Sunday, May 27, 2012

यथार्थ

भोगा हुआ यथार्थ देख-पढ़-समझ के आधार पर विचारित यथार्थ से ज्यादा प्रामाणिक होता है. किन्तु जरूरी नहीं है कि भुक्त-भोगी की अभिव्यक्ति भी उतनी ही प्रामाणिक हो क्योंकि चेतना के विकास में यथास्थिति (इस सन्दर्भ में पितृसत्ता, जिसे मैं मर्दवाद कहता हूँ)की विचारधारा के प्रभाव और स्थापित सामाजिक मूल्यों के दबाव की भी भूमिका होती है. मैं अपनी फिमेल स्टुडेंट्स को कहता हूँ कि you are lucky to be born couple of generations latter. the freedom and rights you are enjoying is product of past protracted women' movements as you don't get anything for free. In fact this post was intended to complement you and others who have retained their pre-marriage identity along with new one. Law of dialectics is continuous, evolutionary quantitative changes maturing into revolutionary qualitative changes. Most visible example of evolutionary quantitative changes can be witnessed in the realms of Dalit assertion and scholarship and feminist assertion and scholarship b/w my student generation and the present. Nripendra Singh will testify. 1987 में मैंने एक शोध-लेख लिखा "Women's question in Communal Ideolgies" जितने पत्र आये उनमें से ज्यादातर में Dear Ms Misshra संबोधित किया गया था. कहने का मतलब नारीवादी होने के लिए नारी होना उसी तरह जरूरी नहीं है जिस तरह मर्दवादी मूल्यों की हिमायत के लिए पुरुष होना नहीं. इसे अन्यथा न लें लेकिन अनजाने में ही सही, शादी के बाद पति का सरनेम धारण कर लेना उसी तरह मर्दवादी विचारधारा के समक्ष सैद्धांतिक समर्पण है जिस तरह अनजाने में बेटी को बेटा कहकर मर्दवादी मूल्यों का पोषण. किसी बेटे को बेटी कहकर दिखाइए? किसी को मेरी बात बुरी लगे दो टूक कहिये. भोजपुरी में कहावत है, पते में कौन ठकुरई.

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