मैं चुंगी में दुबारा आया हूं, इसलिए फिर से संक्षिप्त परिचय देना जरूरी है। मैं इवि के विज्ञान संकाय में 1972-76 विद्यार्थी रहा हूं, इन 4 सालों से कुछ अधिक समय के अंतिम भाग का कुछ समय नैनी में बीता है। 1973 में पिताजी की पढ़ाई के अफसर बनने उद्देश्य की राय न मानने की जिद से यह सोचकर उनसे पैसा लेना बंद कर दिया था कि जो होगा देखा जाएगा। और कुछ-न-कुछ होता ही गया। एक बार एक मित्र ने एक वाक्य में ऐतिहासिक भौतिकवाद परिभाषित करने को कहा, मैंने कहा, "अर्थ ही मूल है"। तो विचारों में स्वतंत्र होना चाहते हैं तो आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल कीजिए। मुफ्त में कोई कुछ नहीं देता, पिताजी पैसा देंगे तो विचार भी देंगे। वैसे भी उस समय खेती से नगदी का जुगाड़ आसान नहीं होता था।
1976 में भूमिगत जीवन की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आ गया और इवि के सीनियर और जेएनयूएसयू के तत्कालीन अध्यक्ष डीपी त्रिपाठी (दिवंगत) को खोजते जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे इवि के एक अन्य अपरिचित सीनियर, सुल्तानपुर के रमाशंकर सिंह मिल गए और रहने का जुगाड़ हो गया और थोड़ी मशक्कत के बाद गणित के ट्यूसन मिल गए, तो रोजी की भी जुगाड़ हो गयी। गणित के ट्यूसन से ही इलाहाबाद में भी रोजी चलती थी। इस तरह मैं 1977 में जेएनयू ज्वाइन करने के पहले ही जेएनयूआइट हो गया। इवि से जेएनयू पहुंचकर सुखद कल्चरल शॉक लगा, जिसके बारे में फिर कभी।
शुरू से ही नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीने का मंहगा शौक पाल लिया और हर शौक की कीमत चुकानी पड़ती हैे। इस शौक से थोड़ा समझौता करते तो 1984 में इवि में नौकरी मिल सकती थी लेकिन सिर एक बार झुक गया तो उठना मुश्किल होता है, देर-सवेर दिल्ली विवि में नौकरी मिल गयी और रिटायरमेंट तक चल भी गयी। लेकिन सिर उठाकर चलने के मंहगे शौक के चलते अभी पूरी पेंसन नहीं मिल रही है और प्रोविजनल पेंसन में कम्यूटेसन की सुविधा नहीं होती जिससे गांव के टूटते घर में दो कमरे ठीक कराकर कभी कभार रहने की इच्छा दबानी पड़ रही है। उम्मीद करता हूं इसी जीवनकाल में पूरी पेंसन मिल जाएगी। परिचय का यह हिस्सा अनावश्यक था। लेकिन अब तो लिख ही दिया।
मैं अपने छात्रों को पढ़ाता था, "One should be honest anyway, cynically honest if one can afford". (ईमानदारी तो हर हाल में होनी चाहिए और यदि बस में हो तो ईमानदारी की सनक). If you rationally calculate the real self interest in principled life and unprincipled life, you would find more pluses on the side of principled life. (उसूलों की जिंदगी और भ्रष्ट जिंदगी में यदि वास्तविक स्वहित का तार्किक आकलन करें तो पाएंगे कि उसूलों की जिंदगी बेहतर है।) मैं हमेशा ईमानदारी की सनक की जिंदगी जीता रहा हूं और उसकी पूरी कीमत अदा करता रहा हूं। कोई ईमानदारी पर उंगली उठाए तो मेरे लिए मां-बहन की गाली से भी बुरी गाली होती है। किसी की ऐसी ही गाली के और मेरे शिक्षक होने की गुणवत्ता पर उंगली उठाने चलते मैंने यह सोचकर ग्रुप छोड़ दिया था कि इनसे उलझकर समय नष्ट करने का कोई फायदा नहीं है।
दो युवा साथियों Amit Mishra और Raj K Mishra ने फोनकर आग्रह किया कि मैं फिर वापस आ जाऊं तो आ गया।
इसके पहले भी एक बार लोगों ने शायद जनमत संग्रह से मुझे ग्रुप से निकाल दिया था और फिर आमंत्रित किया था।
आजकल आभासी दुनिया के बाहर के कामों में ज्यादा व्यस्त हूं तो फेसबुक पर कम समय ही दे पाता हूं। हमारी किसी से खेत-मेड़ की लड़ाई है नहीं, और कोई अंतिम सत्य होता नहीं तो कोई अंतिम सत्य का वाहक भी नहीं हो सकता है। उम्मीद करता हूं कि जब भी कुछ लिखूं या शेयर करूं उसकी आलोचना खंडन-मंडन करें, निराधार निजी आक्षेप करने से बचें। मैं अपनी तरफ से ग्रुप को सार्थक विमर्श का मंच बनाने में पूरा योगदान देने की कोशिश करूंंगा।
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