इक्कीसवीं सदी की लड़की
मैं इक्कीसवीं सदी की मूर्ति-भंजक लड़की हूँ
रोज-रोज तोडती हूँ “लड़की” की मूर्तिया
चकनाचूर हो जाती हैं वे हथौड़े के एक ही प्रहार से
क्योंकि छल किया है लड़की के साथ
उस बहुरूपिये खुदा के मर्दवादी मूर्तिकारों ने
दिखा दिया है उसे प्रणय-पूजा के भाव मे
बैठा दिया है बेपतवार की नाव में
सीख लिया है मैंने बेपतवार नाव खेना
अभी नाव मझधार में ही हैबना लिया है हाथों को पतवार हमने
बदल ही दूंगी हवा का रुख
खोजूंगी नया किनारा
गूंजेगा जहाँ समानता का अनूठा नारा
हम लडकियां अपनी मूर्तिया खुद गढ़ने लगी हैं
जो तोडती हैं सारी वर्जनाएं
बेझिझक गोते खाती है वर्जित जलाशय में
तोड़ती ही नहीं खाती भी है वर्जित फल
निशाना असम्भव पर साधती है
और साबित करती है
असंभव की काल्पनिकता
हमारे हाथ में श्रृंगार की डिबिया नहीं
कलम और बन्दूक होती है
यह लडकी काफी नहीं बनाती
क्रान्ति करती है
[इमि/३१.०५.२०१२]