जब 1972 में इवि में बीयस्सी में एडमिसन लिया तो इनका (मुरली मनोहर जोशी का) मौसेरा भाई नीरज पंत (दिवंगत) हमारा सहपाठी और मित्र था, इनके साथ यहीं रहता था, उससे मिलने यहां आते रहते थे। जोशी जी मेरे गुकु भी थे तो मुझ पर अतिरिक्त स्नेह था। मैथमेटिक्स असोसिएसन के मेरे चुनाव के पोस्टर यहीं बनते थे। चुनाव जीतने के बाद इनकी बेटियां (बहुत छोटी-छोटी) कहती थीं नीरज तुम्हारा सेकेट्री आया है। 1990 के दशक में कुछ हेरा-फेरी से सरकारी से इसे निजी बनाया और छोटी कोठी से विशालकाय भवन बनवा लिया। मंत्री बनने पर अपने सारे चिरकुट चेलों को बड़े-बड़े पदों पर स्थापित किया लेकिन नीरज केमेस्ट्री विभाग में रिसर्च असोसिएट ही रहा, उसके लिए कुछ नहीं किया। मंत्री बनने पर मैंने फोन करके अपना नंबर छोड़ा लेकिन वापस फोन नहीं किया। हा हा। मेरी आखिरी मुलाकात 1986 की है -- तल्खी के साथ। 1974 में (मैं तब एबीवीपी का नेता था) जसरा (शंकरगढ़ के पास) में बहुगुणा के उपचुनाव में प्रचार में हम कुछ लड़कों ने जान पर खेलकर गुरू जी को बहुगुणा के गुंडों से बचाया था जो उन्हें 1986 में याद था। इस भवन को बनाने में इतना पैसा कहां से आया था यह अभी भी रहस्य है।
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