Sunday, November 28, 2021

लल्ला पुराण 316 (धर्मनिरपेक्षता)

 औरंगजेब के जमाने में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की अवधारणाएं नहीं थीं, दोनों ही आधुनिक अवधारणाएं हैं। विचारधारा के रूप में सांप्रदायिकता का निर्माण 1857 की क्रांति से आक्रांत औपनिवेशिक शासकों ने हिंदू और मुसलमान समुदायों के अपने दलालों के माध्यम से बांटो-राज करो तथा राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए किया। हिंदू महा सभा-आरएसएस तथा मुस्लिमलीग-जमाते-इस्लामी के रूप में संगठित उसके एजेंट मुल्क में हिंसक विषवमन करते रहे जिसके परिणामस्वरूप मुल्क का बंटवारा हुआ जिसके घाव नासूर बन गए हैं। हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की ही, फासीवादी राजनैतिक अभिव्यक्ति है। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है।

Saturday, November 27, 2021

नफरत के खंजर से किए जाते हैं जो कत्ल

 नफरत के खंजर से किए जाते हैं जो कत्ल

उनमें किया जाता है लाशों को नजरजिंदां

काजी-ए-क्त की अदालत में चलेगा उस पर मुकदमा

मुद्दई को देख मुसिफ की कुर्सी पर लगे भले ही अजूबा

उठता ही रहता है यहां कातिल की जहमत का मुद्दा

मांगा जाता है लाश से खंजर में आए ख़म का मुआवजा

इस शहर में है लाशों पर मुकदमे चलाने की रवायत

बदलकर ऐसे नफरती रिवाज लाना है सामाजिक सौहार्द

नफरत से पैदा होती है फासीवाद की हैवानियत

मुहब्बत से जन्मती है इंकलाब की इंसानियत

Wednesday, November 24, 2021

जिया का अजूबा जनतंत्र

पाकिस्तान में ‘जनतंत्र बहाली’

जिया का अजूबा जनतंत्र

ईश मिश्र

1985 के खत्म होते होते, तमाम सैनिक और गैर – सैनिक तानाशाहियों ने एकाएक ‘जनतंत्र’ में निष्ठा दिखाना शुरू कर दिया। फिलीपींस के राष्ट्रपति मारकोस पूरी सैनिक – तैयारी के साथ चुनाव-प्रचार में लगे हैं, बंग्लादेश के जनरल एरशाद ने ‘खुली राजनीति’ की  बात करना शुरू कर दिया है, तो श्रीलंका के ‘अर्ध – बोनापार्टवादी’ जयवर्धन ने ‘श्रीलंका फ्रीडम पार्टी’ की नेता श्रीमती भंडारनायके के अधिकारों की बहाली करके चुनाव की बात करना शुरू कर दिया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया-उल हक ही क्यों पीछे रहे? उन्होंने भी 30 दिसम्बर 85 को सेनाध्यक्ष के पद पर बने रहते हुए, सैनिक – शासक की तख्ती हटाने की घोषणा कर दी। लगता है, जिया ने सत्ता के लम्बे अनुभव से सीख ली कि निरंकुश –शासन जारी रखने के लिए, सैनिक – तानाशाही की बदनामी ढोते रहना लाभप्रद नहीं है। सेना के बल पर शासन करने वाले ‘गैर-सैनिक तानाशाहों’ के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। साढ़े आठ साल की अवधि के सैनिक-शासन को हटाने की उनकी औपचारिक घोषणा से लोग किसी खुशफहमी में न पड़ जाएं, इसलिए एहतियाती तौर पर जिया ने स्पष्ट कर दिय़ा है कि सुचारू-शासन में ‘रूकावट’ पड़ने की स्थिति में सेना ‘प्रभावी हस्तक्षेप’ करने के लिए तैयार खड़ी रहेगी। “जनतंत्र-बहाली” की घोषणा से अक हफ्ते पहले ‘जनतंत्र बहाली आन्दोलन’ से जुड़े 32 नेताओं को इस्लामाबाद में गिरफ्तार कर लिया गया और बाकी “जिया के जनतंत्र” के डर से भूमिगत हो गए। जाहिर है कि जिया की घोषणा ‘सैनिक तानाशाह’ का लबादा छोड़ कर गैर-सैनिक तानाशाह का लबादा धारण करने के सिवा कुछ नहीं है।

      वह ऐतिहासिक और भौगोलिक भाग, जो अब पाकिस्तान है, आजादी की लड़ाई के दऔरगन क्रांतिकारियों और वामपंथियों का गढ़ हुआ करता था। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों को अंग्रेजी हुकूमत ने ‘राजद्रोह’ के जिस मुकदमे में फांसी दी, वह ‘लाहौर कांसपिरेसी केस’ के नाम से जाना जाता है। बंटवारा स्वीकार करने वाले कांग्रेसी और मुस्लिमलीगी नेताओं ने, अपनी अदूरदर्शिता के कार भूगोल के साथ इतिहास का भी बंटवारा स्वीकार लिया। इतिहास की समग्रता को नष्ट करने या इतिहास के टुकड़े करने का मतलब है इतिहास को विकृत करना। पाकिस्तान के शासकों द्वारा पाकिस्तानक के लोगों के इतिहास को 1947 के बाद का बताना और पढ़ाना इतिहास की समग्रता को नष्ट करने की कोशिश है। एक देश के रूप में अस्तित्व में आने को बाद पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास के 38 सालों में से 15 साल “मार्शल ल़ॉ शासन” को समर्पित है। जनवादी आंदोलनों के दमन, सेना के उपयोग आदि मामलों में इस दौरान जो ‘नागरिक सरकारें’ भी रही उनका रवैया भी सैनिक-सरकारों से बहुत भिन्न नहीं रहा। हिन्दुस्तान कते बंटवारे से ब्रिटेन को कोई फायदा हुआ हो या न हुआ हो, पर अमेरिकी साम्राज्यवाद को पाकिस्तान के रूप में एक विश्वासपात्र पिछलग्गू जरूर मिल गया है। अफगानिस्तान में सोवियत समर्थक सरकार होने की वजह से, पाकिस्तान अमेरिकी दृष्टिकोण से और भी महत्वपूर्ण हो गया है। सत्ता में चाहे सैनिक सरकार रही हो या गैर-सैनिक, इसकी नीतियां अमेरिकी साम्राज्यावादी नीतियों के अनुकूल रही है और विदेश नीति के निर्धारण में तो वांशिगटन महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता ही रहा है। अमेरिकी प्रशासन, तीसरी दुनियाँ के अपने पिछलग्गू देशों में व्याप्त जन-असंतोष के विस्फोटक रूप लेने के खतरे से चिंतित हैं। अमेरिका इन देशों को ‘जनवाद की आँधी’ से बचाना चाहता है। जनवाद अमेरिकी हितों के प्रतिकूल है। जनवाद के ही भय से अमेरिकी प्रशासन इन तानाशाहों पर उदारवादी नीतियों को घोषणा के लिए दबाव डाल रहा है। अमेरिकी प्रशासन का इरादा शोषण और दमन से पीड़ित जनता का ध्यान बंटाना और दक्षिणपंथी विपक्ष को पटाना लगता है। लगता है, ‘जनवाद’ से भयभीत अमेरिकी प्रशासन के दबाव में ही मार्कोस, जयवर्धन, एरशाद, जिया – यानी उसके सारे अनुयायी-एकाएक ‘जनतंत्र’ और ‘चुनाव’ में निष्ठा दिखाने लगे हैं। लेकिन राजनीतिक रूप से भोले लोग ही इन तानाशाहों को ‘ जनतांत्रिक निष्ठा’ को गंभीरता से ले सकते हैं पाकिस्तान में पहता सार्शल-लॉ शासन 1985 में जनरल अयूब द्वारा लागू किया गया था, जो कि 4 साल तक चला। उसके बाद 1965 को भारत – पाक. युध्द के समय आपात स्थिति लागू कर दी गई, जिसके तहत नागरिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह आपात स्थिति 30 दिसम्बर 85 को जिया की घोषणा तक लागू थी। दूसरी बार मार्शल लॉ 1969 में याहूया खाँ द्वार लगाया गया जो भारत की मद्द से बंग्ला देश की मुक्ति के बाद तक 3 साल रहा। उसके बाद सत्ता में आनेवाली भुट्टो की निर्वाचित सरकार भी देश में जनतांत्रिक माहौल पैदा करने में असमर्थ रही। जनादोलनों के दमन तथा अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए सेना और सरकारी तंत्र के उपयोग के मामलों में भुट्टो की भूमिका भी पूर्ववर्ती सैनिक तानाशाहों से भिन्न नहीं थी। आर्थिक समस्याओं को हल करने में भी भुट्टो की नागरिक सरकार को कोई खास कामयाबी नहीं मिली। नागरिक सरकारों की असफलता और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार सैनिक तानाशाहों की जड़ें जमाने और मजबूत करने में सहायक सिध्द हुए। शायद इसलिए सैनिक सत्ता पलट में भुट्टो के अपदस्थ होने से लेकर फाँसी पर लटका दिये जाने तक के मसलों पर राष्ट्रव्यापी विरोध और प्रतिक्रिया का अभाव था।

                राजनीतिक प्रेक्षकों को, मार्शल लॉ हटाने की जिया की औपचारिक घोषणा के बावजूद, उनकी तानाशाही नीतियों में किसी बदलाव के आसार नहीं दिखाई देते। दल-विहीन संसद और इस्लामी जनतंत्र की अवधारणा यथावत कायम रहेगी। राजनीतिक गतिविधियों तथा संगठनों पर रोक पहले – सी ही रहगी। गैर-कानूनी करार किए गए राजनीतिक दलों के पंजीकरण  को लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। जनतंत्र बहालरी आंदोलन में शरीक सभी दलों ने पंजीकरण की इस नीति का विरोध किया है। पंजीकरण के लिए अनिवार्य शर्तों में पाकिस्तान की इस्लामी विचारधारा के प्रति निष्ठा भी शामिल है। प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधिशों, प्रांतों के राज्यपालों की नियुक्तियाँ राष्ट्रपति जनरल जिया द्वारा नागरिक-शासन की घोषणा महज शगूफेबाजी है।

      जिया ने, सत्तापलट के समय, तीन सहीने के अंदर मार्शल लॉ हटा लेने का वायदा किया था। जिया इस वायदे को साढे आठ साल तक, ‘वतन’ और ‘इस्लाम’ को किसी अनजान और अमूर्त खतरे से बचाने की दुहाई देकर, टालते गये। मार्शल लॉ हटाने की औपचारिक घोषणा से वहाँ के राजनीतिक माहौल में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। नेशनल डेमेक्रिटिक पार्टी के महासचिव तथा स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खाँ के सहयोगी, अब्दुल खालिक खान ने जिया की इस घोषणा को ‘सैनिक तानाशाही को वैधानिकता का लबादा पहनाना’ बताया है। श्री खान के मुताबिक, “पाकिस्तान की मौजूदा सरकार स्वतंत्र रूप से नीति-निर्धारण में अक्षम है”। जिया शासन की अर्थव्यवस्था एंव सैनिक-शक्ति, अमेरिकी कृपा पर निर्भर है। उन्होंने आगे कहा कि “पाकिस्तानी जनता अपने कटु अनुभवों से समझ गई है कि पाकिस्तान में जनतंत्र अमेरिकी हित में नहीं है”।

      मार्शल लॉ हटाने की घोषणा का मार्शल लॉ शासन के दौरान बने गैर-जनतात्रिक कानूनों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। 19 अक्तूबर 1985 को राष्ट्रीय संसद द्वारा पारित आठ संशोधनों में जिया की सैनिक सरकार के सभी नियमों, आदेशों, अध्यादेशों और क्रियाकलापों को वैधानिक करार दिया गया। मौलिक अधिकारों, प्रेस और न्यायपालिका पर लगी रोक भी इन आदेशों में शामिल हैं। इसके तहत जिया के सैनिक – शासन के कारनामों पर विचार या बहस भविष्य में किसी भी अदालत या संसद के अधिकार क्षेत्र से परे है। जिया ने अपने शासनकाल में, जो कुछ भी किया, सब इस्लास के नाम पर किया। खुमैनी की ही तरह जिया ने भी इस्लामी कानून की आड़ में औरतों और रचनाशील लेखकों, कवियों, कलाकारों तथा जनवादी राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर जुल्म ढाने में अपने पूर्ववर्ती सभी शासकों को पीछे छोड़ दिया।

      मशहूर गायक गुलाम अली करो भले ही जिया ‘संगीत को महान-प्रेमी’ और ‘रसियां’ नजर आएं (मनोरजन के लिए संगीतज्ञ पालना मध्यकालीन बादशाहों का शौक भी तो रहा है), पर किसी भी प्रगतिशील गैर-दरबारी रचनाकार करा जेल से बाहर रहना उन्हें अच्छा नहीं लगता। इनके बाहर रहने से शायद ‘इस्लाम’ और ‘वतन’ के खतरे में पड़ जाने का डर हो। तभी मशहूर व्यंग्यकार इब्ने इंशा ने जेल की यातनाओं से दम तोड़ दिया तो क्रांतिकारी कवि हबीब जालिब और तमाम अन्य प्रगतिशील और जनवादी रचनाकार लगातार जेल-यातना भोग रहे हैं। जिया की तानाशाही के विरूध्द मौन जन-आक्रोश कभी भी विस्फोटक मोड़ ले सकता है।

      आम जनता की पीड़ा को अपनी कविताओं में पिरोकर जनता तक पहुँचाने और संस्कृति को, कठमुल्लों की विरासत न मान कर, जनता की लड़ाई से जोड़ने वाले हबीब जालिब जैसे तमाम क्रांतिकारी रचनाकार जिया के शासन में जेल के बाहर की हवा के लिए तरस गए। यातना और दमन-चक्र की कोई भी बर्बरता इन क्रांतिकारियोंम को पथ से विचलित करने में असफल रही। 17 बार जेल यात्रा करने वाले हबीब जालिब की कविताएं देश के हर कोने में छात्रों और नौजवानों के लिए प्ररेणा स्रोत बन गई हैं। हर तानाशाह की तरहर जिया भी भूल जाते हैं कि रचनाकार को तो कैद किया जा सकता है, पल जनमानस पर उसकी रचनाओं के प्रभाव को नहीं रोका जा सकता। एन. डी. पी. के महीसचिव अब्दुल खालिक का मानना है कि सैनिक शासन के अत्याचारों और अमेरिकी साम्राज्यवादी शोषण के विरूध्द देश-व्यापी जनाक्रोश तथा जरमराती अर्थव्यवस्था ने सशस्त्र संघर्ष के लिए आधार तैयार कर दिया है। जिया की कोई भी शगूफेबाजी जनवादी चेतना के नौजवानों को सशस्त्र-क्रांति का रास्ता अख्तियार करने से बहुत दिनों तक नहीं रोक सकती। मार्शल लॉ हटने से भी इन परिस्थितियों में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है।

      टेलिविजन और रेडियो पर अपने 40 मिनट के प्रसारणके सैनिक शासन हटाने की घोषणा करने के पहले जिया ने राष्ट्रीय असेम्बली और सेनेट को संयुक्त बैठक में बयान दिया कि वे देश में दल-विहीन राजनीतिक व्यवस्था के जरिए इस्लामी जनतंत्र को मजबूत करने के पक्ष में हैं। राजनीतिक दलों पर 1979 में लगाया गया प्रतिबंध जारी रहेगा। अपने प्रसारण में नागरिक अधिकारों, तथा प्रेस और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के प्रश्न पर जिया चुप्पी साधे रहे। जिया ने पूरे प्रसारण का, तमाम तर्को-कुतर्कों के माध्यम से, अधिकांश समय मार्शल लॉ लगाने का ऐतिहासिक – औचित्य समझाने में लगा दिया। प्रतिबंधित राजनीतिक दलों ने 1981 की फरवरी में जनतंत्र बहाली आंदोलन’ (एम. आर. डी.) नास से एक मोर्चा बनाया। मार्शल लॉ को दौरान छात्र-संघों पर लगाया गया प्रतिबंध जारी रहेगा। सैनिक अदालतों द्वारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ दिए गए फैसले भी कायम रहेगे। अपने फ्रसारण में जिया ने जनतंत्र  बहाली आंदोलन से जुड़ी पार्टियों को आंदोलनात्मक रवैया अपनाने पर भंयकर परिणामों को चेतावनी देते हुए 1990 में होने वाले ‘जनमतर संग्रह’ मार्का चुनाव तक इंतजार करने को ‘नेक मशविरा’ दिया। उल्लेखनीय है, दिसम्बर 1984 में जिया के ‘इस्लामिक जनतंत्र तके लरिए कराए गए जनमत – संग्रह क् विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया था। सरकारी तंत्र के खुले दुरूपयोग तथा तमाम दबाव और प्रलोभन के बावजूद सिर्फ 16 फीसदी लोगों को छोड़कर देश को पूरी आबादी ने ‘चित भी मेरी, पटी भी मेरी वाले ‘जनमत-सग्रह’ का बहिष्कार किया था। अपने प्रसारण में जिया ने स्वीकार किया कि “आज लॉ उठा लेने को बाद जिस जनतंत्र की शरुआत होगी, वह आज तकर के जनतंत्र (यानी मार्शल लॉ) से भिन्न न हो कर उसी का एक अंश है”। 1973 के संविधान के तहत सेनाध्यक्ष के कार्य-काल की अवधि 3 साल थी पर संविधान में संशोधन करके ऐसा प्रवाधान कर दिया गया कि जिया चाहे तो जीवन-पर्यत सेनाध्यक्ष के पद पर बनें रहे। ऐसी स्थिति में इतने दिनों की शगूफेबाजी के बाद सैनिक-शासन खत्म करने की घोषणा, पाकिस्तान की जनता के साथ एक घटिया-सा मजाक लगती है।

      1979 के अध्यादेश द्वारा गैर-कानूनी करार दिये गये राजनीतिक दलों को नए सिरे से पंजीकरण कराना होगा। पंजीकरण की शर्तों में ‘पाकिस्तान की इस्लामी विचारधारा’ के प्रति निष्ठा भी शामिल है। जनतंत्र – बहाली आंदोलन के एक प्रवक्ता के अनुसार, “आठ साल के मार्शल लॉ ने राजनीतिक जड़ता का जो वातावरण तेयार किया है, उस पर मार्शल लॉ हटाने की औपचारिक घोषणा का कोई असर नहीं पड़ा”। जनतंत्र – बहाली आंदोलन के नेता नवावजादा नसरूल्ला खान ने एक बयान में कहा, “जिया सैनिक-शासन के प्रतीक बन गए है”। उनके अनुसार, ‘जनतंत्र बहाली आंदोलन’ 1973 के संविधान की बहाली के लिए प्रतिबध्द है। भारत सरकार ने जिया की घोषणा को पाकिस्तान का आंतरिक मामला बताकर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया। सोवियत संघ ने जिया की घोषणा को “छद्म लोकतांत्रिक आवरण में जनविरोधी फौजी हुकूमत द्वारा अपने ही देश की शांति और सुरक्षा के खिलाफ किए गए अपरोधों को छिपाने की कोशिश” बताया है।

      सैनिक दमन की हर क्रूरता के बावजूद आए दिन, हजारों का हुजूम, दमन और शोषण के विरूध्द आक्रोश का प्रदर्शन करने सड़कों पर निकल आता है। इस्लामीकरण की नारेबाजी और विदेशी आक्रमण का हौवा, जनवादी चेतना का प्रसार रोक पाने में असफल रही है। अपनी सत्ता बचाने के लिए ‘अंदरूनी और बाहरी खतरों का हौवा खड़ा करने की नीति का मजाक उड़ाते हुए हबीब जालिब ने लिखा था—

      न मेरा घर है खतरे में,

      न तेरा घर है खतरे में

      वतन को कुछ नहीं खतरा,

      निजामेजर है खतरे में।

राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि, जिया को जनविरोधी नीतियों से उत्पन्न जनाक्रोश का ज्वालामुखी विस्फोटक स्थिति में पहुँच चुका है और जिया की ‘जनतंत्र बहाली’ की घोषणा का नाटक इस ज्वालामुखी को ठंडा करने का एक और प्रयास भर हैं।

1086

जूलियस न्येरेरे

यह लेख मार्च प्रथम पखवारा, 1986 का युवकधारा में मेर कॉलम विश्व परिक्रमा है। 


जूलियस न्येरेरे और तंजानिया की राजनीति
  


ईश मिश्र


तंजानिया की क्रांतिकारी पार्टी के अध्यक्ष जूलियस न्येरेरे की राष्ट्रपति पद के स्वेच्छा से अवकाश लेने की घोषणा आकस्मिक ने होने के बावजूद आश्चर्यजनक है। 25 वर्षों तक शासनाध्यक्ष रहते हुए न्येरेरे को राजनैतिक सक्रियता और लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। देश को समता और स्वावलम्बन के रास्ते पर ले जाने की प्रतिबध्दता तथा अफ्रिकी व अन्य तीसरी दुनिया के देशों की समस्याओं के प्रति उनका सरोकार न्येरेरे की अदभुत लोकप्रियता के मुख्य कारणों में से हैं। न्येरेरे जैसे विरले ही, ऐसी अनुकूल परिस्थितियों में सत्ता से अलग होने का फैसला ले सकते हैं जबकि उन्हैं अपने देश की जनता का पूर्ण विश्वास प्राप्त हो। न्येरेरे ने पद से अवकाश ग्रहण करने का फैसला किया है, राजनीति से संन्यास लेने का नहीं। वे अपनी क्रांतिकारी पार्टी ‘चामा ज मपिदुजी’ के अध्यक्ष के रूप में देश की राजनीति को दिशा प्रदान करते रहेगें। श्री न्येरेरे उस सही मायनों में जनता की समस्याओं से जोड़कर जनवादी पार्टी बनाना चाहते हैं। राष्ट्रपति पद छोड़ देने से न्येरेरे का देश और महाव्दीप के प्रति राजनैतिक दायित्व खत्म नहीं होगा। उपनिवेशवाद के विरूध्द  आजादी की लड़ाई में नेतृत्व संभालने वाले न्येरेरे शोषितों और पीडितों के संघर्ष के कभी अलग नहीं हो सकते।

      उत्तरी तंजानिया के बूटीनामा गाँव में, 1922 में पैदा हुए जूलियस कामबारेज न्येरेरे ने शिक्षा पूरी करने के बाद अध्यापन का काम शुरू किया। जब देश औपनिवेशिक शोषण के दौर से गुजर रहा हो तो न्येरेरे जैसे व्यक्ति का उपनिवेशवाद के शिकंजे से मुक्ति के लिए राजनैतिक आंदोलन से जुड़ना स्वाभाविक ही था। 1935 में वह ‘तंजनिया अफ्रीकी युनियन’ नामक राजनैतिक संगठन खड़ा किया जो आगे चलकर तंजानिया के राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्वकारी दल में परिणित हो गया। अंग्रेजी उपनिवेशवाद के विरूध्द आजादी की लड़ाई में न्येरेरे के इस संगठन की भूमिका की तुलना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भूमिका से की जा सकती है। राष्ट्रीय आंदोलन के नेता की हैसियत से न्येरेरे ने 1957 में, तंजानिया की आजादी का मसला, संयुक्त राष्ट्रसंघ में उठाया। 1961 में अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मुक्ति के बाद न्येरेरे स्वतंत्र तंजानिया के पहले प्रधानमंत्री बने। इसके बाद वह देश के नेता के रूप में तंजानिया को आत्मनिर्भर बनाने और समाजवादी समाज की स्थापना करने के लिए निरंतर नये प्रयोग करते रहे। उन्होंने अफ्रीकी सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुकुल समाजवाद की व्याख्या की। व्यक्तिगत जीवन में सादगी और आम आदमी की तरहर जीवन यापन का जो उदाहरण न्येरेरे ने प्रस्तुत किया है, वह आज के संदर्भ में अतुलनीय है।

      सैनिक विद्रोहों द्वारा सत्ता-पलट के लिए कुख्यात अफ्रीका महाव्दीप में न्येरेरे से पहले दो अन्य निर्वाचित नेता स्वेच्छा से सत्ता से अवकाश ग्रहण कर चुके हैं। जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार विजेता, सेनेगल के राष्ट्रपति लियोपोल्ड सेडार सेंगोर ने 1981 में राष्ट्रपति पद से अवकाश ग्रहण करने के साथ ही राजनीति से भी संन्यास ले लिया था। सेंगोर मूलतः एक कवि हैं और अब जनसाधारण की तरह जीवन यापन कर रहे हैं । सेंगोर के बाद कैमरून के राष्ट्रपति अहिद्जपे ने 1982 में स्वेच्छा पदत्याग किया था। वह अपने उत्तराधिकारी के खिलाफ सत्ता-पलट की साजिश के आरोप में फ्रांस में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। न्येरेरे का पद से अवकाश लेना इन दोनों राष्ट्राध्यक्षी से भिन्न इसलिए हैं कि उन्होंने राजनीति छोड़ने के लिए नहीं, बल्कि राजनीति को ज्यादा प्रभावशाली बनाने और जनजीवन से जोड़ेने के लिए पद छोड़ने की घोषणा की है। ख्याति एंव लोकप्रियता की चरम ऊँचाईयों पर पहुँच कर सत्ता से अलग होना और पार्टी के लिए कास करने का निर्णय उनके व्यक्तिवाद के विरोध और विचारधारा एंव सामुहिक नेतृत्व की प्रधानता के सिध्दांत की पुष्टि करता है। कथनी और करनी में सामंजस्य आज के राजनैतिक संदर्भ में महत्वपूर्ण बात है।

      आजादी के बाद तंजानिया की विशिष्ट सामाजिक एंव सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुकूल समाजवाद की व्याख्या, किसी सैध्दांतिक मांडल की अनुपस्थिति में, एक दुरूह काम था। लीक पर न चलकर विश्व के मौजूदा राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में अफ्रीका की विशिष्ट परिस्थितियों को समझने और तदनुरूप सिध्दातों का प्रतिपादन करने में जिस विवेक का परिचय न्येरेरे ने दिया है उससे उनकी राजनीति के मौलिक चिंतक और दार्शनिक की छवि स्थापित होती है।

      आलोचना और आत्मलोचना में विश्वास रखने वाले न्येरेरे, अनुभव के आधार पर सिध्दातों और विचारों में परिवर्तन और तदनुरूप राजनीति और कार्यनीति का निर्धारण करते रहे। अफ्रीकी अतीत की रूमानी समझ पर आधारित ‘उजामा’ में 1962 में प्रतिपादित समाजबाद पर, अपने विचारों का पुनर्मुल्यांकन करके 1967 में ‘अरूशा-घोषणा’ का प्रतिपादन किया। 1967 में ‘अरूशा-घोषणा में उन्होंने अपने ‘उजामा’ के विचारों को संशोधित किया और समाजवाद के व्यावहारिक पहलुओं पर ज्यादा जोर दिया। उन्होंने कहा, “समाजवाद की स्थापना, सरकार के फैसलों या संसद में पारित प्रस्तावों से नहीं होती।  राष्ट्रीयकरण या बड़ी-बड़ी कागजी कार्यवाईयों से ही कोई देश सामाजवादी नहीं हो जाता। समाजवादी समाज की स्थापना एक जटिल तथा ज्यादा समय लेने वाली प्रक्रिया है। “समाजवादी उद्देश्यों को कार्यन्वित करने के लिए उन्होंने नए तरह के नेतृत्व पर जोर दिया। पार्टी के संविधान में ऐसे प्रावधान रखे गए जिससे पार्टी के नेता नए ‘सुविधाभोगी’ वर्ग के रूप में न उभर सके। पार्टी के नेताओं द्वारा व्यक्तिगत सम्पत्ति जमा करने पर प्रतिबंध लगाने के लिँ नियम बनाए गए। इन नियमों का पालन न्येरेरे ने स्वंय अपने व्यक्तिगत जीवन में कड़ाई से किया। जिसका नतीजा है कि आज सत्ता से अलग होते समय न्येरेरे के पास अपने गाँव के पुराने घर के अलावा कोई भी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है। अपने खर्चों के लिए लोगों द्वारा दिए गए उपहारों को रखने की जगह भी नहीं है उनके पास।

      ‘अरूशा घोषणा’ के वर्षों बाद न्येरेरे ने महसूस किया कि नेतृत्व के लिए नियम मात्र, नेतृत्व को लाल फीताशाही और लोगों की जरूरत के प्रति अनुतरदायी होने से नहीं बचा सकते। उन्होंने स्वीकार किया कि तंजानिया अभी भी समाजवादी लक्ष्यों से काफी दूर है, क्योकि “हम बिना समाजवादीयों के समाजवाद की स्थापना करना चाहता है”।

      अपनी अवधारणाओं के प्रतिपादन में न्येरेरे ने लोगों के रोजमर्रा जीवन की विषम वास्तविकताओं को हमेशा ध्यान में रखा। इसके लिए उन्होंने देश को, सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया। देश की प्रगति के लिए उन्हीं विदेशी सहायताओं को स्वीकार किया जो देश को आत्मनिर्भर बनाने में सहायक हों। चीन द्वारा तंजानिया में रेल लाईनों के निमार्ण की सहायता का उन्होंने स्वागत किया।

      शिक्षा पर न्येरेरे की अवधारणा औपनिवेशिक शिकंजे से मुक्त हुए सभी देशों के लिए महत्वपूर्ण है। “आत्मनिर्भरता के लिए शिक्षा” की बात करते हुए उन्होंने औपनिवेशिक शिक्षा पध्दतिकी कड़ी आलोचना की और औपनिवेशिक शिक्षा पध्दति को, भ्रामक मूल्य, नकलची संस्कृति और परजीवी वर्ग पैदा करने वाली बताकर खारिज कर दिया। शिक्षा को समाज की मौजूदा जरूरतों जोड़ने पर जार देते हुए उन्होंने कहा, आज की विशिष्ट परिस्थितियों में विधार्थियों को ऐसी शिक्षी देनी चाहिए जिससे वे “देश के ग्रामीण इलाकों की बेहतरी के लिए कास कर सकें”।

      न्येरेरे द्वारा मनोनीत जंजीबार दीप की क्रांतिकारी परिषद के अध्यक्ष और तंजानिया गणराज्य के उपराष्ट्रपति ग्बिभ्यी करो न्येरेरे के उत्तराधिकारी के रूप में चुनकर तंजानिया की जनता ने दरअसल न्येरेरे के नेतृत्व में ही विश्वास व्यक्त किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्येरेरे पार्टी के प्रमुख प्रवक्ता और दार्शनिक के रूप में तंजानिया तथा तीसरी दुनिया के देशों की बेहतरी के लिए पहले की भांति आगे भी सक्रिय रहेंगे।

      चंदगाँव क्षेत्र में आदिवासी छापामार विद्रोहियों को भारत द्वारा सहायता एंव शह देने की बात भी इन दिनों दबी जुबान से की जा रही है, जबकि बंग्ला देश के ये विद्रोही भारत और वर्मा की सीमा से लगे 5020 वर्ग कि. मी. के क्षेत्र को आर्थिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता देने की माँग 1972 से ही कर रहे हैं। इसके इस पहाड़ी क्षेत्र की आवादी में ज्यादातर बौध्द हैं। इसके अलावा भी ढाका तथा अन्य जगहों पर सैनिक शासन के खिलाफ तमांम शक्तिशाली आंन्दोलन चल रहे हैं तथा एरशाद की सैनिक सरकार उनके दमन में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। ढाका विश्वविधालय के छात्रों के आंदोलन को कुचलने में जिस दमनकारी रवैये का परिचय दिया गया है। वह सर्वविदित है। पाकिस्तान के जनरल जियाउलहक की तरह बंग्ला देश के जनरल मोहम्मद एरशाद भी चुनाव का नाटक करके चुनावी राजनीति का मखौल उड़ाते रहे हैं। इन अंदरूनी समस्याओं को नजर अंदाज करने के लिए बाहरी समस्याओँ एंव खतरों को दुहाई देना जरूरी-सा हो गया है एरशाद के लिए। गंगा के पानी के बंटवारे की समस्या जो इतने से लटकी हुई है, सैनिक सरकार की इसी नीति का प्रतिफल लगती है।

      नसाऊ में राष्ट्रमंड़ल देशों की बैठक के समय राजीव और एरशाद में जलविवाद को लेकर काफी “सकारात्मक” बातचीत हुई है। इस बातचीत से विवाद सुलझाने की दिशा में बैठको का एक सिलसिला शुरू होगा जो एक साल बाद शिखर-वार्ता द्वारा समझौते को कार्यान्वित करने की रूपरेखा तैयार करेगा। दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने भी फरक्का बांध और गंगा के पानी के आपसी बंटवारे को लेकर वैकल्पिक- ढांचा तैयार करने पर बातचीत की। अभी तो 1982 के समझौते को ही और तीन साल तक बढ़ाने की बात हो पाई है।

      उस समस्या के किसी स्थाई हल के आसार फिलहाल तो नजर नहीं आते। आंतरिक अस्थिरता के रहले एरशाद की सैनिक सरकार लगता नहीं कि बाह्य समस्याओं का कोई शांतिपूर्ण हल चाहती है। किसी भी तानाशाह सरकार के लिए बाहरी “खतरों” को बनाए रखना जरूरी सा हो गया है।

अंदरूनी समस्याओं से प्रभावित बंग्ला देश की विदेश नीति

1977 में अस्तित्व में आया बंग्ला देश अपने 14 साल के इतिहास में कई सत्ता-पलट और अन्य आंतरिक राजनीतिक उहापोह के दौर से गुजर चुका है। देश की आंतरिक समस्याओं ने विदेश नीति पर भी अपनी छाप छोड़ी है। संघर्ष की जिन विशिष्ट परिस्थितियों में बंग्ला देश का उदय एक स्वंतंत्र राष्ट्र  के रूप में हुआ, देश के मित्र और शत्रु राष्ट्रों का निर्धारण भी उन्हीं परिस्थितियों ने किया। कहने को तो बंग्ला देश का उदय पाकिस्तान की सैनिक तानाशाही के खिलाफ मुक्तिवाहिनी के सशस्त्र संघर्ष से हुआ लेकिन सभी को मालूम है कि भारत की सैनिक सहायता एंव सीधे हस्तक्षेप ने इसमें निर्णायक भूमिका अदा की। विश्व-राज नीति के स्तर पर सोवियत संघ की राजनयिक सहायता ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कि। कहना ने होगा कि अमेरिका को सातवाँ बेड़ा सोवियत संघ के सीधे हस्तक्षेप के डर से ही पाकिस्तान की सहायता में नहीं आ सका। भारत और सोवियत संघ बंग्ला देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ बनाने में हर संभव प्रयास करने लगे। आशा की जाने लगी थी कि बंग्ला देश एक मित्र पड़ोसी देश के रूप में बना रहेगा। लेकिन 1975 की सत्ता-पलट और शेख मुजीबुर्रहमान तथा उनके परिवार जनों की हत्या ने बंग्ला देश विदेश नीति को इस बुरी तरह प्रभावित किया कि मुजीब सरकार के समर्थक और मित्र राष्टों को शत्रु-राष्टों की श्रेणी में रख दिया गया। भारत-बंग्ला देश सीमा विवाद तथा गंगा के पानी के बंटवारे की समस्या इस सत्ता-पलट के बाद ही शुरू हुई।

 

यूरोप

      इटलीः जाना और वापस आना क्रेक्सी सरकार का

इटली की राजनीति भी अजीब है साझा सरकारों की जो मिसाल इटली के राजनीतिक इतिहास में मिलती है, वह अतुलनीय है। दूसरे विश्वयुध्द के बाद से अब तक इटली की कोई भी सरकार तीन साल से ज्यादा सत्ता में नहीं रही। ‘एंकिल लारा’ जहाज के अपहरण, फिलीस्तीनी सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने का श्रेय प्राप्त होता। लेकिन अमेरिका की नाराजगी से बचने के लरिए स्पेडोलीनी की रिपब्लिकन पार्टी ने अपना समर्थन वापस लेकर क्रेक्सी को यह श्रेय नहीं प्राप्त करने दिया। अब फिर स्पेडोलीनी ने क्रक्सी की समाजवादी पार्टी को समर्थन देने का फैसला लिया है और इंतालवी राजनीति में क्रेक्सी की वापसी हो रही है। प्रकारांतर से ‘एंकिल लारा’ प्रकरण से क्रेक्सी के प्रभाव व प्रतिष्ठा में वृध्दि ही हुई है।

उल्लेखनीय है, फिलिस्तीनी छापामारों ने इटली के एकिल लारा जहाज का अपहरण करके दो अमेरिकी नागरिकों की हत्या कर दी थी। अपहर्ताओं के समर्पण के बाद अमेरिका और प. यूरोपीय देशों के दवाव के बावजूद क्रेक्सी सरकार ने फिलिस्तीनी अपहर्ताओं को रिहा कर दिया। रोगन प्रकाशन को क्रेक्सी सरकार को यह कदम काफी नागवार लगा। उधर फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पी. एप. ओ.) ने भी एकिल लारा के अपहरण और अमेरिका नागरिकों की हत्या की जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया। ऐसी परिस्थिति में क्रेक्सी सरकार ने अमेरिकी नाराजगी की बगैर परवाद किये, फिलीस्तीनी अपहर्ताओं को रिहा करके बेशक हिम्मत दिखाई। लेकिन क्रेक्सी सरकार के इसी निर्यण को मुद्दा बनाकर इटली की दक्षिणपंथी रिपब्लिकन पार्टी ने क्रेक्सी सरकार से अपना समर्थन वापस लेने को फैसला ले लिया और क्रेक्सी सरकार का पतन हुआ। लेकिन स्पेडोली का उपर्युक्त फैसला महज एक क्षणिक प्रतिक्रिया भर साबित हुआ क्योंकि आखिरकार स्पेडोलीनी और उनके दल को भी तो एक जमीन चाहिए। क्रेक्सी को दोबारा वापसी से इस बात के संकेत भी मिलते हैं कि इटली की जनता, फिलिस्तीनियों के खिलाफ अमेरिका द्वारा इजराइल को मिलने वाली मदद को पसंद नहीं करती।

इटली को साझा सरकार में क्रेक्सी की समाजवादी पार्टी दूसरे स्थान पर है। समाजवादी पार्टी की तुलना में, वहां को संसद में क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्य ज्यादा है। फिर भी दक्षिणपंथी खतरे की परवाह किऐ बिना क्रेक्सी द्वारा, एकिल लारा काण्ड के फिलिस्तीनी छापामार-नेता अब्बासी की रिहाई का फैसला उनके साम्राज्यवाद विरोधी सरोकारों पर एक और मुहर लगाता है।

ईश मिश्र

1986

बेतरतीब 117 (इग्नू)

 किसी ने इनबॉक्स में किसी का सवाल शेयर किया कि मोदीजी कि डिग्री अगर सही है तो उनके साथ पढ़ा कोई-न-कोई व्यक्ति सामने आया होता। उस पर 

बीए तो स्कूल ऑफ करेस्पांडेस कोर्सेज (अब स्कूल ऑफ ओपेव लर्निंग) से "किया था, उसकी वीकेंड्स में क्लासेज तो होते हैं लेकिन बहुत लोग कभी अटेंड नहीं करते। अटेंडेस आवश्यक नहीं होती। छपे हुए अध्याय मिल जाते हैं, जो कि काफी लाभप्रद पाठ्य सामग्री होते है। अध्याय के संबधित शैक्षणिक क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोगों से लिखवाया जाता है।  इग्नू के लेसन ( इग्नू की शब्दाली नू की शब्दालवी में यूनिट)  भी बहुत लाभप्रद होते हैं। हर यूनिट संबधित क्षेत्र के विशेषज्ञों से लिखवाई जाती है तथा उसकी वेटिंग होतीहैफिर मॉडरेसन)। दिवि समेत दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्र भी इग्नू रीजजनल सेंटर्स से खरीद कर पढ़ते हैं। (अरे यह तो इग्नू का विज्ञापन सा हो गया) जब मैं तलाशेमाश में इवि समेत देश भर घूम घूम  कर इंटरवि दे रहा था। कई जगह पैनल में नाम होता, लेकिन पद-संख्या के अगले नंबर पर  (नेक्स्ट)। ऐसे में इग्नू से मुझे नौकरी का ऑफर मिला। कृतघ्नता में साल भर में ही दिवि में एक टेंपरेरी नौकरी के लिए छोड़ दिया। बाकी कहानी फिर

Sunday, November 21, 2021

किसान आंदोलन

 कौन कह रहा है कि पूर्वी उप्र बिहार के किसान किसान आंदोलन के समर्थक नहीं हैं? देश भर के किसानों की ही तरह यहा के किसानों ने दिल्ली सीमा पर चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन में सभाएं की। बिहार में किसानों ने कई किमी लंबी मानव श्रृखला बनाया था। गोंडा, बलरामपुर, बलिया और सुल्तानपुर में किसान महापंचायतें हुईं। देश भर से किसान संगठनों के नेताओं ने दिल्ली सीमा पर किसान धरनों में शिरकत की। लखीमपुर में कई आंदोलनकारी किसानों को केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्र 'टेनी' के बेटे की गाडियों के काफिले से कुचलकर मार कर शहीद कर दिया गया। काले कृषि कानूनों के खात्में की घोषणा से किसान आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ है, किसान अजय मिश्र की बर्खास्तगी, एमएसपी की गारंटी और बिजली बिल बढ़ोत्तरी के कानून की वापसी तथा शहीद किसानों के परिजनों के मुआवजे की मांगों के साथ अभी डटे हुए हैं।

कृषि के कॉरपोरेटीकरण के मकसद से साम्राज्यवादी पूंजी के निर्देश पर बने कृषि कानूनों के विरुद्ध किसान आंदोलित थे, सरकार कानून वापस न लेने पर अड़ी हुुई थी, मृदंग मीडिया और भक्त आंदोलन को बदनाम करने के लिए दुष्प्रचार अभियान चलाए हुए थे। 700 आंदोलनकारियों ने शहादत दी। उप्र चुनाव सिर पर है। आंदोलनकारी न थके, न ही झुकने या हार मानने को तैयार हैं न हार मानने को। अंततः जनता के दबाव में सरकार को झुकना और माफी मानना पड़ा । 700 शहीद आंदेोलनकारियों के परिजनों से कौन माफी मांगेगा। उम्मीद है सरकार एमएसपी की गारंटी और बिजली बिल संशोधन कानून की वापसीका मांग भी मान लेगी। औतिहासिक किसान आंदेोलन जिंदाबाद।

लल्ला पुराण 315 (रशीद-गोडसे)

 अब्दुल रशीद (स्वामी श्रद्धानंद का हत्यारा) आधुनिक भारत का पहला आतंकवादी था और गोडसे (महात्मा गांधी का हत्यारा) आजाद भारत का पहला। मैं गांधीवादी नहीं हूं लेकिन गांधी कीइस बात से अंशतः सहमत हूं कि इस तरह के आतंकवाद के जिम्मेदार जितने इसे अंजाम देने वाले (रशीद या गोडसे) हैं, उतने ही जिम्मेदार सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले हैं। बल्कि असली जिम्मेदार फिरकापरस्त नफरत फैलान् वाले हैं, क्योंकि न तो रशीद की स्वामी श्रद्धानंद से निजी दुश्मनी थी न ही गोडसे की गांधी से । सांप्रदायिक दंगों में हत्या-बलात्कार को अंजाम देने वाले, या मॉबलिंचिंग करने वाले उतने जिम्मेदार नहीं हैं जितनी सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाली विचारधाराएं और नेता।

ऋगवेद

 ऋगवेद में वर्णित दशराज्ञयुद्ध के भागीदार (ऋगवैदिक आर्य) प्राकृतिक शक्तियों के उपासक थे और सप्तसिंधु --7 नदियों के क्षेत्र (सिंधु, सरस्वती और पंजाब की पांच नदियां) में कबीलों (कुटुंबों) में रहते थे दिबोदास का बेटा सुदास भरत कुटुंब का नेता (राजा) था। दिबोदास के मुख्य पुरोहित विश्वामित्र थे, सुदास ने उनकी जगह वशिष्ठ को अपना मुख्य पुरोहित बना लिया। विश्वामित्र क्रुद्ध होकर उनके विरुद्ध 10 कुटुंबों कीलामबंदी की युद्ध में सुदास की विजय हुई और युद्धोपरांत शांतिवार्ता के परिणामस्वरूप वशिष्ठ के साथ विश्वामित्र भी भरत कुटुंब के पुरोहित बने रहे। ( सातवां मंडल, सूक्त 18, 33 और 83)

Friday, November 19, 2021

बेतरतीब 116 (बचपन)

 बचपन में खेत में मजदूरों को नाश्ता (खमिटाव) लेकर जाता था तो खाने के साथ सर्बत या मट्ठे का बर्तन उन्हें पकड़ाकर खुद हल जोतने लगता। 2-2 सामाजिक मान्यताएं (रूढ़ियां) टूटतीं। दलित जाति क मजदूर बर्तन छू देते और ब्राह्मण बालक हल जोतता। उस समय तक वर्णाश्रमी व्यवस्था का वेद-हल द्वैध ( Veda-Plough dichotomy) लगभग पूरी तरह प्रचलन में था। मजदूर दोनो बातों की बाबा से शिकायत करने की धमकी देते थे। वे मुझसे इतना प्यार करते थे कि मैं उनकी धमकियों को गंभीरता से नहीं लेता था।

शिक्षा और ज्ञान 337 (जातिवाद)

 अवधी और भोजपुरी में पारस्परिकता पर चल रहे विमर्श में एक मित्र ने कहा, "अवधी को विस्तार में देखें अवधी में भी अवधी है जैसे या अल्ला पाड़ो में पाड़े कोस कोस पर बदले पानी चार कोस पर वदले वानी।"


बचपन में एक कहावत सुनते थे कि एक पंडितजी के घर एक मुसलमान दोस्त आया था। पंडित जी को एक ब्रह्मभोज में जाना था। वे अपने दोस्त को साथ ले गए और उससे कहा कि कोई पूछे तो वह कह दे कि वह पांडेय है। वह पांत में बैठकर भोजन कर रहा था कि उसके पास खाना परसने वाला कोई रुका, उसे लगा वह जाति पूछेगा। उसने उसके कुछ पूछे बिना बता दिया कि वह पांडे है। परसने वाले ने पूछा कि वह कौन सा पांडे है? उसे कोई जवाब नहीं सूझा और उसके मुंह से निकला, "हाय अल्ला पांडौ में पांड़ा" मित्र के कमेंट पर मेरा कमेंट:

ये कहानी आपके यहां भी मशहूर है? हाय अल्ला, पांडौ में पांडा! लगता है पूंजीवाद ने श्रेणीबद्धता ओऔर उपश्रेणीबद्धता में जाति-व्यवस्था से काफी कुछ सीखा है। सबसे नीचे वाले को छोड़कर सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है। मेरी पत्नी कहा करती थीं कि वे लोग हमसे बड़े ब्राह्मण हैं, मैं कहता था कि मैं तो ब्राह्मण ही नहीं रहा। हमारे बहुत बचपन में हमारी एक बुआ की शादी एक उपाध्याय (उपधिया) परिवार में हुई तो लोग बाबा का नाम लेकर पीठ पीछे कहते थे कि 'एतनी कौन मजबूरी रही कि बिटिया उपधिया के इहां बिआहि देहेन?'

बचपन में खेत में मजदूरों को नाश्ता (खमिटाव) लेकर जाता था तो खाने के साथ सर्बत या मट्ठे का बर्तन उन्हें पकड़ाकर खुद हल जोतने लगता। 2-2 सामाजिक मान्यताएं (रूढ़ियां) टूटतीं। दलित जाति क मजदूर बर्तन छू देते और ब्राह्मण बालक हल जोतता। उस समय तक वर्णाश्रमी व्यवस्था का वेद-हल द्वैध ( Veda-Plough dichotomy) लगभग पूरी तरह प्रचलन में था। मजदूर दोनो बातों की बाबा से शिकायत करने की धमकी देते थे। वे मुझसे इतना प्यार करते थे कि मैं उनकी धमकियों को गंभीरता से नहीं लेता था।

Sunday, November 14, 2021

बेतरतीब 114 (इलाहाबाद की साइकिल यात्रा)

 मैं एक बार अपने गांव (सुलेमापुर, आजमगढ़ ) से इलाहाबाद साइकिल से गया था। उसी साल (1972) इलाहाबादविवि में प्रवेश लिया था। शहर में आने-जाने के लिए घर से साइकिल लेकर आना था। बाढ़ और बर्षात से जगह जगह सड़कटूटी होने के चलते बस सेवा बाधित थी। घर से पवई पैदल आते थे वहां से शाहगंज ( घर से कुल12 मील) की यात्रा वैसे तो इक्के की थी लेकिन जब साइकिल हो तो इक्के की सवारी क्यों की जाए। रास्ते में सड़कें टूटी होने से शाहगंज से जौनपुर की बस सेवा उस दिन बंद थी। वहां से जौनपुर साइकिल से आ गए। वहां से बस पर साइकिल लाद कर मछलीशहर पहुंचे । सई नदी पर पुल टूटा था, नाव से सई पार कर मछली शहर पहुंचे तो शाम हो गयी थी। रात एक दूर के रिश्तेदार के यहां बिताया। अगले दिन बस न मिलने पर साइकिल से फूलपुर तक आ गए वहां से 3 घंटा बाद बस मिलती सो साइकिल से ही चल पड़े और शाम तक इलाहाबाद पहुंच गए।

Wednesday, November 10, 2021

शिक्षाऔर ज्ञान 336 (नवब्राह्मणवाद)

 जब भी जन्म आधारित भेदभाव पर कुछ लिखता हूं तो ब्राह्मणवादी और नवब्राह्मणवादी दोनों तरह के जातिवादी मेरे नाम के 'मिश्र' पुछल्ले के पीछे पड़ जाते हैं। जैसे कि मिश्राओं को जातिवाद से ऊपर उठकर वैज्ञानिक सोच विकसित करने और विवेकशील इंसान बनने का अधिकार ही न हो!

एक मित्र ने मेरी एक पोस्ट शेयर किया जिसमें लिखा था कि जिनके पास गर्व करने की अपनी कोई उपलब्धि न हो वह अपने जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता पर ही गर्व कर सकता है। इस पर एक नवब्राह्मणवादी ने उनपर एक 'मिश्र' की चाल में फंसने का आरोप लगाया। जाति के विनाश की अंबेडकर की शिक्षा पढ़ने की मेरी सलाह पर उन्होंने कहा कि उनकी बजाय मुझे अपनी जाति वालों को अंबेडकर पढ़ाना चाहिए। दोनों कमेंट एक साथ पोस्ट कर रहा हूं।

जन्म केआधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है, ऐसा करने वाले अब्राह्मण का नवब्राह्मणवाद ब्राह्मणवाद का पूरक होता है और इंसानियत के लिए उतना ही खतरनाक। बाभन से इंसान बनना तो जरूरी होता ही है लेकिन अहिर या कुर्मी से इंसान बनना भी जरूरी होता है। बाभन से इंसान बनना जन्म की जीवनवैज्ञानिकदुर्घटना से मिली अस्मिता से ऊपर उठकर विवेकसम्मत अस्मिता के निर्माण का मुहावरा है। जाति के विनाश के बिना क्रांति नहीं हो सकती औरक्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं। अंबेडकर की किताब का शीर्षक जाति का विनाश है, प्रतिस्पर्धी जातिवाद नहीं। ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद दोनों ही समतामूलक बदलाव के लिए अनिवार्य सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के रास्ते के विशालकाय गतिरोधक हैं।

इस पर ( नाम से मिश्र न हटाने पर) मैं पिछले 50 सालों से हर किस्म के ब्राह्मणवादियों और नवब्राह्मणवादियों के जहालती सवालों के के जवाब में बहुत लिख चुका हूं। विचारों की बजाय जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद का साझा मूल मंत्र है। मैं तो नास्तिक हूं। मेरा तो न कोई धर्म है न जाति लेकिन आप जैसे नवब्राह्मणवादी बहुजन हित के लिए उतने ही खतरनाक हैं जितने सर्वहारा हित के लिए लंपट सर्वहारा। अस्मिता राजनीति की एक सीमा होती है, उससे आगे वह मायावती की तरह सत्ता के लिए आरएसएस की गोद में बैठकर मोदी के साथ गुजरात में जनसंहार की हिमायत करती है और परशुराम की मूर्ति लगवाने में अखिलेश से प्रतिस्पर्धा या नीतीश की तरह अमितशाह की चरणवंदना या मुलायम की तरह प्रकारांतर से मोदी की मिलीभगत से मुजफ्फरनगर का आयोजन। कॉरपोरेट दलाली में ब्राह्मणवादियों और नवब्राह्मणवादियों में कोई फर्क नहीं है। ब्राह्मणवादियों से अधिक आप जैसे नवब्राह्मणवादियों को अंबेडकर पढ़ाने की जरूरत है जो अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए उस महान चिंतक को बदनाम करते हैं। अंबेडकर जाति का विनाश चाहते थे प्रतिस्पर्धी जातिवाद नहीं। क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं और जाति के विनाश के बिना क्राति नहीं। ब्राह्मणवादी और नवब्राह्मणवादी, हर तरह के जातिवाद का एक जवाब -- इंकिलाब जिंदाबाद।

Monday, November 8, 2021

लल्ला पुराण 314 (बाभन से इंसान)

 एक सज्जन ने जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठकर विवेकसम्मत अस्मिता बनाने के मुहावरे 'बाभन से इंसान बनने' पर तंज करने के लिए एक कहानी गढ़ कर बाभन से इंसान बन चुके लोगों पर तंज कसने का प्रयास किया है, उस पर:


जो बाभन से इंसान नहीं बनना चाहता वह अपनी अकर्णण्यता और बौद्धिक जड़ता का औचित्य साबित करने के लिए ऐसी ही कहानियां गढ़ते हैं। अरे भाई, जिसे इंसान नहीं बनना है, वह न बने वह बना रहे बाभन, ठाकुर. अहिर या हिंदू-मुसलमान। जो विवेक के इस्तेमाल और अदम्य साहस के अनवरत आत्मसंघर्ष के परिणाम स्लरूप जन्मगत दुराग्रहों से मुक्ति पाकर बाभन (अहिर, भुंइहार, कुर्मी, ......., या हिंदू-मुसलमान) से इंसान बन चुके हैं, उनपर क्यों वापस जातीय जहालत क्यों थोपना चाहते हैं?

Saturday, November 6, 2021

जस्न-ए-चरागा

 दीपावली को दीवाली को जश्न-ए-चरागा कहने का ऐतिहासिक महत्व है।, अकबर के दरबार में दीपों के उत्सव दीवाली को जश्न-ए-चरागा कहकर मनाया जाता था। एक धर्म के धर्मांधों द्वारा दूसरे धर्मके प्रतीकों का मजाक बनाना या भौंड़ाकरण अपवाद नहीं है लेकिन दीपों के त्योहार को जश्न-ए-चरागा कहने के पीछे उसके भौंड़ाकरण की नीयत और मजाक बनाने की मनसा नहीं दिखती। मैं तो इंटर तक चिराग को हिंदी का ही शब्द समझता था। इलाहाबाद विवि में एबीवीपी के एक कार्यक्रम में इलाबाद के तत्कालीन संगठनमंत्री हरिमंगल प्रसाद त्रिपाठी ने एक चर्चा में खानदान का चिराग शब्द पर आपत्तिकी औऱ कुलदीपक शब्द का प्रयोगकरने को कहा तथा उस समय मुझे उनकी राय सर्वथा उचित लगी थी। ( संगठन मंत्री विद्यार्थी परिषद की संबद्ध इकाई का सर्वोच्च अधिकारी होता है लेकिन वह विद्यार्थी नहीं होता, आरएसएस का पूर्णकालिककार्यकर्ता (प्रचारक) होता है।) अबललगता है कि दूसरी भाषाओं के शब्दों से दुराव भाषा की संकीर्णता है तथा दूसरी भाषा के शब्दों अपने में समाहित करने से भाषा समृद्ध होती है। अंग्रेजी के आधे से अधिक शब्द विदेशी भाषाओं से अपनाए गए हैं।