संघी फासीवाद रोकने के लिए वामगठबंधन तथा कांग्रेस गठबंधन भाजपा के फैलने में रुकावट डाल सकता है लेकिन जनता के लिये ढाके तीन पत्ते रहेंगे. सही बात है, जनसंघर्षों के रास्ते जनाधार बनाने के रास्ते की बजाय शासक वर्ग की पार्टियों के साथ चुनावी जोड़-तोड़ का रास्ता आसान है, दूरगामी परिणाम कितना भी भयावह क्यों न हो. 1967 से ही चुनावी वामपंथ यही कर रहा है. 1967 में सीपीआई नेै जनसंघ से हाथ मिलाया तथा 1969 से 1977 तक कांग्रेस का पुछल्ला बनी रही तथा सीपीयम जनता पार्टी के समर्थन किया तबसे वामगठबंठन कांग्रेसी तथा संघी फासिज्म का अदल-बदल कर समर्थन करता तथा लगातार जनाधार खोता रहा है. गौरतलब है कि सिखनरसंहार के बाद बड़े पेड़ के गिरने की बात राजीव गांधी ने कही थी. संघ ने जब राममंदिर के बहाने सांप्रदायिक उंमाद का कार्यक्रम शुरू किया तो कांग्रेस ने प्रतिस्पर्धात्मक सांप्रदायिकता में मस्जिद का दरवाजा खोल दिया तथा मेरठ-मलियाना-हासिमपुरा रच डाला तथा गुजरात के इशरत जहां तथा सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ों की तर्ज पर बटाला हाउस रच डाला जिसके न्यायिक जांच की मानवाधिकार संगठनों की मांग अनसुनी कर दी गयी, यहां तक कि परजनों को पोस्टमार्टम रिपोर्ट तक निहीं द गयी. 17 साल का तथाकथित मास्टरमाइंड, आतिफ 1 महीने पहले दिल्ली आया था तथा उसके सिर में लगी 6 गोलियों में 3 ऊर्ध्वाधार लगीं थीं. आर्थिक नीतियों में समानता होने के चलते 1996 में भाजपा-कांग्रेस स्वाभाविक वैचारिक सहयोगी थे लेकिन शासकवर्ग अपने कृतिम गौड़ अंतरविररोधों को इतना बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है क मूल अंतर्विरोध की धार कुंद हो जाये. मुज़फ्फरनगर-शामली तथा मुरादाबाद-सहारनपुर में मोदी-मुलायम की मिलीभगत थी. कोई भी सांप्रदायिक हिंसा अनियोजित नहीं होती तथा कोई भी सरकार चाहे तो किसी भी दंगे को ठरवआधे घंटे में रोक सकती है. कम्युनिस्ट पार्टी अन्य पार्टियों से भिन्न होती है क्योकि यह सिद्धांत पर जोर देती है, लेकिन यह बात अब सैद्धांतिक बन रह गयी है. असवादी चुनावी गठबंधन इस विशिष्टता को ख़ाक में मिला देंगे तथा वाम के पैर के नीचे से धरती और भी खिसक जायेगी. वामदलों को चाहिये की शासकवर्ग के इस-उस हिस्से का पिछलग्गू बनने की जगह जनांदोलनों से जनाधार बनाने तथा उनमें समाजवादी चेतना का प्रसार करने में निवेश करना चाहिये.
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