Sunday, May 27, 2012
नेताजी
हमारा पालन-पोषण और शिक्षा हमें आविष्कार नहीं अनुगमन की सीख देते हैं और हमारी आलोचनात्मक प्रवृत्तियों को कुंद करते हैं. हम अपने महापुरुषों (ऐतिहासिक और मिथकीय दोनों) के प्रति भक्ति-भाव से देखते हैं और उनकी आलोचना के अनभ्यस्त हो जाते हैं. १९९२ में एक टेलीविजन पर मोरारजी का एम्.जे.अकबर द्वारा एक लाइव इंटरविव आ रहा था. अकबर ने पूंछा क्या बोस बेहतर प्रधान मंत्री होते? मोरारजी ने कहा कि नेहरू पूरे जनतांत्रिक थे हो सकता है सुभाष बोस बुरे फासीवादी साबित होते. मैंने मोरारजी से सहमति जाहिर किया तो मेरी एक बंगाली मित्र ने काफी दिन मुझसे बोलना ही छोड़ दिया. मेरा सुभाष बाबू से कोएई विरोध नहीं है वे महापुरुष हैं स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान को कौन नकार सकता है? दो बार कांग्रेस अध्यक्ष बने, एक बार तो गांधीजी के विरोध के बावजूद. लेकिन पन्त प्रस्ताव के जरिये वे गांधी की सलाह के बिना कार्यकारिणी ही नहीं गठित कर सकते थे और गाँधी ने कहा वे तो कांग्रेस सदस्य ही नहीं थे. सवाल यह है कि जिस अखिल भारतीय कांग्रेस ने उन्हें गांधी के विरोध के बावजूद जिताया था उसी ने उनके विरुद्ध पन्त प्रस्ताव भरी बहुमत से कैसे पारित हो गया?क्योंकि जिस कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के समर्तन से जीते थे उसने बाद वाले मतदान में हिस्सा नहीं लिया. गांधी केसाथ अपनी लड़ाई से भागकर हिटलर की गोद में बैठ गए? इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति और इतने बड़े जन-नेता १९२० के दशक से त्राहि-त्राहि मचा रहे फासीवाद के चरित्र का ज्ञान नहीं था? विश्वयुद्ध का परिणाम और होता तो १९४७ कब आता क्या पता? विश्वयुद्ध की एक राजनैतिक व्याख्या के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत करने की बजाय हिटलर की छात्र-छया में खून के बदले आज़ादी की दूकान खोल दिया. नेताजी का त्याग महान है लेकिन आलोचना से परे नहीं.
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क्या बात है!!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 28-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-893 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
शुक्रिया
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