Wednesday, November 24, 2021

जिया का अजूबा जनतंत्र

पाकिस्तान में ‘जनतंत्र बहाली’

जिया का अजूबा जनतंत्र

ईश मिश्र

1985 के खत्म होते होते, तमाम सैनिक और गैर – सैनिक तानाशाहियों ने एकाएक ‘जनतंत्र’ में निष्ठा दिखाना शुरू कर दिया। फिलीपींस के राष्ट्रपति मारकोस पूरी सैनिक – तैयारी के साथ चुनाव-प्रचार में लगे हैं, बंग्लादेश के जनरल एरशाद ने ‘खुली राजनीति’ की  बात करना शुरू कर दिया है, तो श्रीलंका के ‘अर्ध – बोनापार्टवादी’ जयवर्धन ने ‘श्रीलंका फ्रीडम पार्टी’ की नेता श्रीमती भंडारनायके के अधिकारों की बहाली करके चुनाव की बात करना शुरू कर दिया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया-उल हक ही क्यों पीछे रहे? उन्होंने भी 30 दिसम्बर 85 को सेनाध्यक्ष के पद पर बने रहते हुए, सैनिक – शासक की तख्ती हटाने की घोषणा कर दी। लगता है, जिया ने सत्ता के लम्बे अनुभव से सीख ली कि निरंकुश –शासन जारी रखने के लिए, सैनिक – तानाशाही की बदनामी ढोते रहना लाभप्रद नहीं है। सेना के बल पर शासन करने वाले ‘गैर-सैनिक तानाशाहों’ के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। साढ़े आठ साल की अवधि के सैनिक-शासन को हटाने की उनकी औपचारिक घोषणा से लोग किसी खुशफहमी में न पड़ जाएं, इसलिए एहतियाती तौर पर जिया ने स्पष्ट कर दिय़ा है कि सुचारू-शासन में ‘रूकावट’ पड़ने की स्थिति में सेना ‘प्रभावी हस्तक्षेप’ करने के लिए तैयार खड़ी रहेगी। “जनतंत्र-बहाली” की घोषणा से अक हफ्ते पहले ‘जनतंत्र बहाली आन्दोलन’ से जुड़े 32 नेताओं को इस्लामाबाद में गिरफ्तार कर लिया गया और बाकी “जिया के जनतंत्र” के डर से भूमिगत हो गए। जाहिर है कि जिया की घोषणा ‘सैनिक तानाशाह’ का लबादा छोड़ कर गैर-सैनिक तानाशाह का लबादा धारण करने के सिवा कुछ नहीं है।

      वह ऐतिहासिक और भौगोलिक भाग, जो अब पाकिस्तान है, आजादी की लड़ाई के दऔरगन क्रांतिकारियों और वामपंथियों का गढ़ हुआ करता था। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों को अंग्रेजी हुकूमत ने ‘राजद्रोह’ के जिस मुकदमे में फांसी दी, वह ‘लाहौर कांसपिरेसी केस’ के नाम से जाना जाता है। बंटवारा स्वीकार करने वाले कांग्रेसी और मुस्लिमलीगी नेताओं ने, अपनी अदूरदर्शिता के कार भूगोल के साथ इतिहास का भी बंटवारा स्वीकार लिया। इतिहास की समग्रता को नष्ट करने या इतिहास के टुकड़े करने का मतलब है इतिहास को विकृत करना। पाकिस्तान के शासकों द्वारा पाकिस्तानक के लोगों के इतिहास को 1947 के बाद का बताना और पढ़ाना इतिहास की समग्रता को नष्ट करने की कोशिश है। एक देश के रूप में अस्तित्व में आने को बाद पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास के 38 सालों में से 15 साल “मार्शल ल़ॉ शासन” को समर्पित है। जनवादी आंदोलनों के दमन, सेना के उपयोग आदि मामलों में इस दौरान जो ‘नागरिक सरकारें’ भी रही उनका रवैया भी सैनिक-सरकारों से बहुत भिन्न नहीं रहा। हिन्दुस्तान कते बंटवारे से ब्रिटेन को कोई फायदा हुआ हो या न हुआ हो, पर अमेरिकी साम्राज्यवाद को पाकिस्तान के रूप में एक विश्वासपात्र पिछलग्गू जरूर मिल गया है। अफगानिस्तान में सोवियत समर्थक सरकार होने की वजह से, पाकिस्तान अमेरिकी दृष्टिकोण से और भी महत्वपूर्ण हो गया है। सत्ता में चाहे सैनिक सरकार रही हो या गैर-सैनिक, इसकी नीतियां अमेरिकी साम्राज्यावादी नीतियों के अनुकूल रही है और विदेश नीति के निर्धारण में तो वांशिगटन महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता ही रहा है। अमेरिकी प्रशासन, तीसरी दुनियाँ के अपने पिछलग्गू देशों में व्याप्त जन-असंतोष के विस्फोटक रूप लेने के खतरे से चिंतित हैं। अमेरिका इन देशों को ‘जनवाद की आँधी’ से बचाना चाहता है। जनवाद अमेरिकी हितों के प्रतिकूल है। जनवाद के ही भय से अमेरिकी प्रशासन इन तानाशाहों पर उदारवादी नीतियों को घोषणा के लिए दबाव डाल रहा है। अमेरिकी प्रशासन का इरादा शोषण और दमन से पीड़ित जनता का ध्यान बंटाना और दक्षिणपंथी विपक्ष को पटाना लगता है। लगता है, ‘जनवाद’ से भयभीत अमेरिकी प्रशासन के दबाव में ही मार्कोस, जयवर्धन, एरशाद, जिया – यानी उसके सारे अनुयायी-एकाएक ‘जनतंत्र’ और ‘चुनाव’ में निष्ठा दिखाने लगे हैं। लेकिन राजनीतिक रूप से भोले लोग ही इन तानाशाहों को ‘ जनतांत्रिक निष्ठा’ को गंभीरता से ले सकते हैं पाकिस्तान में पहता सार्शल-लॉ शासन 1985 में जनरल अयूब द्वारा लागू किया गया था, जो कि 4 साल तक चला। उसके बाद 1965 को भारत – पाक. युध्द के समय आपात स्थिति लागू कर दी गई, जिसके तहत नागरिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह आपात स्थिति 30 दिसम्बर 85 को जिया की घोषणा तक लागू थी। दूसरी बार मार्शल लॉ 1969 में याहूया खाँ द्वार लगाया गया जो भारत की मद्द से बंग्ला देश की मुक्ति के बाद तक 3 साल रहा। उसके बाद सत्ता में आनेवाली भुट्टो की निर्वाचित सरकार भी देश में जनतांत्रिक माहौल पैदा करने में असमर्थ रही। जनादोलनों के दमन तथा अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए सेना और सरकारी तंत्र के उपयोग के मामलों में भुट्टो की भूमिका भी पूर्ववर्ती सैनिक तानाशाहों से भिन्न नहीं थी। आर्थिक समस्याओं को हल करने में भी भुट्टो की नागरिक सरकार को कोई खास कामयाबी नहीं मिली। नागरिक सरकारों की असफलता और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार सैनिक तानाशाहों की जड़ें जमाने और मजबूत करने में सहायक सिध्द हुए। शायद इसलिए सैनिक सत्ता पलट में भुट्टो के अपदस्थ होने से लेकर फाँसी पर लटका दिये जाने तक के मसलों पर राष्ट्रव्यापी विरोध और प्रतिक्रिया का अभाव था।

                राजनीतिक प्रेक्षकों को, मार्शल लॉ हटाने की जिया की औपचारिक घोषणा के बावजूद, उनकी तानाशाही नीतियों में किसी बदलाव के आसार नहीं दिखाई देते। दल-विहीन संसद और इस्लामी जनतंत्र की अवधारणा यथावत कायम रहेगी। राजनीतिक गतिविधियों तथा संगठनों पर रोक पहले – सी ही रहगी। गैर-कानूनी करार किए गए राजनीतिक दलों के पंजीकरण  को लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। जनतंत्र बहालरी आंदोलन में शरीक सभी दलों ने पंजीकरण की इस नीति का विरोध किया है। पंजीकरण के लिए अनिवार्य शर्तों में पाकिस्तान की इस्लामी विचारधारा के प्रति निष्ठा भी शामिल है। प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधिशों, प्रांतों के राज्यपालों की नियुक्तियाँ राष्ट्रपति जनरल जिया द्वारा नागरिक-शासन की घोषणा महज शगूफेबाजी है।

      जिया ने, सत्तापलट के समय, तीन सहीने के अंदर मार्शल लॉ हटा लेने का वायदा किया था। जिया इस वायदे को साढे आठ साल तक, ‘वतन’ और ‘इस्लाम’ को किसी अनजान और अमूर्त खतरे से बचाने की दुहाई देकर, टालते गये। मार्शल लॉ हटाने की औपचारिक घोषणा से वहाँ के राजनीतिक माहौल में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। नेशनल डेमेक्रिटिक पार्टी के महासचिव तथा स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खाँ के सहयोगी, अब्दुल खालिक खान ने जिया की इस घोषणा को ‘सैनिक तानाशाही को वैधानिकता का लबादा पहनाना’ बताया है। श्री खान के मुताबिक, “पाकिस्तान की मौजूदा सरकार स्वतंत्र रूप से नीति-निर्धारण में अक्षम है”। जिया शासन की अर्थव्यवस्था एंव सैनिक-शक्ति, अमेरिकी कृपा पर निर्भर है। उन्होंने आगे कहा कि “पाकिस्तानी जनता अपने कटु अनुभवों से समझ गई है कि पाकिस्तान में जनतंत्र अमेरिकी हित में नहीं है”।

      मार्शल लॉ हटाने की घोषणा का मार्शल लॉ शासन के दौरान बने गैर-जनतात्रिक कानूनों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। 19 अक्तूबर 1985 को राष्ट्रीय संसद द्वारा पारित आठ संशोधनों में जिया की सैनिक सरकार के सभी नियमों, आदेशों, अध्यादेशों और क्रियाकलापों को वैधानिक करार दिया गया। मौलिक अधिकारों, प्रेस और न्यायपालिका पर लगी रोक भी इन आदेशों में शामिल हैं। इसके तहत जिया के सैनिक – शासन के कारनामों पर विचार या बहस भविष्य में किसी भी अदालत या संसद के अधिकार क्षेत्र से परे है। जिया ने अपने शासनकाल में, जो कुछ भी किया, सब इस्लास के नाम पर किया। खुमैनी की ही तरह जिया ने भी इस्लामी कानून की आड़ में औरतों और रचनाशील लेखकों, कवियों, कलाकारों तथा जनवादी राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर जुल्म ढाने में अपने पूर्ववर्ती सभी शासकों को पीछे छोड़ दिया।

      मशहूर गायक गुलाम अली करो भले ही जिया ‘संगीत को महान-प्रेमी’ और ‘रसियां’ नजर आएं (मनोरजन के लिए संगीतज्ञ पालना मध्यकालीन बादशाहों का शौक भी तो रहा है), पर किसी भी प्रगतिशील गैर-दरबारी रचनाकार करा जेल से बाहर रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता। इनके बाहर रहने से शायद ‘इस्लाम’ और ‘वतन’ के खतरे में पड़ जाने का डर हो। तभी मशहूर व्यंग्यकार इब्ने इंशा ने जेल की यातनाओं से दम तोड़ दिया तो क्रांतिकारी कवि हबीब जालिब और तमाम अन्य प्रगतिशील और जनवादी रचनाकार लगातार जेल-यातना भोग रहे हैं। जिया की तानाशाही के विरूध्द मौन जन-आक्रोश कभी भी विस्फोटक मोड़ ले सकता है।

      आम जनता की पीड़ा को अपनी कविताओं में पिरोकर जनता तक पहुँचाने और संस्कृति को, कठमुल्लों की विरासत न मान कर, जनता की लड़ाई से जोड़ने वाले हबीब जालिब जैसे तमाम क्रांतिकारी रचनाकार जिया के शासन में जेल के बाहर की हवा के लिए तरस गए। यातना और दमन-चक्र की कोई भी बर्बरता इन क्रांतिकारियोंम को पथ से विचलित करने में असफल रही। 17 बार जेल यात्रा करने वाले हबीब जालिब की कविताएं देश के हर कोने में छात्रों और नौजवानों के लिए प्ररेणा स्रोत बन गई हैं। हर तानाशाह की तरहर जिया भी भूल जाते हैं कि रचनाकार को तो कैद किया जा सकता है, पल जनमानस पर उसकी रचनाओं के प्रभाव को नहीं रोका जा सकता। एन. डी. पी. के महीसचिव अब्दुल खालिक का मानना है कि सैनिक शासन के अत्याचारों और अमेरिकी साम्राज्यवादी शोषण के विरूध्द देश-व्यापी जनाक्रोश तथा जरमराती अर्थव्यवस्था ने सशस्त्र संघर्ष के लिए आधार तैयार कर दिया है। जिया की कोई भी शगूफेबाजी जनवादी चेतना के नौजवानों को सशस्त्र-क्रांति का रास्ता अख्तियार करने से बहुत दिनों तक नहीं रोक सकती। मार्शल लॉ हटने से भी इन परिस्थितियों में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है।

      टेलिविजन और रेडियो पर अपने 40 मिनट के प्रसारणके सैनिक शासन हटाने की घोषणा करने के पहले जिया ने राष्ट्रीय असेम्बली और सेनेट को संयुक्त बैठक में बयान दिया कि वे देश में दल-विहीन राजनीतिक व्यवस्था के जरिए इस्लामी जनतंत्र को मजबूत करने के पक्ष में हैं। राजनीतिक दलों पर 1979 में लगाया गया प्रतिबंध जारी रहेगा। अपने प्रसारण में नागरिक अधिकारों, तथा प्रेस और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के प्रश्न पर जिया चुप्पी साधे रहे। जिया ने पूरे प्रसारण का, तमाम तर्को-कुतर्कों के माध्यम से, अधिकांश समय मार्शल लॉ लगाने का ऐतिहासिक – औचित्य समझाने में लगा दिया। प्रतिबंधित राजनीतिक दलों ने 1981 की फरवरी में जनतंत्र बहाली आंदोलन’ (एम. आर. डी.) नास से एक मोर्चा बनाया। मार्शल लॉ को दौरान छात्र-संघों पर लगाया गया प्रतिबंध जारी रहेगा। सैनिक अदालतों द्वारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ दिए गए फैसले भी कायम रहेगे। अपने फ्रसारण में जिया ने जनतंत्र  बहाली आंदोलन से जुड़ी पार्टियों को आंदोलनात्मक रवैया अपनाने पर भंयकर परिणामों को चेतावनी देते हुए 1990 में होने वाले ‘जनमतर संग्रह’ मार्का चुनाव तक इंतजार करने को ‘नेक मशविरा’ दिया। उल्लेखनीय है, दिसम्बर 1984 में जिया के ‘इस्लामिक जनतंत्र तके लरिए कराए गए जनमत – संग्रह क् विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया था। सरकारी तंत्र के खुले दुरूपयोग तथा तमाम दबाव और प्रलोभन के बावजूद सिर्फ 16 फीसदी लोगों को छोड़कर देश को पूरी आबादी ने ‘चित भी मेरी, पटी भी मेरी वाले ‘जनमत-सग्रह’ का बहिष्कार किया था। अपने प्रसारण में जिया ने स्वीकार किया कि “आज लॉ उठा लेने को बाद जिस जनतंत्र की शरुआत होगी, वह आज तकर के जनतंत्र (यानी मार्शल लॉ) से भिन्न न हो कर उसी का एक अंश है”। 1973 के संविधान के तहत सेनाध्यक्ष के कार्य-काल की अवधि 3 साल थी पर संविधान में संशोधन करके ऐसा प्रवाधान कर दिया गया कि जिया चाहे तो जीवन-पर्यत सेनाध्यक्ष के पद पर बनें रहे। ऐसी स्थिति में इतने दिनों की शगूफेबाजी के बाद सैनिक-शासन खत्म करने की घोषणा, पाकिस्तान की जनता के साथ एक घटिया-सा मजाक लगती है।

      1979 के अध्यादेश द्वारा गैर-कानूनी करार दिये गये राजनीतिक दलों को नए सिरे से पंजीकरण कराना होगा। पंजीकरण की शर्तों में ‘पाकिस्तान की इस्लामी विचारधारा’ के प्रति निष्ठा भी शामिल है। जनतंत्र – बहाली आंदोलन के एक प्रवक्ता के अनुसार, “आठ साल के मार्शल लॉ ने राजनीतिक जड़ता का जो वातावरण तेयार किया है, उस पर मार्शल लॉ हटाने की औपचारिक घोषणा का कोई असर नहीं पड़ा”। जनतंत्र – बहाली आंदोलन के नेता नवावजादा नसरूल्ला खान ने एक बयान में कहा, “जिया सैनिक-शासन के प्रतीक बन गए है”। उनके अनुसार, ‘जनतंत्र बहाली आंदोलन’ 1973 के संविधान की बहाली के लिए प्रतिबध्द है। भारत सरकार ने जिया की घोषणा को पाकिस्तान का आंतरिक मामला बताकर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया। सोवियत संघ ने जिया की घोषणा को “छद्म लोकतांत्रिक आवरण में जनविरोधी फौजी हुकूमत द्वारा अपने ही देश की शांति और सुरक्षा के खिलाफ किए गए अपरोधों को छिपाने की कोशिश” बताया है।

      सैनिक दमन की हर क्रूरता के बावजूद आए दिन, हजारों का हुजूम, दमन और शोषण के विरूध्द आक्रोश का प्रदर्शन करने सड़कों पर निकल आता है। इस्लामीकरण की नारेबाजी और विदेशी आक्रमण का हौवा, जनवादी चेतना का प्रसार रोक पाने में असफल रही है। अपनी सत्ता बचाने के लिए ‘अंदरूनी और बाहरी खतरों का हौवा खड़ा करने की नीति का मजाक उड़ाते हुए हबीब जालिब ने लिखा था—

      न मेरा घर है खतरे में,

      न तेरा घर है खतरे में

      वतन को कुछ नहीं खतरा,

      निजामेजर है खतरे में।

राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि, जिया को जनविरोधी नीतियों से उत्पन्न जनाक्रोश का ज्वालामुखी विस्फोटक स्थिति में पहुँच चुका है और जिया की ‘जनतंत्र बहाली’ की घोषणा का नाटक इस ज्वालामुखी को ठंडा करने का एक और प्रयास भर हैं।

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