Monday, August 31, 2020
पेंसन
Markandey Pandey इन देशों में ये सुविधाएं जनसंघर्षों से हासिल की गयी हैं, जैसा पारितोष जी ने बताया लोगों से सोसल सेक्योरिटी टैक्स लिया जाता है, जिस संचित कोष का इस्तेमाल सामाजिक सुरक्षा -- वृद्धावस्था पेंसन, बेरोजगारी भत्ता, कमआयु की अविवाहित लड़कियों के बच्चों की देखभाल -- आदि मदों में किया जाता है। उसी ढर्रे पर राजीव गांधी के शासन में (शायद) यहां इंदिरा गांधी वृद्धावस्था पेंसन योजना शुरू की गयी, अभी का पता नहीं लेकिन पहले कुछ 300 या 500 रुपए मिलते थे वह भी 'वृद्धावस्था' के प्रमाणपत्र के बाद। अब तो सेना को छोड़कर हर विभाग में 2004 (अटल जी के शासन में) से सेना को छोड़कर सबकी पें,न खत्म कर दी गयी लेकिन पुरानी पेंसन योजना में भी पेसन कोष कर्मचारी की भविष्यनिधि से नौकरी की अवधि में काटा गया संचित कोष ही होता था। पहले रिटायरमेंट के बाद ज्यादातर लोग कम जीते थे तो सरकार का फायदा होता था लेकिन अब ज्यादा जीने लगे तो पेंसन बंद कर दिया।
Saturday, August 29, 2020
मार्क्सवाद 227 (चुनावी वाम एकता)
राजनैतिक शिक्षा और जनांदोलनों के माध्यम से अपना जनबल तैयार करने की बजाय पिछले 55 सालों से कम्युनिस्ट पार्टियां इस या उस शासकवर्ग की पार्टी का पुछल्ला बनकर अपना क्षरण करती जा रही हैं। आज तीनों पार्बिटियों का संसदीय आधार 1964 में सीपीआई की संसदीय शक्हाति का 10% भी नहीं रह गया है। में महागठबंधन में शामिल होने की बजाय क्रांतिकारी उन्हें एक मजबूत वाम विकल्प तैयार करना चाहिए। वक्त की जरूरत है तीनों संसदीय पार्टियां आपसी गठबंधन से एक ताकतवर ब्लॉक बनाएं तथा एक ताकतवर स्थिति से फासीवाद-विरोधी दलों से सीटों का चुनावी समझौता करें तथा जनांदोलनों की रणनीति की छोटी कम्युनिस्ट पार्टियां चुनाव में इस ब्लॉक का समर्थन करें। मेरी राय में राममनोहर लोहिया-दीनदयाल उपाध्याय के कांग्रेस विरोधी समझौते के तहत 1967 में कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट पार्टियों का भारतीय जनसंघ के साथ संविद प्रयोग भयानक भूल थी जिससे आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के सामाजिक समवीकार्यता की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। बिहार आंदोलन में जेपी द्वारा आरएसएस को अपना प्रमुख सहयोगी बनाने, प्रगतिशील छवि बनाने के लिए इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल में उसे प्रमुखता से निशाना बनाना तथा 1977 में जनता सरकार के प्रयोग में उसकी अहमियत से आरएसएस की सांप्रदायिकता पर सामाजिक स्वीकार्यता की मुहर लग गयी। मेरे ख्याल से बिहार चुनाव में तानों पार्टियों को मजबूत गठबंठन बनाकर जनता के प्रमुख समस्याओं के चुनावी मुद्दों पर लड़ना चाहिए। चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर महागठबंधन का सरकार बनाने में समर्थन करना चाहिए। अस्मिता की राजनीति ने बिहार के क्रांतिकारी आंदोलनों को बहुत क्षति पहुंचाया है।
फुटनोट 241 (सीएजी)
सरकार राज्यपाल की ही तरह सीएजी की नियुक्ति भी स्वामिभक्ति के आधार पर करती है लेकिन उसमें कुछ संविधान के प्रति निष्टावान निकल जाते हैं और कुछ सरकार के अंतिम दिनों में परिवर्तन की हवा देखकर आगामी संभावित सरकार के हाथों बिक कर संभावना को घटना में बदलने में मददगार होते हैं। जैसे मनमोहन सरकार के अंतिम दिनों में सीएजी ने 2 जी स्पेक्ट्रम के आबंटन में सैकड़ों करोड़ के घाटे की रिपोर्ट दी थी जो सरकार गिरने के बाद अदालत में बेबुनियाद पायी गयी। नव चयनित सीएजी, मुर्मू शायद वही है जिसे मनोज सिन्हा के पहले जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया था। सीएजी के रूप में " अच्छा " काम किया तो सेवानिवृत्ति के बाद मनमोहन सरकार पर कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिए गए भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले तत्कालीन सीएजी विनोद राय की तरह फायदे के पद पर नियुक्ति हो जाएगी। यूपीएससी की तैयारी करते समय सभी उम्मीदवार देश की सेवा करने के शगूफे छोड़ते हैं, चयनित होने के बाद ज्यादातर अपनी और अपने राजनैतिक आकाओं की सेवा करते हैं। ऐसे अभागे अधिकारी आजीवन ईमानदारी की ताकत की अनुभूति से वंचित रह जाते हैं।
सिर उठाकर चलना नतमस्तक समाज में
सिर उठाकर चलना नतमस्तक समाज में
हिम्मत का काम है
Wednesday, August 26, 2020
शिक्षा और ज्ञान 296 (बाल विवाह)
मुसलमानों के डर से बचपन में लड़कियों के विवाह की बात सही नहीं है। यह अपनी कुप्रथाओं पर पर्दा डालने का ब्राह्मणवादी कुप्रचार लगता है। स्त्रियों की आजादी को खतरनाक मानने वली तथा उनको सदैव पिता, पति और पुत्र के अधीस्थ रखने की आचार संहिता की मनुसेमृति बहुत पहले लिखी गयी थी। बहुपत्नी प्रथा बहुत पहले सी थी। बिंदुसार की 100 पत्नियों की बात तो किंवदंती लगती हैं लेकिन कई पत्नियां तो थींं। अशोक अपने तमाम सौतेले भाइयों को मारकर राजा बने थे, उनकी भी कई पत्नियां थीं। बहुपत्नी प्रथा को चुनौती मिली ब्रह्मसमाज आंदोलन से और कानूनी रोक आजाद भारत केसंविधान के प्रवधानों से। राणा प्रताप की 11 पत्नियां थीं। अकबर के साथ तमाम राजपूतों ने स्वेच्छा से अपनी बेटियों के विवाह किए थे। यह सही है कि राणा प्रताप और रानी दुर्गावती के अलावा सारे राजपूत रजवाड़े अकबर के दरबारी बन गए थे। पूरे राजपुताने में अकेले राणा प्रताप अकबर और उसके सहयोगी राजपूतों की संयुक्त शक्ति से आजीवन लोहा लेते रहे, हर पराजय के बाद फिर से शक्ति अर्जित करते और हमला करते। राणा प्रताप के अपने सौतेले भाई जयमाल और शक्ति सिंह अकबर के साथ थे। शक्ति सिंह हल्दीघाटी में चेतक की मृत्यु के बाद राणा प्रताप को अपना घोड़ा दिए। ........... यदि राजपुताने के बाकी रजवाड़े प्रताप के विरुद्ध अकबर का साथ न देते तो राणा प्रताप अजेय रहते। ...........उसी तरह जैसे यदि 1857 में सिंधिया तथा ओरछा, पटियाला, हैदराबाद आदि के रजवाड़े अपनी सेनाओं के साथ 1857 की किसान क्रांति के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ न देते तो तभी देश आजाद हो जाता। यहां के सामंती शासकवर्गों ने हमेशा जनता की आजादी के विरुद्ध गद्दारी की है।
मार्क्सवाद 226 (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद)
ऐतिहासिक रूप से द्रव्य विचार के बिना भी रहा है और उसी से विचार की उत्पत्ति हुई। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम से सेब गिरना नहीं शुरू हुए, वे पहले से गिरते ते, उन्हें देखकर न्यूटन के दिमाग में गिरने के कारण जानने का विचार आया। लेकिन सत्य की समग्रता दोनों के द्वंद्वात्मक मेल से बनती है। सेब का गिरनी संपूर्ण सत्य नहीं है और सेब न गिरते तो न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम अस्तित्व में न आता। सवाल पहले मार्क्स या हेगेल का नहीं क्योंकि मार्क्स हेगेल और फॉयरबाक दोनों का संज्ञान लेते हैं और दोनों को ्र्धसत्यों को जोड़कर सत्य की समग्रता रचते हैं। वैसे सवाल होना चाहिए पहले हेगेल या फॉरबाक। ( उपनिषद या चार्वाक जिनका द्वंद्वात्मक मेल बुद्ध में दिखता है।) हेगेल के वास्तविक पूर्ववर्ती प्लेटो हैं।
Monday, August 24, 2020
मार्क्सवाद 225 (वामपंथ)
कोई वामपंथी मनोवैज्ञानिक कारणों से नहीं, अध्ययन एवं चिंतन-मनन के आधार पर समाज के अंतविरोधों की वैज्ञानिक समझ के आधार पर बनता है क्योंकि उसे शोषण-दमन और भेदभाव की व्यवस्था अनुचित और अमानवीय लगती है। यह उसी तरह है जैसे बहुत से पुलिस मर्दवादी समाज की समुचित समझ के चलते स्त्रीवादी बन जाते हैं। मैंने 1987 में एक पेपर लिखा, "Woman's Question in communal Ideologies: A Study into the ideologies of RSS and Jamat-e-Islami". प्रशंसा के ज्यादातरकर पत्र, खासकर विदेशों से, Dear Ms. Mishra के संबोधन से थे। मैं जवाब "Incidently, I am a man" से शुरू करता था। यदि आप मर्दवादी समाज की विडंबनाएं और स्त्रियों के अधिकारों के तर्क समझ सकते हैं तो बिना स्त्री हुए स्त्रीवादी हो सकते हैं। जहां तक वामपंथी के आर्थिक अस्मिता का सवाल है तो एंगेल्स जैसे अपवादों को छोड़कर, ज्यादातप @मोटे तौर पर श्रमिक वर्ग से ही होते हैं। जो भी श्रम (बोद्धिक या भौतिक) बेचकर आजीविका कमाता है वह श्रमिक ही है। एक प्रोफेसर मजदूर ही होता है। लेखक भी मजदूर होता है, इसलिए नहीं कि वह विचार की रचना करता है, बल्कि इसलिए कि वह प्रकाशक के लिए अतिरिक्त मूल्य (surplus value) पैदा करता है जिसे वह मुनाफे के रूपमें उगाहता है। मैंने लंबे समय तक कलम की मजदूरी से ही घर चलाया। ज्यादा मजदूरी पाने वाले मजदूर शासक वर्ग का हिस्सा होने का मुगालता पालते हैं, उन्हें, लैटिन अमेरिका में साम्रज्यवाद के दलालों के लिए गढ़े एंडी गुंटर फ्रैंक की लंपट बुर्जुआ की कोटि में रखा जा सकता है। मेरी कोई बात बुरी लगी हो तो क्षमाप्रार्थी हूं।
Sunday, August 23, 2020
शिक्षा और ज्ञान 296(बाबर)
Saturday, August 22, 2020
प्लेटो का कम्यून
प्लेटो के रिपब्लिक में शासक वर्गों के लिए कम्यून की व्यवस्था का प्रावधान है जिसमें किसी का निजी परिवार नहीं होगा। स्त्री-पुरुष के समागम का उद्देश्य संतानोपत्ति था तथा जोड़े का चुनाव राजा लॉटरी द्वारा करता था। समागम जब-तब नहीं बल्कि शुभ मुहूर्त में होता था। उसका मानना था कि योग्य स्त्री-पुरुष के समागम से योग्य संतानें पैदा होती हैं, इसलिए राजा को सलाह देता है कि लॉटरी में हेरा फेरी करके जोड़ों का चयन इस प्रकार करे कि योग्य स्त्री-पुरुषों का समागम अधिक-ससे अधिक हो और अयोग्य का कम-से-कम। लॉटरी यानि भाग्य का मामला है तो कोई शिकायत नहीं कर सकता। मां का अपने बच्चे से स्तनपान का ही संबंध रहेगा। पैदा होते ही सब बच्चों को राज्य पोषित-नियंत्रित नर्सरी में डाल दिया जाएगा जहां प्रशिक्षित दाइयां उनका देखभाल करेंगी। कोई न किसी का मां/बाप होगी/होगा न कोई किसी का बेटा/बेटी। सारे स्त्री-पुरुष सभी बच्चों के मां-बाप होंगे और सभी बच्चे सबके बेटा-बेटी और आपस में सब भाई-बहन। उसका चेला उसके परिवार के साम्यवाद की आलोचना में कहता है कि सैकड़ों सगे-भाई बहनों से बेहतर है दूर के एकाध-भाई-बहन। मुझे इस व्यवस्था में यदि युगलबंदी राज्य नियंत्रि न हो तो यह वांछनीय लगती है। जो बच्चे राज्य-नियंत्रित समागम से बाहर की पैदाइश होंगे या अयोग्य होंगे उनकी जिम्मेदारी राज्य की नहीं होगी, उन्हें या तो कहीं किसी अंधेरे कोने में गाड़ दिया जाएगा या निम्न वर्गों के परिवारों को दे दिया जाएगा। (परिवार नियोजन की अनूठी तजबीज)। प्लेटो के आदर्श राज्य में श्रमविभाजन वर्णाश्रम व्यवस्था की अनुकृति है। समाजवाद के पहले चरण में बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी समाज की होगी क्यों कि बच्चे समाज की संपदा होते हैं तथा समाज के समुचित विकास के लिए स्त्री-पुरुष दोनों की सर्जक उत्पादकता की आवश्यकता होगी। वैसे प्लेटो का आदर्श राज्य कभी ठोस रूप नहीं ले सका, इसीलिए इसे यूटोपिया कहा जाता है, वैसे भविष्य की आदर्श व्यवस्था की अवधारणा वर्तमान की व्यवहारिक सीमाओं से परे होती है। वैसे फिलहाल परिवार कितनी भी प्रतिक्रियावादी व्यवस्था क्यों न हो लेखिन इसकी समाप्ति अभी अव्यवहारिक है लेकिन इसके जनतांत्रिककरण से इसकी बेहतरी न केवल संभव है बल्कि वांछनीय भी।
Thursday, August 20, 2020
फुटनोट 240 (कलान चौराहा)
हाईस्कूल और इंटर में पढ़ते हुए ट्रेन पकड़ने बिलवाई स्टेसन के रास्ते में कलान चैराहे पर चाय पीते जाते थे। तब उसे बिलवाई चौराहा ही कहा जाता था। बिलवाई बाजार वहां से एक-डेढ़ किमी उत्तर है और बिलवाई स्टेसन डेढ़-दो किमी पश्चिम।ग्राम-समाज की जमीन में कलान के एक ठाकुर ने चंदे से एक स्कूल बनवाया थो जो अब पीजी कॉलेज बन चुका है।स्कूल के हेड मास्टर हमारे गांव के बगल के गांव के राम सूरत सिंह थे, वे वहां से छोड़कर अपने गांव की ग्रामसमाज की जमीन पर चंदा करके स्कूल बनवाया, तब हम इलाहाबाद पढ़ते थे, स्टेसन जाते समय कभी कभी गणित का एक कलास लेते जाते थे। वह स्कूल भी अब डिग्री कॉलेज बन गया है। संस्थापक राम सूरत सिंह तो अब रहे नहीं, उनके पिताजी के परोक्ष नाम पर कॉलेज अभी भी है। उनके पिताजी का नाम राम सेवक सिंह था, स्कूल का नाम उन्होंने जनसेवक विद्यालय रखा था।
बेतरतीब 78 (बचपन 16)
बेतरतीब 78 (बचपन 16)
परिचय (भाग 2)
Wednesday, August 19, 2020
बेतरतीब 77 (बचपन 15)
आजादी के आठवें साल (1955)में आजमगढ़ जिले के एक शैक्षणिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े इलाके में, एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मम परिवार में मेरा जन्म हुआ। आर्थिक व्यवस्था तथा सास्कृतिक परिवेश मध्ययुगीनता और आधुनिकता के संक्रमणकाल से गुजर रही थी। वर्णाश्रम व्यवस्था में मैकाले की शिक्षा व्यवस्था के चलते शिक्षा की सैद्धांतिक रूप से सार्वभौमिक सुलभता तथा छुआछूत के विरुद्ध संवैधानिक प्रावधानों के चलते छोटी-मोटी दरारें पड़ना शुरू हो गयी थीं। खेती-बाड़ी, पशुपालन एवं अन्य काम हलवाहों-चरवाहा एवं मजदूर के परिश्रम से होता था। कम उम्र में ही बड़े भाई के साथ गाव के प्राइमरी स्कूल जाने लगा तथा गदहिया गोल (प्री-प्राइमरी) में 3-4 महीने ही पढ़ा कि पंडित जी ने मेरे अंकगणित के पता नहीं किस ज्ञान से प्रभावित होकर मुझे कक्षा -1 में प्रोमोट कर दिया। कक्षा 4 में डिप्टी साहब मुआयना करने आए और अंकगणित के किसी मौखिक सवाल के जवाब में कक्षा 5 में प्रोमोट कर दिया। 1964 में 9 साल में प्राइमरी पास किया और 8 किमी दूर मिडिल स्कूल से आठवीं पास किया तो पैदल की दूरी पर हाई स्कूल नहीं था और साइकिल पर पांव नहीं पहुंचता था। प्रतिकूलता में अवसर (ब्लेसिंग इन डिस्गाइज)। हाई स्कूल की पढ़ाई करने नजदीकी शहर जौनपुर चला गया और 1972 में जब इलाहाबाद विवि में बीएस्सी में दाखिला लिया। मैं विवि पढ़ने जाने वाला अपने गांव का पहला लड़का था। 1972 में इंटर की परीक्षा देकर घर गया तो मेरे विवाह का निमंत्रण कार्ड छप चुका था और मेरा विद्रोह का प्रयास नाकाम रहा। बाकी परिचय अगली किश्त में।
Saturday, August 15, 2020
अन्याय मूर्ति
Tuesday, August 11, 2020
धरती मां
धरती (देश नहीं) और नदी को पालनहार के अर्थ में मां कहने का रिवाज सभी पारंपरिक समाजों, खासकर जनजातियों में, पुराना है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में देश को माता-पिता कहने का कोई जिक्र नहीं है। यूरोप में आधुनिक राष्टोंमाद की नीयत से फादरलैंड (पितृभूमि) कहा जाता था सावरकर ने उन्ही नकल पर पितृभूमि की अवधारणा दी। भारत माता की अवधारणा भी औपनिवेशिक शासकों की नकल है। विक्टोरिया के शासन काल में रानी की चमचागीरी में उन्हीं की छवि में मदर ब्रिटानिका की अवधारणा गढ़ी गयी। भारत माता की जय तो बहुत बोल चुके हैं। आप अभी क्यों बुलवाना चाहते हैं? किस बात की परीक्षा लेना चाहते हैं? परीक्षा की मेरी अवस्था नहीं है। मैं तो नास्तिक हूं किसी देवी-देवता की जय नहीं बोलता। वैसे भारत माता कौन है?
Black Lives Matter
‘Black lack Matter’: Slavery and
racism in the historical context
ISH MISHRA
Racism, like communalism, Brahmanism (casteism) and the
gender, is not an attribute of biology but an ideology that is constructed,
reconstructed, nurtured and perpetuated in the day-to-day life and intellectual
discourses, says Ish Mishra
A sense of
superiority or supremacy is one of the key elements of the hegemony. In the
colonial era, the European colonizers harbored the sense of civilizational
superiority over the colonized and responsible for civilizing them, giving the
rise to the proverb, “the burden of civilization”. Eventually, he feels entitled to lord over
them. The genesis of racism lies in the feeling of superiority. Needless to
say, the same factors and the same thinking inform Indian society as well. Ish
Mishra endeavours to analyze these factors, beliefs and ideologies from the
sociological perspective. This is the first article in a series. - Editor
A sociological analysis of
ideologies of racism and slavery
A fierce anti-racism movement swept the world following the
brutal murder of George Floyd, an African American accused of using a forged
bill, in the custody of a white policeman in the city of Minneapolis, in
Minnesota, USA, on 29 May 2020. This movement seeks to challenge the very idea
that legitimized the system of slavery in the colonial era. The symbols of that
era are being attacked and destroyed. In Boston, a statue of Christopher
Columbus was uprooted and dumped in a lake. In other US cities, too, busts and
statues of Columbus and other apologists of slavery were vandalized. In
Bristol, England, the bust of Edward Colston, a 17th-century slave
trader, was torn down and thrown into a river. Several statues of Queen
Victoria were defaced in Britain. The mayors of many British towns are mulling
over whether the symbols and statues of the colonial era should be pulled down.
This is a defining moment for the white supremacists who boast of having
civilized the world. Tearing down the statues of colonialists, advocates of
slavery and slave traders won’t change history but it can lead to a
re-interpretation of the chronicles of past which describe how certain people
civilized the others and that re-interpretation, in turn, can teach us valuable
lessons. Many states and cities in the US have begun considering new laws to
change the way the police function.
Even as the “Black Lives Matter” movement was spreading like
wildfire in America and Europe and the people were seething with anger over
police brutalities, a Dalit youth was done to death by upper-caste men in a
village in Amroha district of Uttar Pradesh, India, on 6 June 2020. The murder
followed a dispute over performing puja in a temple. Over the past three years,
the Uttar Pradesh police have killed many people in cold blood on the pretext
of eliminating crime. In different parts of the country, blood-thirsty mobs of
communalists and religious fanatics have lynched members of the minority
community. But these incidents have evoked only muted protests.
Be that as it may, comparing the reaction of the common man
to almost identical developments in India and the West is not the subject
matter of this article. It warrants an article of its own. Though popular
resistance to the injustice rooted in racism is as old as racism itself and has
been evolving with time, the wide canvas and the geographical expanse of the
ongoing movement seems to indicate that it may strike a decisive blow against
the ideology of racism.
A reference to communal, casteist discrimination and
violence in India in the context of the global movement against racism is meant
just to underline the commonalities – that all three are rooted in historical
factors and that their elimination is not only possible, but also inevitable.
The Varnashramvad (casteism or Brahmanism) – an ideology constructed to
perpetuate the hegemony of the parasitic (upper-caste) class – is thousands of
years old. The history of racism goes as far back as the ancient Greek
philosopher Aristotle, who pioneered the idea that humans are unequal. In the
modern era, its genesis can be traced to the 18th century, when
slaves became the engine of growth of the American economy.
Aristotle considered slavery indispensable and natural and
believed that the “barbarians” (non-Greeks) were born slaves. The ideology of
communalism in India is a little more than 150 years old. It was created by the
British colonial rulers to further their policy of divide and rule. Shaken to
the core by the peasant revolution of 1857, the British concluded that they can
perpetuate their rule only by dividing Indians along communal lines. After
their exit from the Indian subcontinent, the communal forces, both in India and
in Pakistan, used it as a rallying point. The theory of dialectical materialism
tells us that the death of every existent ideology is a certainty and the
aforementioned ideologies are not exceptions. A comparative study of racism –
an ideology crafted in America and Europe for enslaving the people of African
origin; Varnashramvad (Brahmanism) – an ideology of upper-caste supremacism;
and communalism – an ideology used by religious fanatics for political mobilization
and which is a political version of Brahmanism – is eminently desirable. But
there is little scope for it here.
The Black Lives Matter protests are a continuation of the
movement that began with the American civil war of the 1860s. This movement
seeks to assert the identity of the non-whites. The Civil Rights Movement of
the 1950-60, which began with Rosa Parks, a black woman, refusing to vacate her
seat on a bus for a white man, was a major milestone of this movement.
Other
milestones of this movement include the protests that followed the acquittal of
the policemen who had tortured black American citizen Rodney King in 1992, the
500th year of the arrival of Columbus in America, and the release,
in 2013, of George Zimmerman, a policeman responsible for the murder of a black
minor boy Trayvon Martin
in 2012. The movement was reignited in Ferguson and New York with the hashtag
#BlackLivesMatter and by 2014, had assumed the form of a nationwide campaign on
social media.
Racism
is not a biological tendency, nor is it an eternal truth like “Satyamev Jayate”
(Truth alone triumphs) that has been passed on from one generation to another.
Racism, like communalism, Brahmanism (casteism) or male chauvinism, is not a
belief; it is an ideology which is constructed, reconstructed and nurtured both
in day-to-day life and intellectual discourse. An ideology represents a false
consciousness in the sense that it presents and portrays a certain historical
construct as the final or the obvious truth. In America, the ideology of racism
can be seen as a legacy of Columbus.
Driven
by his desire for gold and silver, Columbus, a Spanish trader, set out for
India. But he lost his way and, in October 1492, landed in America and
“discovered” the “New World”. This “discovery” inaugurated a new historical era
– an era of imperialistic exploitation, loot and pogrom, which is yet to see
its end. The “discovery” of the New World by Columbus is itself a myth. America
had been discovered thousands of years before Columbus stepped on its shores
and boasted of a flourishing and advanced civilization. What was “new” about
Columbus’ discovery was that it led to an unprecedented mass slaughter of the
indigenous inhabitants of America and the destruction of the majestic Aztec
Civilization. Transporting and enslavement of Africans followed and the
fashioning of the ideology of racism to legitimize it.
Following
worldwide protests, Derek Chauvin, the policeman who murdered George Floyd, was
charged with second-degree murder, a crime punishable with a minimum sentence
of 12 years in jail. However, in 1992, when Europe and America were celebrating
500 years of Columbus’ “discovery”, the white policemen who had assaulted a
black American, Rodney King, were acquitted by the white judges of Los Angeles.
The judgment not only underscored the racist bias of the American justice
system but also proved that the judgments of American courts are not based on
evidence but on the white supremacist ideology of the judges. However, the way
people rose in their millions to protest the murder of George Floyd at the
hands of the racist police shows that we are well past the era when the people
of African origin could be enslaved and driven like animals. The humanistic
consciousness against racism has gained so much strength that denial of justice
to victims of racial barbarism such as a Floyd or a King is bound to be met
with stiff resistance.
Also read: Why India’s
deprived fail to unite like the African Americans
In 1992, when the custodians of
justice turned a deaf ear to the plaintive cries of Rodney King, the simmering
anger against racism spilt onto the streets of American cities, though its
intensity and spread was much less than the ongoing Black Lives Matter
movement.
Starting at Minneapolis, this
movement has engulfed vast parts of the world and is posing a tough challenge
to the legacy of Columbus. It would be a digression to discuss how Columbus’
so-called discovery was followed by the destruction of advanced civilizations
like Aztec and Inca and the barbaric massacre of the indigenous inhabitants of
America. Dee Brown’s Bury My Heart at
Wounded Knee provides a moving description of the lofty moral principles
and valour of the indigenous inhabitants and the unspeakable monstrosities
perpetrated on them by the barbaric Europeans.
The white supremacists of European
origin believe that the blacks are racially prone to criminality and hold them
responsible for the crimes in America. Over the past couple of decades, the
anti-racism sentiment has grown so strong that editors of many publications
have had to pay with their jobs for making adverse comments about the
anti-racism movement. In 1992, Andrew Sullivan of the Daily Telegraph, while shedding copious tears on the deleterious
fallouts of the anti-racism protests, tried to obliquely justify the merciless
thrashing of Rodney King. Baring his racist mindset, he wrote that the judgment
of the Los Angeles court should be seen in the wider context of “who commits
more crimes” and, employing statistical jugglery, tried to prove that the
people of African origin are “born criminals”.
In January 1988, Jimmy “The Greek”, a sports commentator for an American TV network, claimed
that the whites wouldn’t get any place in basketball teams if the coaches were non-whites. He also said
that the blacks are better basketball players
because they have bigger thighs. He went on to
flaunt his knowledge of biological evolution by claiming that “during
the slave trading, the owner, the slave owner, would breed his big woman so
that he would have a big black kid”.
This biological interpretation of race was not
limited to sports commentators like “The Greek”. Those claiming
to be educated and living off the claim weren’t far behind. Richard Cohen, a well-known liberal journalist of Washington Post, came out in support of “The Greek” and mocking anthropologists and biologists propounded the theory of “white genes”. Journalists
like Sullivan and Cohen sought to define physical features in terms of race and
used convoluted logic to prove that one race was superior to another.
This “biological understanding”
of race was by no means the exclusive preserve of half-baked journalists. In
May 1987, a group of Arabic and Jewish citizens of America filed a petition in
the Supreme Court of the country seeking protection under the Civil Rights Act,
1888. Instead of disposing of the plea on the basis of the well-established
democratic principle of the State not discriminating against anyone, the
Supreme Court sought to know how the Arabs and the Jews were racially different
from the Caucasians and said that they would be entitled to protection under
the act only
if they were different. It went on to say that
Arabs, Jews and many other nationalities were considered racial groups till the
19th century, so they could be
considered the same even 100 years later.
The American Supreme Court probably did not have
an option.
After all, it is also a part of the American legacy, the foundation of which has been plastered with the blood
of innumerable Red Indians, indentured servants and slaves. Most of the white Americans consciously or subconsciously believe in the
crooked theory that the people of African origin are a different class of human
beings, whose actions, words and thoughts are all
dictated by their race. The white
intellectuals find the word “European Americans” contrived but “African Americans” natural. Just as the application forms for many secular
educational institutions in India have boxes
for the religion and the caste of the applicants, similarly application forms
for American educational institutions also ask for the applicant’s race. That is why America has “Miss
America” and “Miss
Black America” contests. That is why some are
simply “poets”
while others are “black poets”. That is why John Updike
is a “writer”
while Toni Morrison is a “black writer”. That is why George Bush is a “presidential candidate” and
Barack Obama, a “black presidential candidate”. However, thanks to the
evolution of collective social consciousness in the five decades since the 1950s, Obama was elected president. And mind you, he got issue-based support from all
sections of American society. It was not that only the African Americans backed him.
The absence of the words like white and black in the American Constitution, which came into being in
1789 after the anti-colonialism revolution, should not be a cause for any surprise. The Constitution used the words “free
persons” and “other
persons” (a euphemism
for slaves). However, the Constitution did say that three fifths of all “other
persons” (ie slaves)
will be counted for both taxation and representation. The problem with the
American Constitution-makers was that they
held the Statue of Liberty in one hand and the profits from the slave trade in
the other. In 1776, some colonies in North America had attained freedom but not
the slaves in these colonies. Even during the civil war, both the opponents and
the supporters of the slavery system did not consider it a legacy of Columbus. Both
considered slavery as natural and racism as axiomatic.
Also read: ‘Gulamgiri’: The
‘seed text’ for an anti-brahmanical consciousness
Many American
historians interpret slavery as a system that defined racial relations and also
that its objective was not the production of tobacco, rice[1] , tea, cotton and sugar but the
establishment of white supremacy. The complexion of the Irish people was no
different from that of the English. But still, the English used the same
barbaric arguments to justify their oppression as they used to justify the oppression
of the people of African, Asian and American origin. In ancient Greece and
Rome, masters and slaves were not distinguishable by the colour of their skin
or their physical features. Those who met a horrific end in Hitler’s gas
chambers included not only the Jews and the gypsies but also the Communists and
other political opponents of the Fuehrer, who were of the German (Aryan) race.
Racism is not about colour of skin or facial features. It is an ideology of
capitalism, which came into existence in a particular epoch of history to serve
economic and political interests, and that makes its obliteration possible.
At the beginning of the 17th
century, when the British colonialists discovered that Virginia’s land was
suitable for cultivation of tobacco and had the potential of fetching untold
riches to them, they brought indentured servants from England to work the
fields. And these serfs – who could be sold, bought, stolen, abducted, gifted
and gambled away – were white-skinned like them. They were subjected to the
same brutalities as slaves. However, they were somewhat better off than the
African slaves who came later in the sense that their future generations were
not condemned to slavery and some of the fortunate ones among them could hope
to get away alive after the expiry of their contract. Some particularly
rapacious landowners doctored the indentures to deny freedom and freedom money
to them. Others served them poisoned food, thrashed them mercilessly and even
killed them.
Neither their white skin nor their
British nationality could save the indentured servants from extreme
exploitation and inhuman treatment. If the British colonialists did not enslave
the indentured servants it was not because they were hesitant to exploit fellow
Europeans beyond a certain limit. The indentured servants were armed and their
numbers were very large. Any attempt to enslave them could have triggered an
uprising and, taking advantage of the fissures in the colonists’ camp, the
indigenous inhabitants of America, who were lying in wait, could have mounted
an attack. Moreover, if this news reached England, there was a possibility of
the supply of indentured servants drying up. Oppression can only be countered
with resistance. The British lower classes did not owe their freedom to the
benevolence of the elite. Every little concession was obtained through fierce
struggles and it took them centuries to secure complete freedom. The slavery
system did not become history because the owners had had a change of heart or
because they had turned democrats overnight. The slaves won their freedom in
bits and pieces through a long and sustained struggle. Every new battle was meant
to preserve and protect the freedom obtained through the last one and to get
something more. The ongoing anti-racism protests in America are the latest in
the series of those long and difficult struggles.
Marx believed that economic motives
drive all men. The slavery system was born of the economic needs of colonial
America. The ideology of racism, which seeks to justify and legitimize it,
followed.
The supply of indentured servants
began drying up as the news of the hard labour and the miserable conditions in
which they had to live reached England. To make up for the shortfall and to
maintain production levels, the number of Africans and Afro-Caribbean people,
who were forcibly brought to America from the Caribbean and Africa, began
increasing. This was even better for the owners because while the British lower
class had, over the years, managed to win many concessions and facilities
through dialogues and struggles, the Africans, who were thousands of miles away
from their people, had to begin their struggle from the scratch. It was easier
to push them into slavery.
By the 1670s, the vast army of white
youth, who were free, landless, resentful and armed, had started to become a
threat to the rulers of Virginia. In 1676, these youth joined hands with indentured
servants and slaves and revolted. Though this rebellion fell short of giving
that powerful historical jolt to those in power, it did make the powerful and
the rich suspicious of the lower-class whites. Employing Europeans as servants
started being considered a risky proposition.
The changed equations of the
colonial economy led to a big jump in the number of slaves of African origin
and the need arose for an institutional framework for the slavery system. That
was also when the ideology of racism was crafted as a justification for the
slavery system. The roots of modern racism go back up to the Columbus’
“discovery” but its systematic development as an ideology that discriminates
between men on the basis of their looks, began after the slavery system assumed
an institutional form. The history of the racism that links a man’s status to
the colour of his skin is only as old as the American Constitution. The people
of African origin were made a part of society but without any liberty and
rights. It is said that those who are believed to be naturally low can be
easily oppressed.
In the 19th century, when
cotton and textile production became the vehicles of prosperity in America, the
African slaves formed the backbone of the economy, just as they did in colonial
America. This led to a situation in which the free persons (white Americans)
could do without exploiting each other. Class exploitation was given the
ideological veneer of racism. Slavery system began to be defined in terms of
racial relations and was justified in the name of “natural ineptitude and
intrinsic incompetence” of the people of African origin. The ideology of racism
became the excuse for perpetuating the slavery system in a republic that was
based on the revolutionary ideas of liberty and natural rights. It was used to
justify the denial of natural rights to a certain people, although they
continued to be natural rights for everyone else.
While the European Americans used
the ideology of racism to reconcile the inherent contradictions of liberty and
slavery, the African Americans called for an end to slavery to resolve these
contradictions and declared that liberty was their birthright, too. Slavery is
dead but racism is still alive. The murder of George Floyd is ample proof.
However, anti-racism consciousness has reached a new high and the worldwide
movement challenging Columbus’ legacy is a testament to it.
References
Kolchin, Peter.
(1987). Unfree Labour: American Slavery and Russian Serfdom. Cambridge:
The Belknap Press of Harvard University Press.
Jordan,
Winthrop D. and Leon F. Litwack. (1983). The United States: Conquering a
Continent (5th Edition). Englewood Cliffs, New Jersey. Prentice
Hall.
Jordan,
Winthrop D., Christopher Leslie Brown and Peter H. Wood. (1968). White over Black: American
Attitudes Toward the Negro, 1550-1812. Chaplin Hill: University of North
Carolina Press.
Brown, Dee. (1970). Bury My Heart at Wounded Knee. New
York: Holt, Rinehart and Winston
Morgun, Edmund. (1975). American Slavery, American
Freedom: The Ordeal of Colonial Virginia. New York: W.W. Norton & Company
Rose, Willie Le. (Ed) (1976). A Documentary History of
Slavery in North America. New York: Oxford University Press
(Translation: Amrish Herdenia)
Captions:
Hero-turned-villain:
Columbus’ status bites the dust
People hold a
demonstration holding pictures of George Floyd in New York.
A demonstration
seeking justice for John Floyd.
Sunday, August 9, 2020
लिंकन
अमेरिका में लिंकन के खिलाफ बहुत लिखा गया है। उत्तरी अमेरिका में अमेरिकी मूलनिवासियों (रेड इंडियन्स) का अत्यंत क्रूर नरसंहार लिंकन के शासनकाल में हुआ था। पकड़े गए उनके सरदारों को पिंजड़े में बंद कर प्रदर्शनी लगाया जाता था। 1980 के दशक में छपी डी ब्राउन की पुस्तक 'बरी माई हार्ट एट वुंडेड नी' में इसका बहुत जीवंत वर्णन है। लिंकन की जनता श्वेत अमेरिकी जनता थी। दोगलापन यह है कि एक तरफ हम वसुधैव कुटुंबकम् की बात करेंगे दूसरी तरफ हिंदू-मुसलिम नरेटिव से फिरकापस्ती के नफरत का जहर फैलाएंगे। गर्व से हिंदू होने का उद्घोष करेंगे और आरक्षण एवं शूद्रों (ओबीसी एवं दलित जातियां) के विरुद्ध तमाम तरह के कलुष एवं अवमाननापूर्ण वक्तव्य देंगे। किसी भी व्यक्ति या समुदाय के विकास के लिए आत्मावलोकन और आत्मालोचना आवश्यक है वरना विदेशी कर्ज से लदे, कैंची और नेलकटर के लिए भी विदेशों पर निर्भर रहते हुए बाभन, भुइंहार, अहिर ...... हिंदू, मुसलमान होने पर गर्व करते रहेंगे। यूरोप में नवजागऱण (रेनेसां) तथा प्रज्ञा (एनलाइटेंमेंट) क्रांतियों का केंद्रबिंदु आस्था एवं प्रथा के विरुद्ध तर्क और विवेक की दावेदारी थी। बोद्ध बौद्धिक क्रांति के भी यही केंद्रबिंदु थे। तर्क तथा वैज्ञानिकता के रास्ते पर आगे बढ़ने की बजाय हम धर्मोंमादी,अंध-आस्था तथा धर्मांधता के अधोगामी पथ पर अग्रसर हैं।
Saturday, August 8, 2020
नई शिक्षा नीति और नई चुनौतियां
ज्ञान, शिक्षा और वर्चस्व (भाग 1)