अवधी और भोजपुरी में पारस्परिकता पर चल रहे विमर्श में एक मित्र ने कहा, "अवधी को विस्तार में देखें अवधी में भी अवधी है जैसे या अल्ला पाड़ो में पाड़े कोस कोस पर बदले पानी चार कोस पर वदले वानी।"
बचपन में एक कहावत सुनते थे कि एक पंडितजी के घर एक मुसलमान दोस्त आया था। पंडित जी को एक ब्रह्मभोज में जाना था। वे अपने दोस्त को साथ ले गए और उससे कहा कि कोई पूछे तो वह कह दे कि वह पांडेय है। वह पांत में बैठकर भोजन कर रहा था कि उसके पास खाना परसने वाला कोई रुका, उसे लगा वह जाति पूछेगा। उसने उसके कुछ पूछे बिना बता दिया कि वह पांडे है। परसने वाले ने पूछा कि वह कौन सा पांडे है? उसे कोई जवाब नहीं सूझा और उसके मुंह से निकला, "हाय अल्ला पांडौ में पांड़ा" मित्र के कमेंट पर मेरा कमेंट:
ये कहानी आपके यहां भी मशहूर है? हाय अल्ला, पांडौ में पांडा! लगता है पूंजीवाद ने श्रेणीबद्धता ओऔर उपश्रेणीबद्धता में जाति-व्यवस्था से काफी कुछ सीखा है। सबसे नीचे वाले को छोड़कर सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है। मेरी पत्नी कहा करती थीं कि वे लोग हमसे बड़े ब्राह्मण हैं, मैं कहता था कि मैं तो ब्राह्मण ही नहीं रहा। हमारे बहुत बचपन में हमारी एक बुआ की शादी एक उपाध्याय (उपधिया) परिवार में हुई तो लोग बाबा का नाम लेकर पीठ पीछे कहते थे कि 'एतनी कौन मजबूरी रही कि बिटिया उपधिया के इहां बिआहि देहेन?'
बचपन में खेत में मजदूरों को नाश्ता (खमिटाव) लेकर जाता था तो खाने के साथ सर्बत या मट्ठे का बर्तन उन्हें पकड़ाकर खुद हल जोतने लगता। 2-2 सामाजिक मान्यताएं (रूढ़ियां) टूटतीं। दलित जाति क मजदूर बर्तन छू देते और ब्राह्मण बालक हल जोतता। उस समय तक वर्णाश्रमी व्यवस्था का वेद-हल द्वैध ( Veda-Plough dichotomy) लगभग पूरी तरह प्रचलन में था। मजदूर दोनो बातों की बाबा से शिकायत करने की धमकी देते थे। वे मुझसे इतना प्यार करते थे कि मैं उनकी धमकियों को गंभीरता से नहीं लेता था।
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