यह लेख मार्च प्रथम पखवारा, 1986 का युवकधारा में मेर कॉलम विश्व परिक्रमा है।
ईश मिश्र
तंजानिया की
क्रांतिकारी पार्टी के अध्यक्ष जूलियस न्येरेरे की राष्ट्रपति पद के स्वेच्छा से
अवकाश लेने की घोषणा आकस्मिक ने होने के बावजूद आश्चर्यजनक है। 25 वर्षों तक
शासनाध्यक्ष रहते हुए न्येरेरे को राजनैतिक सक्रियता और लोकप्रियता में कोई कमी
नहीं आई। देश को समता और स्वावलम्बन के रास्ते पर ले जाने की प्रतिबध्दता तथा
अफ्रिकी व अन्य तीसरी दुनिया के देशों की समस्याओं के प्रति उनका सरोकार न्येरेरे
की अदभुत लोकप्रियता के मुख्य कारणों में से हैं। न्येरेरे जैसे विरले ही, ऐसी
अनुकूल परिस्थितियों में सत्ता से अलग होने का फैसला ले सकते हैं जबकि उन्हैं अपने
देश की जनता का पूर्ण विश्वास प्राप्त हो। न्येरेरे ने पद से अवकाश ग्रहण करने का
फैसला किया है, राजनीति से संन्यास लेने का नहीं। वे अपनी क्रांतिकारी पार्टी
‘चामा ज मपिदुजी’ के अध्यक्ष के रूप में देश की राजनीति को दिशा प्रदान करते
रहेगें। श्री न्येरेरे उस सही मायनों में जनता की समस्याओं से जोड़कर जनवादी
पार्टी बनाना चाहते हैं। राष्ट्रपति पद छोड़ देने से न्येरेरे का देश और महाव्दीप
के प्रति राजनैतिक दायित्व खत्म नहीं होगा। उपनिवेशवाद के विरूध्द आजादी की लड़ाई में नेतृत्व संभालने वाले
न्येरेरे शोषितों और पीडितों के संघर्ष के कभी अलग नहीं हो सकते।
उत्तरी तंजानिया के बूटीनामा गाँव में, 1922
में पैदा हुए जूलियस कामबारेज न्येरेरे ने शिक्षा पूरी करने के बाद अध्यापन का काम
शुरू किया। जब देश औपनिवेशिक शोषण के दौर से गुजर रहा हो तो न्येरेरे जैसे व्यक्ति
का उपनिवेशवाद के शिकंजे से मुक्ति के लिए राजनैतिक आंदोलन से जुड़ना स्वाभाविक ही
था। 1935 में वह ‘तंजनिया अफ्रीकी युनियन’ नामक राजनैतिक संगठन खड़ा किया जो आगे
चलकर तंजानिया के राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्वकारी दल में परिणित हो गया। अंग्रेजी
उपनिवेशवाद के विरूध्द आजादी की लड़ाई में न्येरेरे के इस संगठन की भूमिका की
तुलना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भूमिका से की जा
सकती है। राष्ट्रीय आंदोलन के नेता की हैसियत से न्येरेरे ने 1957 में, तंजानिया
की आजादी का मसला, संयुक्त राष्ट्रसंघ में उठाया। 1961 में अंग्रेजी साम्राज्यवाद
से मुक्ति के बाद न्येरेरे स्वतंत्र तंजानिया के पहले प्रधानमंत्री बने। इसके बाद
वह देश के नेता के रूप में तंजानिया को आत्मनिर्भर बनाने और समाजवादी समाज की
स्थापना करने के लिए निरंतर नये प्रयोग करते रहे। उन्होंने अफ्रीकी सामाजिक और
सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुकुल समाजवाद की व्याख्या की। व्यक्तिगत जीवन में
सादगी और आम आदमी की तरहर जीवन यापन का जो उदाहरण न्येरेरे ने प्रस्तुत किया है,
वह आज के संदर्भ में अतुलनीय है।
सैनिक विद्रोहों द्वारा सत्ता-पलट के लिए
कुख्यात अफ्रीका महाव्दीप में न्येरेरे से पहले दो अन्य निर्वाचित नेता स्वेच्छा
से सत्ता से अवकाश ग्रहण कर चुके हैं। जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार विजेता, सेनेगल के
राष्ट्रपति लियोपोल्ड सेडार सेंगोर ने 1981 में राष्ट्रपति पद से अवकाश ग्रहण करने
के साथ ही राजनीति से भी संन्यास ले लिया था। सेंगोर मूलतः एक कवि हैं और अब
जनसाधारण की तरह जीवन यापन कर रहे हैं । सेंगोर के बाद कैमरून के राष्ट्रपति
अहिद्जपे ने 1982 में स्वेच्छा पदत्याग किया था। वह अपने उत्तराधिकारी के खिलाफ
सत्ता-पलट की साजिश के आरोप में फ्रांस में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। न्येरेरे
का पद से अवकाश लेना इन दोनों राष्ट्राध्यक्षी से भिन्न इसलिए हैं कि उन्होंने
राजनीति छोड़ने के लिए नहीं, बल्कि राजनीति को ज्यादा प्रभावशाली बनाने और जनजीवन
से जोड़ेने के लिए पद छोड़ने की घोषणा की है। ख्याति एंव लोकप्रियता की चरम
ऊँचाईयों पर पहुँच कर सत्ता से अलग होना और पार्टी के लिए कास करने का निर्णय उनके
व्यक्तिवाद के विरोध और विचारधारा एंव सामुहिक नेतृत्व की प्रधानता के सिध्दांत की
पुष्टि करता है। कथनी और करनी में सामंजस्य आज के राजनैतिक संदर्भ में महत्वपूर्ण
बात है।
आजादी के बाद तंजानिया की विशिष्ट सामाजिक
एंव सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुकूल समाजवाद की व्याख्या, किसी सैध्दांतिक
मांडल की अनुपस्थिति में, एक दुरूह काम था। लीक पर न चलकर विश्व के मौजूदा
राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में अफ्रीका की विशिष्ट परिस्थितियों को समझने और तदनुरूप
सिध्दातों का प्रतिपादन करने में जिस विवेक का परिचय न्येरेरे ने दिया है उससे
उनकी राजनीति के मौलिक चिंतक और दार्शनिक की छवि स्थापित होती है।
आलोचना और आत्मलोचना में विश्वास रखने वाले
न्येरेरे, अनुभव के आधार पर सिध्दातों और विचारों में परिवर्तन और तदनुरूप राजनीति
और कार्यनीति का निर्धारण करते रहे। अफ्रीकी अतीत की रूमानी समझ पर आधारित ‘उजामा’
में 1962 में प्रतिपादित समाजबाद पर, अपने विचारों का पुनर्मुल्यांकन करके 1967
में ‘अरूशा-घोषणा’ का प्रतिपादन किया। 1967 में ‘अरूशा-घोषणा में उन्होंने अपने
‘उजामा’ के विचारों को संशोधित किया और समाजवाद के व्यावहारिक पहलुओं पर ज्यादा
जोर दिया। उन्होंने कहा, “समाजवाद की स्थापना, सरकार के फैसलों या संसद में पारित
प्रस्तावों से नहीं होती। राष्ट्रीयकरण या
बड़ी-बड़ी कागजी कार्यवाईयों से ही कोई देश सामाजवादी नहीं हो जाता। समाजवादी समाज
की स्थापना एक जटिल तथा ज्यादा समय लेने वाली प्रक्रिया है। “समाजवादी उद्देश्यों
को कार्यन्वित करने के लिए उन्होंने नए तरह के नेतृत्व पर जोर दिया। पार्टी के
संविधान में ऐसे प्रावधान रखे गए जिससे पार्टी के नेता नए ‘सुविधाभोगी’ वर्ग के
रूप में न उभर सके। पार्टी के नेताओं द्वारा व्यक्तिगत सम्पत्ति जमा करने पर
प्रतिबंध लगाने के लिँ नियम बनाए गए। इन नियमों का पालन न्येरेरे ने स्वंय अपने
व्यक्तिगत जीवन में कड़ाई से किया। जिसका नतीजा है कि आज सत्ता से अलग होते समय
न्येरेरे के पास अपने गाँव के पुराने घर के अलावा कोई भी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं
है। अपने खर्चों के लिए लोगों द्वारा दिए गए उपहारों को रखने की जगह भी नहीं है
उनके पास।
‘अरूशा घोषणा’ के वर्षों बाद न्येरेरे ने
महसूस किया कि नेतृत्व के लिए नियम मात्र, नेतृत्व को लाल फीताशाही और लोगों की
जरूरत के प्रति अनुतरदायी होने से नहीं बचा सकते। उन्होंने स्वीकार किया कि
तंजानिया अभी भी समाजवादी लक्ष्यों से काफी दूर है, क्योकि “हम बिना समाजवादीयों
के समाजवाद की स्थापना करना चाहता है”।
अपनी अवधारणाओं के प्रतिपादन में न्येरेरे
ने लोगों के रोजमर्रा जीवन की विषम वास्तविकताओं को हमेशा ध्यान में रखा। इसके लिए
उन्होंने देश को, सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया। देश की प्रगति
के लिए उन्हीं विदेशी सहायताओं को स्वीकार किया जो देश को आत्मनिर्भर बनाने में
सहायक हों। चीन द्वारा तंजानिया में रेल लाईनों के निमार्ण की सहायता का उन्होंने
स्वागत किया।
शिक्षा पर न्येरेरे की अवधारणा औपनिवेशिक
शिकंजे से मुक्त हुए सभी देशों के लिए महत्वपूर्ण है। “आत्मनिर्भरता के लिए
शिक्षा” की बात करते हुए उन्होंने औपनिवेशिक शिक्षा पध्दतिकी कड़ी आलोचना की और
औपनिवेशिक शिक्षा पध्दति को, भ्रामक मूल्य, नकलची संस्कृति और परजीवी वर्ग पैदा
करने वाली बताकर खारिज कर दिया। शिक्षा को समाज की मौजूदा जरूरतों जोड़ने पर जार
देते हुए उन्होंने कहा, आज की विशिष्ट परिस्थितियों में विधार्थियों को ऐसी शिक्षी
देनी चाहिए जिससे वे “देश के ग्रामीण इलाकों की बेहतरी के लिए कास कर सकें”।
न्येरेरे द्वारा मनोनीत जंजीबार दीप की क्रांतिकारी
परिषद के अध्यक्ष और तंजानिया गणराज्य के उपराष्ट्रपति ग्बिभ्यी करो न्येरेरे के
उत्तराधिकारी के रूप में चुनकर तंजानिया की जनता ने दरअसल न्येरेरे के नेतृत्व में
ही विश्वास व्यक्त किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्येरेरे पार्टी के प्रमुख
प्रवक्ता और दार्शनिक के रूप में तंजानिया तथा तीसरी दुनिया के देशों की बेहतरी के
लिए पहले की भांति आगे भी सक्रिय रहेंगे।
चंदगाँव क्षेत्र में आदिवासी छापामार
विद्रोहियों को भारत द्वारा सहायता एंव शह देने की बात भी इन दिनों दबी जुबान से
की जा रही है, जबकि बंग्ला देश के ये विद्रोही भारत और वर्मा की सीमा से लगे 5020
वर्ग कि. मी. के क्षेत्र को आर्थिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता देने की माँग 1972 से
ही कर रहे हैं। इसके इस पहाड़ी क्षेत्र की आवादी में ज्यादातर बौध्द हैं। इसके
अलावा भी ढाका तथा अन्य जगहों पर सैनिक शासन के खिलाफ तमांम शक्तिशाली आंन्दोलन चल
रहे हैं तथा एरशाद की सैनिक सरकार उनके दमन में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। ढाका
विश्वविधालय के छात्रों के आंदोलन को कुचलने में जिस दमनकारी रवैये का परिचय दिया
गया है। वह सर्वविदित है। पाकिस्तान के जनरल जियाउलहक की तरह बंग्ला देश के जनरल
मोहम्मद एरशाद भी चुनाव का नाटक करके चुनावी राजनीति का मखौल उड़ाते रहे हैं। इन
अंदरूनी समस्याओं को नजर अंदाज करने के लिए बाहरी समस्याओँ एंव खतरों को दुहाई
देना जरूरी-सा हो गया है एरशाद के लिए। गंगा के पानी के बंटवारे की समस्या जो इतने
से लटकी हुई है, सैनिक सरकार की इसी नीति का प्रतिफल लगती है।
नसाऊ में राष्ट्रमंड़ल देशों की बैठक के समय
राजीव और एरशाद में जलविवाद को लेकर काफी “सकारात्मक” बातचीत हुई है। इस बातचीत से
विवाद सुलझाने की दिशा में बैठको का एक सिलसिला शुरू होगा जो एक साल बाद
शिखर-वार्ता द्वारा समझौते को कार्यान्वित करने की रूपरेखा तैयार करेगा। दोनों
देशों के विदेश मंत्रियों ने भी फरक्का बांध और गंगा के पानी के आपसी बंटवारे को
लेकर वैकल्पिक- ढांचा तैयार करने पर बातचीत की। अभी तो 1982 के समझौते को ही और
तीन साल तक बढ़ाने की बात हो पाई है।
उस समस्या के किसी स्थाई हल के आसार फिलहाल
तो नजर नहीं आते। आंतरिक अस्थिरता के रहले एरशाद की सैनिक सरकार लगता नहीं कि
बाह्य समस्याओं का कोई शांतिपूर्ण हल चाहती है। किसी भी तानाशाह सरकार के लिए
बाहरी “खतरों” को बनाए रखना जरूरी सा हो गया है।
अंदरूनी समस्याओं से
प्रभावित बंग्ला देश की विदेश नीति
1977 में अस्तित्व
में आया बंग्ला देश अपने 14 साल के इतिहास में कई सत्ता-पलट और अन्य आंतरिक राजनीतिक
उहापोह के दौर से गुजर चुका है। देश की आंतरिक समस्याओं ने विदेश नीति पर भी अपनी
छाप छोड़ी है। संघर्ष की जिन विशिष्ट परिस्थितियों में बंग्ला देश का उदय एक स्वंतंत्र
राष्ट्र के रूप में हुआ, देश के मित्र और
शत्रु राष्ट्रों का निर्धारण भी उन्हीं परिस्थितियों ने किया। कहने को तो बंग्ला
देश का उदय पाकिस्तान की सैनिक तानाशाही के खिलाफ मुक्तिवाहिनी के सशस्त्र संघर्ष
से हुआ लेकिन सभी को मालूम है कि भारत की सैनिक सहायता एंव सीधे हस्तक्षेप ने
इसमें निर्णायक भूमिका अदा की। विश्व-राज नीति के स्तर पर सोवियत संघ की राजनयिक
सहायता ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कि। कहना ने होगा कि अमेरिका को सातवाँ बेड़ा
सोवियत संघ के सीधे हस्तक्षेप के डर से ही पाकिस्तान की सहायता में नहीं आ सका।
भारत और सोवियत संघ बंग्ला देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ बनाने में हर संभव प्रयास
करने लगे। आशा की जाने लगी थी कि बंग्ला देश एक मित्र पड़ोसी देश के रूप में बना
रहेगा। लेकिन 1975 की सत्ता-पलट और शेख मुजीबुर्रहमान तथा उनके परिवार जनों की
हत्या ने बंग्ला देश विदेश नीति को इस बुरी तरह प्रभावित किया कि मुजीब सरकार के
समर्थक और मित्र राष्टों को शत्रु-राष्टों की श्रेणी में रख दिया गया। भारत-बंग्ला
देश सीमा विवाद तथा गंगा के पानी के बंटवारे की समस्या इस सत्ता-पलट के बाद ही
शुरू हुई।
यूरोप
इटलीः जाना और वापस आना क्रेक्सी सरकार का
इटली की राजनीति भी
अजीब है साझा सरकारों की जो मिसाल इटली के राजनीतिक इतिहास में मिलती है, वह
अतुलनीय है। दूसरे विश्वयुध्द के बाद से अब तक इटली की कोई भी सरकार तीन साल से
ज्यादा सत्ता में नहीं रही। ‘एंकिल लारा’ जहाज के अपहरण, फिलीस्तीनी सबसे लंबे समय
तक सत्ता में रहने का श्रेय प्राप्त होता। लेकिन अमेरिका की नाराजगी से बचने के
लरिए स्पेडोलीनी की रिपब्लिकन पार्टी ने अपना समर्थन वापस लेकर क्रेक्सी को यह
श्रेय नहीं प्राप्त करने दिया। अब फिर स्पेडोलीनी ने क्रक्सी की समाजवादी पार्टी
को समर्थन देने का फैसला लिया है और इंतालवी राजनीति में क्रेक्सी की वापसी हो रही
है। प्रकारांतर से ‘एंकिल लारा’ प्रकरण से क्रेक्सी के प्रभाव व प्रतिष्ठा में
वृध्दि ही हुई है।
उल्लेखनीय है,
फिलिस्तीनी छापामारों ने इटली के एकिल लारा जहाज का अपहरण करके दो अमेरिकी
नागरिकों की हत्या कर दी थी। अपहर्ताओं के समर्पण के बाद अमेरिका और प. यूरोपीय
देशों के दवाव के बावजूद क्रेक्सी सरकार ने फिलिस्तीनी अपहर्ताओं को रिहा कर दिया।
रोगन प्रकाशन को क्रेक्सी सरकार को यह कदम काफी नागवार लगा। उधर फिलिस्तीनी मुक्ति
संगठन (पी. एप. ओ.) ने भी एकिल लारा के अपहरण और अमेरिका नागरिकों की हत्या की
जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया। ऐसी परिस्थिति में क्रेक्सी सरकार ने अमेरिकी
नाराजगी की बगैर परवाद किये, फिलीस्तीनी अपहर्ताओं को रिहा करके बेशक हिम्मत
दिखाई। लेकिन क्रेक्सी सरकार के इसी निर्यण को मुद्दा बनाकर इटली की दक्षिणपंथी
रिपब्लिकन पार्टी ने क्रेक्सी सरकार से अपना समर्थन वापस लेने को फैसला ले लिया और
क्रेक्सी सरकार का पतन हुआ। लेकिन स्पेडोली का उपर्युक्त फैसला महज एक क्षणिक
प्रतिक्रिया भर साबित हुआ क्योंकि आखिरकार स्पेडोलीनी और उनके दल को भी तो एक जमीन
चाहिए। क्रेक्सी को दोबारा वापसी से इस बात के संकेत भी मिलते हैं कि इटली की
जनता, फिलिस्तीनियों के खिलाफ अमेरिका द्वारा इजराइल को मिलने वाली मदद को पसंद
नहीं करती।
इटली को साझा सरकार
में क्रेक्सी की समाजवादी पार्टी दूसरे स्थान पर है। समाजवादी पार्टी की तुलना
में, वहां को संसद में क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्य ज्यादा है। फिर भी
दक्षिणपंथी खतरे की परवाह किऐ बिना क्रेक्सी द्वारा, एकिल लारा काण्ड के फिलिस्तीनी
छापामार-नेता अब्बासी की रिहाई का फैसला उनके साम्राज्यवाद विरोधी सरोकारों पर एक
और मुहर लगाता है।
ईश मिश्र
1986
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