Friday, May 4, 2012
मर्दवाद
वादों से मुक्ति के दावे खतरनाक वाद होते हैं. नस्लवाद; साम्प्रदायिकता; जातिवाद; .. की ही तरह, पित्रिसतामकता, यानि जेंडर , यानि मर्दवाद न तो जीववैज्ञानिक/जैविक प्रवृत्ति है और न ही "पाई=२२/७" की तरह का सास्वत विचार जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक चलती आई है. मर्दवाद कोई विचार नहीं बल्कि विचारधारा है जो हमारे रोजमर्रा के व्यवहार और आचार से निर्मित और पुनर्निर्मित होती है और शोषक तथा शोषित दोनों को प्रभावित करती है. हम लड़की को बेटा कहकर शाबाशी देते हैं और वह बालिका भी इसे शाबाशी के ही रूप में लेती है. अब बिना कहे कह दिया जाता है कि लड़का होना खास बात है. मुझे अब तक इसलिए याद है कि बहुत दिनों तक गाँव के लड़के-लडकियां चिढाते थे. मेरा मुंडन पांचवें साल में हुआ था. लंबे बालों के चलते अक्सर अपरिचित लोग बेटी बुला देते थे. एक बार इतना गुस्सा आया कि मैने प्रमाण के साथ बता दिया कि बेटा हूँ. अब ५ साल से कम के बच्चे को किसने बताया कि बेटी होना बुरी बात है? विचारधारा अपने को मिथकों, रहस्यों, वर्जनाओं और पाप-पुन्य के पाखण्ड, पूर्वाग्रहों/दुराग्रहों के जरिए स्थापित और मजबूत करती है. यह वर्चस्वशाली के पक्ष में शब्द और मुहावरे गढती है और उन्हें मूल्यपरक अर्थ देती है. इसीलिये हमें अपने शब्दों के चुनाव और भाव में सजग रहना चाहिए.
जब भी हम महिला-पुरुष सहकर्मियों/मित्रों से आर्थिक और सैद्धांतिक समानता के बावजूद महिलाओं की दुहरी, "बीबी" की भूमिका के मामले में अक्सर कोई भौतिक दबाव नहीं होता, विचारधारात्मक दबाव बहुत प्रभावी होता है और इसे तोड़ने के लिए कठिन आत्मसंघर्ष और सामाजिक संघर्ष की द्व्द्वात्मक एकता की जरूरत है.
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सामयिक और सशक्त आलेख...बहुत-बहुत बधाई
ReplyDeleteमिश्र जी आप टिप्पणी से वर्ड वेरीफ़िकेशन हटा दें प्लीज...टिप्पणी करने में असुविधा हो रही है
ReplyDeletekya kara padega?
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