Narendra Kishan दुर्बासा की कार्तिक पूर्णिमा मेला और नहान की काफी महत्ता थी (अभी भी होगी). मैं एक ही बार गया हूं वह भी इतनी कम उम्र में कि पररिस्थितियों की विशिष्टता नहीं होती तो यात्रा भी न होती. 5 साल के आसपास की उम्र होगी. मेरे बड़े भाई 5 साल बड़े हैं. मुझे एक रुपया देकर पिता-पुत्र ने बहकाने की कोशिस किया कि सुबह दुर्बासा चलेंगे और मुझे बाग में रहट पर दादाजी से कुछ कहने के लिए भेज दिया. बिना मांगे 1 रुपया (तब बहुत होता था) मिलने और इनलोगों के हाव-भाव से मुझे इनके नीयत में खोट का संदेह हो रहा था. लेकिन एक अच्छे बच्चे की तरह मैं घुटने तक भइया की कोट पहने बाग की तरफ चल दिया. बाग में पहुंचने ही वाला था कि दूर से भइया को साइकिल पर बैठाकर जाते पिता जी दिख गये. उन लोगों के धोखे पर गुस्सा आया और मैं दादा जी के पास जाने की बजाय दौड़ पड़ा लगभग 1 किमी दूर अगले गांव, अंड़िका की तरफ. साइकिल का रास्ता लंबवत था और मेरी दौड़ का कर्णवत. फिर भी अंड़िका की सड़क (कच्ची) तक मेरे पहुंचने जरा सा पहले ये लोग पहुंचे और मेरा चिल्लाना न सुन आरे बढ़ गये. हम लोगों को पहचानने वाले उस गांव के एक आदमी ने इन्हें आवाज दी कि उनका बेटा पीछे-फीछे दौड़ता आ रहा है. दोनों लोग रुक गये और बिना डांटे, साइकिल के आगे की पाइप पर तौलिया लपेट कर सीट बनाया और दुर्बासा पहुंच गये. इतना बड़ा जमावड़ा पहले कहीं नहीं देखा था (कहीं गया ही नहीं था कभी). काफी रोमांचित हो रहा था, क्या क्या था -- बाइसकोप, झूला,..... -- याद नहीं आ रहा, इतना याद आ रहा है मैं काफी उल्लसित था. टौंस में बहुत पानी था और मैंने नया नया तैरना सीखा था. नहान और पूजा वगैरह के बाद एक चाय की दुकान (या ठेला) पर गये और मुझे कुछ खाने को दिलाकर अपने परिचितों से गप्पें करने लगे, भइया के भी कुछ दोस्त मिल गये. मैं अकेले बोर होने लगा. तब तक मैं घर पर चाय नहीं पीता था. समय बिताने के लिए मैं 4-5 कुल्हड़ चाय पी गया. 2 पैसे(अधन्नी) के हिसाब से उसने चाय के पैसे मागे तो पिता जी नाराज हो गये कि इतनी चाय किसने पी. मैने कहा, " हम पियली है कुल", सभी लोग आश्चर्य से हंसने लगे. पता नहीं कब और कैसे मैं खो गया यानि बाबूजी और भैया का साथ छूट गया. गांव की दादियों से बच्चों के मेलों में खोने की कहानियां सुन चुका था.
Narendra Kishan मुझे याद है मैं घबराया नहीं था. मैं सड़क के किनारे एक छप्पर में पकौड़ी की दुकान के बाहर खड़ा हो गया इस भाव में कि किसी को पता न चले कि मैं खोया हूं. मैं लगता है चालाक बालक था और सोचा कि वे लोग भी तो मुझे खोज रहे होंगे और वे बड़े हैं, खोज ही लेंगे. डर तो लग रहा था कि वे लोग वहां न पहुंच पाये तो क्या होगा, लेकिन निश्चिन्त भाव का ऐसा सायास प्रदर्शन करने लगा कि अब सोचता हूं कि बच्चों के अपहरण के किसी गिरोह का अदना सा सदस्य भी पहचान लेता. मेरी जेब में अब भी 1 रूपये का सिक्का था. पकौड़ी वाले से एक आने की पकौड़ी मांगा. एक आने में बहुत पकौड़ी मिलती थी तब. पबां खड़े लोगों ने मुझे आश्चर्य से देखा और दुकान वाले ने आश्चर्य से पूछा, "साथे के बा?". मुझे लगा कहीं इन्हें पता तो नहीं चल गया है कि मैं खोया हुआ हूं. कुतूहल छिपाते हुए बाल-सुलभ रौब में मैंने कहा, "हमरे पैसा बा" वाकई पकौड़ी बहुत ज्यादा थी, सोचा, भइया को खिलाऊंगा, फिर कुतूहल होने लगा, ये लोग न मिलें तो क्या होगा. तभी एक आदमी आया और मुझे पकौड़ी खाने में मगन देख, हकबका कर पूछा कि क्या मैं फला गांव के फला का बेटा हूं और आज भी उन शब्दों का शुकून याद है. लगा मुझे सारा जहां मिल गया. उस इंसान की धुंधली सी शकल यादों में है. मेरे् हां कहने पर, उन्होने कहा, "इहीं बैठल रहिहा, कहूं जइहा मत, तोहरे बाबू के बोलावतानी" अब मामला दूसरा हो गया. मुझे डांट खाना बहुत बुरा लगता था (अब भी, शायद सभी को). अब डांटे खाने से बचने का उपाय सोचना था. वक़्त कम था. तभी दूर से तमतमाये चेहरे के साथ दोनों आते दिखे. बेचारगी और मासूमियत से पकौड़ी खाने में मसगूल हो गया. कनखियों से इन्हें भी देख रहा था. पिताजी के चेहरे का गुस्सा खोया हेटा पाने की खुशी की तरफ लौटने लगा, लेकिन भैया? बाप रे. पहंचते ही बोले "उप्पर देख", मैं नीचे देखते हुए पकौड़ी खाता रहा. "कहां चलि गयल रहे?" बिना ऊपर देखे मासूमियत का अभिनय करते हुए बोला, "पकौड़ी खाये, आवा खायल, हमरे पैसा बा". सब लोग अभिनय को सच समझ हंस पड़े और मैं डांट खाने से बच गया. उसके बाद खुरांसो में आखिरी पेपर के बाद हम सब बच्चे पैदल दुर्बासा गये और 3-4 घंटे टौंसस के किनारे और चह से नदी पार कर उस पार धमा चौकड़ी किये. उसके (45 साल) बाद, साले साहब (साहब इसलिए कि अवकाशप्राप्त प्रिंसिपल हैं) की गाड़ी उधार लेकर, दिसंबर 2012 में, दुर्बासा से कुछ किमी दूर, नदी पार, लग्गूपुर मिडिल स्कूल (जू.हा. स्कूल पवई) के अपने श्रद्धेय शिक्षक, राम बदन राय से मिलने, पश्चिमपट्टी गया. रास्ते में आते-जाते, दुर्बासा और खुरांसो में चाय पिया.
06.07.2014
Narendra Kishan मुझे याद है मैं घबराया नहीं था. मैं सड़क के किनारे एक छप्पर में पकौड़ी की दुकान के बाहर खड़ा हो गया इस भाव में कि किसी को पता न चले कि मैं खोया हूं. मैं लगता है चालाक बालक था और सोचा कि वे लोग भी तो मुझे खोज रहे होंगे और वे बड़े हैं, खोज ही लेंगे. डर तो लग रहा था कि वे लोग वहां न पहुंच पाये तो क्या होगा, लेकिन निश्चिन्त भाव का ऐसा सायास प्रदर्शन करने लगा कि अब सोचता हूं कि बच्चों के अपहरण के किसी गिरोह का अदना सा सदस्य भी पहचान लेता. मेरी जेब में अब भी 1 रूपये का सिक्का था. पकौड़ी वाले से एक आने की पकौड़ी मांगा. एक आने में बहुत पकौड़ी मिलती थी तब. पबां खड़े लोगों ने मुझे आश्चर्य से देखा और दुकान वाले ने आश्चर्य से पूछा, "साथे के बा?". मुझे लगा कहीं इन्हें पता तो नहीं चल गया है कि मैं खोया हुआ हूं. कुतूहल छिपाते हुए बाल-सुलभ रौब में मैंने कहा, "हमरे पैसा बा" वाकई पकौड़ी बहुत ज्यादा थी, सोचा, भइया को खिलाऊंगा, फिर कुतूहल होने लगा, ये लोग न मिलें तो क्या होगा. तभी एक आदमी आया और मुझे पकौड़ी खाने में मगन देख, हकबका कर पूछा कि क्या मैं फला गांव के फला का बेटा हूं और आज भी उन शब्दों का शुकून याद है. लगा मुझे सारा जहां मिल गया. उस इंसान की धुंधली सी शकल यादों में है. मेरे् हां कहने पर, उन्होने कहा, "इहीं बैठल रहिहा, कहूं जइहा मत, तोहरे बाबू के बोलावतानी" अब मामला दूसरा हो गया. मुझे डांट खाना बहुत बुरा लगता था (अब भी, शायद सभी को). अब डांटे खाने से बचने का उपाय सोचना था. वक़्त कम था. तभी दूर से तमतमाये चेहरे के साथ दोनों आते दिखे. बेचारगी और मासूमियत से पकौड़ी खाने में मसगूल हो गया. कनखियों से इन्हें भी देख रहा था. पिताजी के चेहरे का गुस्सा खोया हेटा पाने की खुशी की तरफ लौटने लगा, लेकिन भैया? बाप रे. पहंचते ही बोले "उप्पर देख", मैं नीचे देखते हुए पकौड़ी खाता रहा. "कहां चलि गयल रहे?" बिना ऊपर देखे मासूमियत का अभिनय करते हुए बोला, "पकौड़ी खाये, आवा खायल, हमरे पैसा बा". सब लोग अभिनय को सच समझ हंस पड़े और मैं डांट खाने से बच गया. उसके बाद खुरांसो में आखिरी पेपर के बाद हम सब बच्चे पैदल दुर्बासा गये और 3-4 घंटे टौंसस के किनारे और चह से नदी पार कर उस पार धमा चौकड़ी किये. उसके (45 साल) बाद, साले साहब (साहब इसलिए कि अवकाशप्राप्त प्रिंसिपल हैं) की गाड़ी उधार लेकर, दिसंबर 2012 में, दुर्बासा से कुछ किमी दूर, नदी पार, लग्गूपुर मिडिल स्कूल (जू.हा. स्कूल पवई) के अपने श्रद्धेय शिक्षक, राम बदन राय से मिलने, पश्चिमपट्टी गया. रास्ते में आते-जाते, दुर्बासा और खुरांसो में चाय पिया.
06.07.2014
No comments:
Post a Comment