Friday, May 4, 2012

नारी विमर्श 1

I
मैं तो नारीवादी हूँ और हमें व्यवहार में भी नारी-विरोधी और नैसर्गिक क्रियाओं की अवमानना वाली गालियों की जगह नई गालियों का ईजाद कारना चाहिए. तब तक चीकट/चिरकुट/टुच्चा जैसी सेकुलर गालियों से काम चलाया जाय.यदि सेक्सुअलिटी की मर्दवादी अवधारणाओं से मुक्त होकर लिंग भेदभाव से मुक्त एक जनतांत्रिक संस्कृति और भाषा का निर्माण करें तो अंदर-बहार का झंझट खत्म हो जायेगा. हर शब्द value-loaded होता है value-free नहीं. इसलिए दैनंदिन व्यवहार में भी हमें शब्दों के चुनाव में हमेशा सजग रहना चाहिए. जैसे हम किसी बेटी को बेटा का "कम्प्लीमेंट" न दें या फिर लड़कों को भी बेटी का कम्प्लेमेंट दें. तबसे संगम पर यमुना-गंगा का काफी पानी मिल चुका है. मैं अपनी फेमेल स्टुडेंट्स से कहता हूँ कि वे भाग्यशाली हैं कि कुछ पीढ़ी बाद पैदा हुईं. हमारे छात्र काल से और अब तक नारी-चेतना/दावेदारी/बौद्धिकता और दलित-चटना/दावेदारी /बद्धिकता के क्षेत्रों में अभूत अग्रगामी-अभियान द्वंद्वात्मक परिवर्तन के नियमों की स्पष्ट पुष्टि करते हैं. परिवर्तन अभी तक क्रमिक और मात्रात्मक है जो निश्चित ही एक-न-एक दिन गुणात्मक क्रांतिकारी रूप लेगी और खत्म हो जायेंगे मर्दवाद और जातिवाद.
II
इन्साफ और बदले के भावना परस्पर-विरोधी हैं. बलात्कारी और अपराधी किसी दोसरे ग्रह से नहीं आते, इसी समाज से निकलते है. कोइ बलात्कार नहीं पैदा होता बल्कि ऐसी प्रवृतियाँ उसे समाजेरेकरण से मिलती हैं और हमारी शिक्षा में ज्ञान के लिए आवश्यक शर्त -- "गृहीत ज्ञान" को वुनौती और विवेक-जानी तार्त्क्लिक ज्ञान की प्रतिस्थापना -- को पूरी लारने के कारकों को प्रोत्साझित करने की बजाय हतोत्साहित किया जाता है. हर क्षेत्र में नारी प्रतिभा से मात खाने और नारी शिक्षा और दावेदारी के सशक्त अभुहियाँ से के बाद नमर्दवादी सामाजिक मूल्यों के लम्बरदार बौखला गए हैं. विज्ञापनों एवं मीडिया के माध्यम से  उन्हें सिर्फ जिस्म शाबित करने में नाक्लाम, कायर कुत्तों की तरह झुण्ड में हमला करना और बर्बर यौन न्हामला इस मानसिकता की चरम परिणति है. मर्दवादी अहंकार-जानी इस विकृति मानसिकता  के विरुद्ध लंबी वैचारिक लड़ाई लडनी है.  [२१.१२.१२]

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