Saturday, August 19, 2023

गणतंत्र के इकहत्तरवें वर्ष में नेहरू की याद 13

 गणतंत्र के इकहत्तरवें वर्ष में नेहरू की याद 13


जो लोग आजादी की लड़ाई के दौरान, प्रकारांतर से राष्ट्रवादी आंदोलन के विरुद्ध अंग्रजी राज की बांटो और राज करो नीति के वाहक थे और समाज में सांप्रदायिक जहर फैलाने के कसूरवार और अभूतपूर्व रक्तपात और अविश्सनीय स्तर पर विस्थापन के साथ मुल्क विखंडन के जिम्मेदार, वे गांधी-नेहरू पर तुष्टीकरण का आरोप लगाने लगे और गांधी जी को पाकिस्तान-परस्त खलनायक के रूप में चित्रित करने लगे। मंटो से लेकर असगर वजाहत तक कितने ही लोग इतिहास और संस्कृति के विखंडन की भयवह त्रासदी का हृदय विदारक चित्रण कर चुके हैं। मंटो की उस कहानी का नाम शर्तिया तौर पर याद नहीं लेकिन 40 साल पहले पढ़े दो वाक्य दिमाग पर खुद गए हैं। सर्वविदित है कि सावरकर के सहयोगी और आरयसयस के बौद्धिक प्रकोष्ठ के पदाधिकारी रह चुके एक धर्मोंमादी ने गांधीजी की 1848 में हत्या और उसके बाद उमड़ा शोकाकुल जनसैलाब, नेहरू-पटेल के कुशल नेतृत्व के चलते किसी क्रिया-प्रतिक्रिया के तोंडव से अछूता रहा। दोनों ही समुदायों धर्मोंमादी उत्पातियों पर गाज गिरी। आरयसयस और जमातेइस्लामी जैसे सांप्रदायिक संगठनों को अवैध घोषित कर दिया गया और इनके नेताओं को बंद कर दिया गया। गांधी की शहादत से शोकाकुल समाज इनके प्रति घृणा से भर उठा। गोलवल्कर समेत आरयसयस नेताओं की मिन्नतों, पार्टी के अंदर और बाहर दक्षिणपंथियों के दबाव तथा अपनी भलमनसाहत और सदाशयता के चलते नफरत का जहर फैलाने वाले संगठनों से पाबंदी उठाना, नेहरू सरकार की एक बड़ी राजनैतिक गलती थी। पटेल की 1950 में मृत्यु हो गयी थी और 1952 के पहले संसदीय चुनाव के बाद राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बन गए। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद, नेहरू के नेतृत्व में 1952 के पहले संसदीय चुनाव में कांग्रेस को इतना व्यापक बहुमत मिला कि संसद लगभग विपक्ष-विहीन थी। लेकिन हिंदुत्व और इस्लामी कट्टरपंथी बिल्कुल ही नदारत नहीं थे। हिंदू महासभा और जनसंघ तथा मुस्लिम लीग भी क्रमशः 4,3,1 सीटों पर विजयी हुए थे। कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव में भागीदारी नहीं की थी, दक्षिणपंथी दबाव में कांग्रेस से अलग हुई कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी अभी तक एक सुगठित पार्टी के रूप गठित नहीं हो पाई थी। वर्कर्स एंड पीजेंट पार्टी और रिवल्यूसलरी सोसलिस्ट पार्टी जैसे छोटे-मोटे वामपंथी संगठनों की भी संसद में उपस्थिति दर्ज हुई। पहली पंचवर्षीय परियोजना की उपलब्धियों के नाम पर 1957 के दूसरे चुनाव में भी नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को लगभग 70% सीटें मिली। आरयसयस की संसदीय शाखा, जनसंघ को 4 सीटें मिली थीं। प्रमुख विपक्ष वामपंथी पार्टियां थीं (सपीआई 27; प्रजा सोसलिस्ट पार्टी 19; फॉरवर्ड ब्लॉक (मार्क्सिस्ट) 2; पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी 4)। मुस्लिम लीग ने अपनी एक सीट बरकरार रखा। ‘राष्ट्र-निर्माण’ के उत्साह में लोगों ने दक्षिणपंथी आक्रामता को खारिज कर दिया था। इस चुनाव में एक अनहोनी सी हो गयी। केरल की 101 सदस्यों वाली विधान सभा में, पहला चुनाव लड़ने वाली सीपीआई को लगभग 41% मतों के साथ 60 सीटें मिलीं और 18% मतों के साथ प्रजा सोसलिस्ट पार्टी को 9। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने अकेले बहुमत के बावजूद स्वतंत्रता आंदोलन की साझी विरासत कोपुनर्जीवित करने के लिए पीयसपी (प्रजा सोसलिस्ट पार्टी) के साथ, कई किसान-मजदूर-छात्र आंदोलनों का नेतृत्व कर चुके तथा सीयसपी के संस्थापक सहसचिव, ईयमयस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में संयुक्त सरकार बनाया। सरकार में बने रहने के मुद्दे पर पीयसपी में विवाद हुआ राम मनोहर लोहिया को पार्टी से निकाल दिया गया और पीयसपी दो-फाड़ हो गयी, जिस पर चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। केरल सरकार ने नेहरू के संकल्पों को कार्यरूप देने का प्रयास किया और सबसे पहले शिक्षा और भूमि-सुधार पर ध्यान केंद्रित किया। दो कदम बढ़ी ही थी कि 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष, इंदिरा गांधी के दबाव में, केरल सरकार को भंग कर जीवन की भयंकर धृतराष्ट्रीय राजनैतिक गलती की। यह नेहरू के अन्यथा साफ-सुथरे; विवेकसम्मत; लोकतांत्रिक व्यक्तिव्य पर बड़ा सा काला धब्बा है।

19.08.2017

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