Pushpa Tiwari जी, कुछ और विलंबित-निलंबित काम पर बैठने वाला था कि आपने टैग करके फंसा दिया. हा हा. धर्म-वर्म पर बोलने से बचता हूं क्योंकि सभी धर्म असहिष्णु तथा इस अर्थ अधोगामी होते हैं कि वे अपुष्ट आस्था को विवेक पर तरजीह देते हैं तथा सबसे सहिष्णुता की मूर्ति होने तथा अपने धर्म की वैज्ञानिकता के दावे करते हैं. धार्मिक भावनाएं मोम सी नाज़ुक होती हैं, किस तर्क की आंच से पिघल जायें पता नहीं चलता. नास्तिक जब ईश्वर के ही अस्तित्व को चुनौती देता है त वह किसी पैगंबर या अवतार की अवधारणा कैसे स्वीकार कर सकता है. आपने सही कहा, मैं क्या कोई नास्तिक गाली-गलौच नहीं करता. वह इसीलिये नास्तिक होता है कि वह आस्था पर विवेक को तरजीह देता है.गाली-गलौच विवेकहीनता का परिचायक है. हम तो कहते हैं ईश्वर महज कल्पना है तथा पूर्व-पुनर्जन्म की बातें लोगों को ठगने के पाखंड हैं. वैसे कल्पना का तो पुनर्जन्म होता ही रहता है, खास कर दैवीय कल्पनाओं का. हम सब धार्मिक संस्कारों में पलते-बढ़ते हैं तथा इतिहास बोध को मजाक उड़ते हुए, विरासत में मिले देवी-देवताओं की अर्चना-याचना करते हुए लीक पर चलता रहता है. इस वैज्ञानिक तथ्य को धता बता कर कि हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है, पुरातन से चिपककर नवीनता के रास्ते की बाधा बनते हैं. मैं तो बहुत ही रूढ़िवादी कर्मकांडी सनातनी परिवार में पला-बढ़ा. 10 साल की उम्र में हर ब्राह्म-मुहूर्त दादा जी के साथ,भक्तिभाव से मानसपाठ में बिताते हुए, रामचरित मानस की सैकड़ों दोहे-चौपाइयां कंठस्थ थी. अब भी गद्य में पूरी कहानी सिसिलेवार सुना सकता हूं. मंत्र-तंत्र से मोहभंग के चलते 13 साल की उम्र में जनेऊ तोड़ने के बाद, विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते हर सामाजिक मूल्य तथा संस्कार की परिभाषा तथा प्रमाण खोजने लगा. अप्रमाणित को सत्य मानने से इंकार कर दिया.ईश्वर का अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिला है इसलिये हर अप्रमाणित बात की तरह वह भी असत्य है. जिस दिन प्रमाण मिल जायेगा, उसे मेरे लिये गीता-कुरान-बाइबिल सब ऐतिहासिक कारणों से, ऐतिहासिक मंसूबों मनुष्य के लिखे ग्रंथ मानता हूं तथा उनमें वर्णित चरित्रों की समाजवैत्रानिक समीक्षा करता हूं. राम-रावण विवाद वर्णाश्रम व्यवस्था के आंतरिक अंतःकलह की कथा है. खलनायक-नायक -- रावण-राम दोनों वर्णाश्रमी, पितृसत्तातमकता के दो खेमों की लडाई है. नैतिक रूप से राम का चरित्र ज्यादा पतनशील मूल्यों का प्रतिधिनित्व करता है. शासकवर्ग हमेशा अपने आंतरिक अंतरविरोधों को इतना अतिरंजित करता है कि समाज के प्रमुख अंतरविरोधों की धार कुंद हो जाये.
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