुंच जाता कि विदेशी शासकों को भगाने के बाद लोग कंपनी के दलाल स्वदेशी शासकों के विरुद्ध संघर्ष करते। हो सकता है कि उस क्रांति की सफलता के बाद भारत में यूरोप के नवजागरण और प्रबोधन (एन्लाइटेनमेंट) जैसी बौद्धिक क्रांतियों के तर्ज पर क्रांतियां होतीं तथा समाज का जन्मजात (जाति आधारित) विभाजन समाप्त हो जाता और लोग भारतीय के रूप में संगठित होकर भारत की भौगोलिक एकता को राजनैतिक-सामाजिक एकता में बदल देते। आज के यूरोपीय देश भी तो आपस में लड़ते-भिड़ते तमाम राजशाहियों के भौगोलिक समुच्चय ही थे , जिनकी सीमाएं बदलती रहती थीं। औपनिवेशिक शासन की शुरुआत तक भारत एक आर्थिक शक्ति थी तथा चीन के साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यपार का अहम किरदार। यूरोपीय व्यापारिक कंपनियां यहां अपने माल बेचने नहीं बल्कि सोने की चिड़िया के अंडे लूटने आयी थीं। औद्योगिक क्रांति के पहले उनके पास बेचने को कुछ था ही नहीं वे भारतीय माल के व्यापार के लिए आई थीं, दास-व्यापार से प्राप्त सोना-चांदी से यहां का माल खरीदकर यूरोप और अमेरिका में बेचती थी, हो सकता था कि औपनिवेशिक दखलअंदाजी न होती तो यूरोप के पहले भारत में औद्योगिक (पूंजीवादी) क्रांति होती और जैसे यूरोप में सामंतवादी राजशाहियों के विरुद्ध संघर्ष से निकले पूंजीवादी राष्ट्र-राज्य की विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद का उदय यहां पहले ही हो गया होता।

1857 के संगठित सशस्त्र क्रांति से बौखलाए औपनिवेशिक शासकों ने बांटो-राज करो की नीति अपनाया। यूरोप में जहां आधुनिक (पूंजीवादी) राष्ट्रराज्य के रूप में राष्ट्रवाद की विचारधारा पनपी और भारत में कांग्रेस के नेतृत्व में उपनिवेशविरोधी विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद की विचारधारा विकसित हो रही थी। विकासशील भारतीय राष्ट्रवाद को विखंडित करने के लिए देश के धार्मिक अंतर्विरोधों को दोहन करके, बांटो-राजकरो की नीति के औजार के रूप में सांप्रदायिकता की निर्मिति की और अपने हिंदू-मुसलमान एजेंट्स के जरिए इतनी नफरत फैैलाया कि आजादी के लिए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के परिणामस्वरूप भारत नहीं विखंडित भारत आजाद हुआ। यदि सांप्रदायित ताकतें देश तोड़ने में सफल न होतीं और अखंड भारत आजाद होता जिसमें 40% मुसलमान होते तो क्या कभी हिंदुत्व सांप्रदायिकता भारत की सत्ता पर काबिज हो पाती? इसलिए क्या हुआ होता तो क्या होता का विमर्श निरर्थक है, जो हुआ वही होता और हमें सोचना है कि जो है उसमें स्थितियां कैसे बेहतर बनाई जा सकती हैं।

1 comment:

  1. इतिहास में क्या होता तो क्या होता निरर्थक बहस है, हो सकता है क्रांति की सफलता के बाद यूरोप के नवजागरण और प्रबोधन (एन्लाइटेनमेंट) जैसी बौद्धिक क्रांतियां होती और इतिहास एक आधुनिक भारत राष्ट्र-राज्य के रूप में आगे बढ़ता। हो सकता है भारत बनता ही नहीं और तमाम रजवाड़ों की विखंडित भूमि ही रह जाता। हो सकता है औद्योगिक क्रांति होती औरवर्णाश्रमी सामंतवाद का विनाश हो जाता। लेकिन यह बहस निरर्थक है, जो हुआ वही होता। हमारा काम इसे बेहतर बनाने की कोशिश करना है।

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