Thursday, October 8, 2015

रूहे अब भी तड़पती हैं

रूहे अब भी तड़पती हैं
दब जाती है तड़प कीर्तन के शोर में 
जिस तरह भीड़ के उंमाद में खो जाता है विवेक
मरती नहीं खो जाती हैं रूहें बिकने से जमीर
गिरा दिया जाता है पर्दा  
मंदिरों की प्राचीरों से गूंजती है देववाणी
हादसा बताती है जो रूहों की गुमशुदगी
आगाह करती है गड़े मुर्दे उखाड़ने के विरुद्ध
दैविक प्रकोप के गंभीर नतीजों की धमकी के साथ
लेकिन अब उठने लगे हैं गड़े मुर्दे
चलने लगी हैं हाथ लहराते हुए लाशें
फैलने लगी हैं गलियों, सड़कों, शहरों गांवों में 
खंड खंड करते हुए देववाणी का पाखंड
बंद हो जाएगा कीर्तन का शोर रूहों की तड़प की गर्जना से
जज्बात की जगह दिमाग से सोचने लगेंगे लोग
जागेगा जमीर
संख्या बल होगा जनबल में तब्दील
चीरकर धर्माधता की धुंध के बादल 
करेंगी रूहें अपनी मौजूदगी का ऐलान
खुद-ब-खुद नेस्त-नाबूद हो जयेगा 
देववाणी के हादसों का खेल
(ईमिः09.10.2015)

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