मैं तो निर्दल हूं, दल तो अब विपक्षी रहे नहीं, जनता को ही विपक्ष बनना पड़ेगा। नई शिक्षा नीति तथा नई अर्थव्यवस्था में मध्यवर्ग का वृहद सर्वहाराकरण होगा। श्रमशक्ति की आरक्षित फौज (बेरोजगार) का आयतन बढ़ेगा, श्रम-कानूनों को धनपशुओं को हाथों का खिलौना बना दिया गया है। परिणास्वरूप श्रमिको का दरद्रीकरण होगा और काम के अनौपचाकारिककरण से दरिद्रीकरण की प्रक्रिया जटिल तथा भ्रामक होगी। इनके परिणामस्वरूप मध्यवर्ग समेत लोगों की क्रयशक्ति में भीषण गिरावट आएगी। मोटर जैसी सामग्रियों की कंपनियां बंद कर पिछली गली से निकल जाएंगी, नेहरू की नीतियां तो हैं नहीं कि कंपनियां कर्मचारियों को समुचित मुआवजा देने को बाध्य किया जा सके। पिछले 2 सालों में कई टेली-कंपनियां बंद करके कर्मचारियों को सड़क पर छोड़ चल दिए। एक खबर कै अनुसार लगभग 15 लाख टेलीकॉम सेक्टर के इंजीनियर तथा उसी अनुपात में अन्य कर्चारी रोजी-रोटी से बेदखल हुए।रेल में कैटरिंग के निजीकरण के बाद देश बर के करोड़ो वेंडर्स को सुरक्षा के लिए खतरा बताकर रोजी से बेदखल कर दिया गया। हम भारतीय, विवेक से कम भावनाओं तथा उद्वेगों से संचालित होते हैं। व्यापक विश्लेषण की गुंजाइश नहीं है कुल मिलाकर, मेरे किताबी ज्ञान के हिसाब से इनका नतीजा यह होगा कि समाज की कुल क्रयशक्ति घटेगी और 1930 के दशक की मंदी जैसी स्थिति पैदा होगी। जेयम कींस उस समय पूंजीवाद संटमोचक के रूप में मिले जिन्होंने अहस्तक्षेपीय राज्यकी एडम स्मिथियन अवधारणा की जगह हस्तक्षेपीय कल्याणकारी राज्य का सिद्धांत दिया। सार्वजनिक क्षेत्रों के गठन तथा सामाजिक-सुरक्षा के प्रतिष्ठैनों से रोजगार में, फलस्वरूप राष्ट्रीय सकल उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। कुल मिलाकर लोगों के पेट पर चोट का असर अंध राषट्रवादी भक्ति पर भारी पड़ेगा, अराजकता फैलेगी। छिन्न-भिन्न क्रांतिकारी ताकतें यदि निकट भविष्य में ताकत जुटा सकीं और असंतोष को क्रांतिकारी मोड़ दे सकें तो अलग बात वरना समाज में गृहयुद्ध सी स्थिति होगी। मुझे लगता है, वैसे लगना और होना दो अलग बातें हैं। मुझे यह भी लगता है कि संकट की परिस्थिति में फासीवादी और जनवादी ताकतों का ध्रुवीकरण होगा, वैसे मौजूदा परिस्थितियों में ऐसा लगना ज्यादा अकारण लगता है। लेकिन इतिहास का गतिविज्ञान ज्योतिष से नहीं निर्धारित होता, परिस्थितियां कब बदल जाएं नहीं कहा जा सकता।
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