Thursday, May 31, 2012

इक्कीसवीं सदी की लड़की

इक्कीसवीं सदी की लड़की
मैं इक्कीसवीं सदी की मूर्ति-भंजक लड़की हूँ
 रोज-रोज तोडती हूँ “लड़की” की मूर्तिया
 चकनाचूर हो जाती हैं वे हथौड़े के एक ही प्रहार से
 क्योंकि छल किया है लड़की के साथ 
उस बहुरूपिये खुदा के मर्दवादी मूर्तिकारों ने
दिखा दिया है उसे प्रणय-पूजा के भाव मे
बैठा दिया है बेपतवार की नाव में
 सीख लिया है मैंने बेपतवार नाव खेना
                 अभी नाव मझधार में ही है
                बना लिया है हाथों को पतवार हमने
बदल ही दूंगी हवा का रुख 

खोजूंगी नया किनारा
गूंजेगा जहाँ समानता का अनूठा नारा

हम लडकियां अपनी मूर्तिया खुद गढ़ने लगी हैं
 जो तोडती हैं सारी वर्जनाएं
 बेझिझक गोते खाती है वर्जित जलाशय में
तोड़ती ही नहीं खाती भी है वर्जित फ
 निशाना असम्भव पर साधती है
और साबित करती है
 असंभव की काल्पनिकता
हमारे हाथ में श्रृंगार की डिबिया नहीं 
 कलम और बन्दूक होती है
 यह लडकी काफी नहीं बनाती
 क्रान्ति करती है
[इमि/३१.०५.२०१२]

ईमानदार

किसी और पोस्ट पर किसी ने कहा ईमानदार रहना बहुत मुश्किल काम है. उस पर अपनी टिप्पणी यहाँ चेंप रहाहूँ. ईमानदार बनना बेईमानी से बहुत ज्यादा आसान और आनंददायी. लोग मूर्ख और अभागे हैं जो ईमानदारी के सुख और नैतिक बल से अपने को वंचित रखते हैं. और जिनकी बेईमानी से देश पर भयानक दुष्परिणाम होता है, देश के क्रीम समझे जाने वाले (प्रोफ़ेसर/आईएएस/आईपीएस आदि) ये दुर्वुद्धि के मूर्ती मुफ्त में बिकते हैं और जितनी बार बिकते/गिरते हैं अपनी आत्मा को अंशतः मारते हैं और अंत में खोखले कृपा-पात्र बनकर पैसे और ताकत के गुमान में दयनीय ज़िंदगी जीते हैं. इतना वेतन-भत्ता-पेंसन मिलती है कि इस जीवन के लिए उन्हें हराम की आमदनी की आवश्यता नहीं होती. अब नाल्को का निदेशक, श्रीवास्तव जो बीबी के साथ जेल की सोभा बढ़ा रहा है, नहीं भी पकड़ा जाता तो भी वह कमीना सोने के बिस्कुट तो बैंक के लाकर में ही रख कर मरता. या म.प्र. कैडर के जो आईएएस पति-पत्नी करोड़ों रूपये बिस्तर के नीचे रखकर तनाव में रात बिताते थे, वे टुच्चे नहीं भी पकडे जाते तो देश भर में फ़ैली अपनी जमीनें तो यहीं छोड़ जाते. पूंजीवाद भ्रम पैदा कर्ता है कि कोई भी पूंजी-संचय कर सकता है जब कि सत्य यह है कि केवल पूंजी पति ही संचय कर सकता है. अफसर और वुद्धिजीवी खुद को बेंचकर कीमत वापस पूंजीपति को दे देते हैं जो निवेश करता है और और नेता-अफसर-वुद्धिजीवी खरीदता है जो फिर वापस उसे ही देते हैं और अपार संपत्ति के स्वामित्व के भ्रम जीते रहते हैं. हराम और लूट का पैसा ये अभागे शेयर/बांड/फिक्स्ड डिपाजिट/बीमा/जमीन/हवाला आदि में निवेश कर पूंजीपति को वापस कर देते हैं. बाजीराम जैसे कोचिंग इम्तहान में नंबर पाना सिखाते हैं, नैतिक प्राणी बनना नहीं. यदि नैतिक और भ्रष्ट ज़िंदगी के + और - का आत्म-हित के ही परिप्रेक्ष्य से विवेकपूर्ण हिसाब लगाएं तो पायेंगे कि नैतिकता की तरफ ज्यादा + हैं.

Wednesday, May 30, 2012

बेटी

बेटी
 ये जो आसमान की परी है
बारूद से भरी है
बजायेगी इन्किलाब का बिगुल
 चकित माँ-बाप को गज़ब लगेगा बच्ची का शगुल
होगी जब लाल फरारे की अगली क़तार में
माँ-बाप ने सोचा भी नहीं ऐसा कल्पना के रफ्तार में

कलम का डर

कलम का डर 

 कलम अब और नहीं चुप
 रात को रात कहो धूप को धूप
बोलोगे गर सेठ जयप्रकाश के खिलाफ
चिदाम्बरम की वर्दियां नहीं करेंगी माफ
करोगे गर मनमोहन के गौहाटी के महल की बात
 समझा जाएगा इसे कलम का खुराफात
विश्व बैंक का कारिन्दा
हो सकता है किसी भी राज्य का बासिन्दा
लेकिन कलम रहेगा मौन
बोलेगा फिर कौन?
 होगा कलम जब मुखर
 सुनाई देगा हर जगह विद्रोह का स्वर
 नहीं होगा तब लोगों में वर्दियों का खौफ
कलम हो जाएगा जब बेख़ौफ़
काँपेगा वर्दियों का मालिक थर-थर
 करदेगा कलम जब आवाम को निडर.
[ईमि/३०.५.२०१२]

Monday, May 28, 2012

गम-ए-जहाँ

बरसात बेदर्द ही होगा
अगर पीते रहेंगे आकर पपीहे के कहने में
गर तसव्वुर-ए-इश्क ही हो मजिल
 जियेंगे गम-ए-गर्दिश में
 गम-ए-हुस्न है वहम-ए-दिल
 ज़िंदगी है तसव्वुर-ए-जहां में
सारी उम्र काट दी
 किसी मायावी माशूका के परवाज-ए-ख्वाब में
 ज़िंदा रखते कुछ ख्वाब-ए-इन्किलाब,
 दर्ज होते जमाने की तारीख में
क्या बात! इश्क हो जो सारे जहां से
माशूका का इश्क भी हो शामिल जिसमें

Sunday, May 27, 2012

नेताजी

हमारा पालन-पोषण और शिक्षा हमें आविष्कार नहीं अनुगमन की सीख देते हैं और हमारी आलोचनात्मक प्रवृत्तियों को कुंद करते हैं. हम अपने महापुरुषों (ऐतिहासिक और मिथकीय दोनों) के प्रति भक्ति-भाव से देखते हैं और उनकी आलोचना के अनभ्यस्त हो जाते हैं. १९९२ में एक टेलीविजन पर मोरारजी का एम्.जे.अकबर द्वारा एक लाइव इंटरविव आ रहा था. अकबर ने पूंछा क्या बोस बेहतर प्रधान मंत्री होते? मोरारजी ने कहा कि नेहरू पूरे जनतांत्रिक थे हो सकता है सुभाष बोस बुरे फासीवादी साबित होते. मैंने मोरारजी से सहमति जाहिर किया तो मेरी एक बंगाली मित्र ने काफी दिन मुझसे बोलना ही छोड़ दिया. मेरा सुभाष बाबू से कोएई विरोध नहीं है वे महापुरुष हैं स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान को कौन नकार सकता है? दो बार कांग्रेस अध्यक्ष बने, एक बार तो गांधीजी के विरोध के बावजूद. लेकिन पन्त प्रस्ताव के जरिये वे गांधी की सलाह के बिना कार्यकारिणी ही नहीं गठित कर सकते थे और गाँधी ने कहा वे तो कांग्रेस सदस्य ही नहीं थे. सवाल यह है कि जिस अखिल भारतीय कांग्रेस ने उन्हें गांधी के विरोध के बावजूद जिताया था उसी ने उनके विरुद्ध पन्त प्रस्ताव भरी बहुमत से कैसे पारित हो गया?क्योंकि जिस कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के समर्तन से जीते थे उसने बाद वाले मतदान में हिस्सा नहीं लिया. गांधी केसाथ अपनी लड़ाई से भागकर हिटलर की गोद में बैठ गए? इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति और इतने बड़े जन-नेता १९२० के दशक से त्राहि-त्राहि मचा रहे फासीवाद के चरित्र का ज्ञान नहीं था? विश्वयुद्ध का परिणाम और होता तो १९४७ कब आता क्या पता? विश्वयुद्ध की एक राजनैतिक व्याख्या के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत करने की बजाय हिटलर की छात्र-छया में खून के बदले आज़ादी की दूकान खोल दिया. नेताजी का त्याग महान है लेकिन आलोचना से परे नहीं.

यथार्थ

भोगा हुआ यथार्थ देख-पढ़-समझ के आधार पर विचारित यथार्थ से ज्यादा प्रामाणिक होता है. किन्तु जरूरी नहीं है कि भुक्त-भोगी की अभिव्यक्ति भी उतनी ही प्रामाणिक हो क्योंकि चेतना के विकास में यथास्थिति (इस सन्दर्भ में पितृसत्ता, जिसे मैं मर्दवाद कहता हूँ)की विचारधारा के प्रभाव और स्थापित सामाजिक मूल्यों के दबाव की भी भूमिका होती है. मैं अपनी फिमेल स्टुडेंट्स को कहता हूँ कि you are lucky to be born couple of generations latter. the freedom and rights you are enjoying is product of past protracted women' movements as you don't get anything for free. In fact this post was intended to complement you and others who have retained their pre-marriage identity along with new one. Law of dialectics is continuous, evolutionary quantitative changes maturing into revolutionary qualitative changes. Most visible example of evolutionary quantitative changes can be witnessed in the realms of Dalit assertion and scholarship and feminist assertion and scholarship b/w my student generation and the present. Nripendra Singh will testify. 1987 में मैंने एक शोध-लेख लिखा "Women's question in Communal Ideolgies" जितने पत्र आये उनमें से ज्यादातर में Dear Ms Misshra संबोधित किया गया था. कहने का मतलब नारीवादी होने के लिए नारी होना उसी तरह जरूरी नहीं है जिस तरह मर्दवादी मूल्यों की हिमायत के लिए पुरुष होना नहीं. इसे अन्यथा न लें लेकिन अनजाने में ही सही, शादी के बाद पति का सरनेम धारण कर लेना उसी तरह मर्दवादी विचारधारा के समक्ष सैद्धांतिक समर्पण है जिस तरह अनजाने में बेटी को बेटा कहकर मर्दवादी मूल्यों का पोषण. किसी बेटे को बेटी कहकर दिखाइए? किसी को मेरी बात बुरी लगे दो टूक कहिये. भोजपुरी में कहावत है, पते में कौन ठकुरई.

Friday, May 25, 2012

सन्नाटा

सन्नाटा
 कई बार सन्नाटे तूफ़ान का आगाज नहीं करते
फैले हुए वीरान को नाराज़ नहीं करते
किन्तु साश्वत कुछ भी नहीं परिवर्तन के सिवा
 प्राचीन ज़माने में था यूनानी, हेराक्लिटस ने कहा
 जिसका भी है वजूद है उसका अंत भी है निश्चित
होगा मुखर चौराहा, सन्नाटे को कहेगा इति. (क्या तुकबंदी है? सर्वाधिकार सार्वजनिक)

Thursday, May 24, 2012

मोंटेक

हिन्दू में साईंनाथ का लेख है जिसमें शहर में ६६ रूपया(संशोधित) की कमाई वाले को गरीबी रेखा से ऊपर बताने वाले मोंटेक की विदेश(प्रायः अमेरिका जहां उनके आका रहते हैं) यात्राओं पर दूतावास योजना आयोग पर जो भी खर्च करता है उसके अलावा भारत सरकार २.०२ लाख रूपये प्रति-दिन खर्च करती है और २००८-१० के बीच वे २७४ दिन यानि हर नवें दिन वे विदेश यात्रा पर थे. भारत का योजना आयोग अमेरिका में इतने पैसे खर्च करके क्या योजनाएं बनाता है कि रूपये की कीमत भारत के विश्व शक्ति बनने के साथ-साथ घटता जाता है. मोंटेक आहलूवालिया जब भूमंडीकरण के साथ साथ वित्त-व्यवस्था के शीर्ष पर पहुंचे तो डालर की कीमत बढ़ कर २० रूपये थी और देश की तरक्की के साथ उसकी रुपये में कीमत बढ़ती रही और अब ५५-५६ रूपये है. १९८४-८५ में डालर की कीमत १० रूपये से कम थी. भूमंडलीकरण के साथ जब से अमेरिकी वर्चस्व की दलाली शुरू हुई तब से केन्द्र की विभिन्न सरकारों में वही फर्क रहा है जो मोंटेक सिंह आलूवालिया, मोंटेक सिंह आलूवालिया और मोंटेक सिंह आहलूवालिया में है. पेट्रोल की कीमतें आर्थिक वाध्यताओं के चलते नहीं बल्कि हिन्दुस्तानी शासकों की साम्राज्यवादी दलाली की प्रतिबद्धताओं के चलते बढ़ रहा है.

Wednesday, May 23, 2012

Democracy

The representative democracy that despite the claims of representing the people represents the interest of only capital, which is global in the sense that it is no more geocentric either in terms of source or investment, is a bastard system, it never does what it says and never says what it does. It allows freedom to thought and expression; to organize and protest as long as it does not substantially matter for the corporate plunder and accumulation jeopardizing the life of and on the earth. As soon as it begins to matter as in case of Quebec students, it comes in its true face by using "extra-ordinary" laws to deal with the "exceptional" situation by suspending the Constitutional rights and resorting to brute force and legal harassment. "patriotism is the last resort of scoundrels. PATRIOT of US made any dissent impossible. The horror stories of McCarthyism are well known. Scientists, the Rosenberg couple of Manhattan fame had to sit on 'sing-sing' chair despite protracted campaign by the leading intellectuals including Einstein. Einstein himself was spied upon by FBI. In India under UAPA and other such draconian "extra ordinary" laws many have lost lives and many languishing behind the bars. Dr. Vinayak Sen could get out of jail only after protracted campaigns world over in real and virtual spaces. It is to plead with the world's workers collective to organise themselves as class for itself. Peoples' democracy is the only solution.

Sunday, May 13, 2012

Freedom

One must be known for what one is/ But in society of haves and haves-not/ Of domination and subordination/ Of unearned luxury and wage slavery/ The society is unfree and hence the trades/ The one and its trade exist not in a vacuum / At the birth, one enters into relations with others/ Independent of oneself, independent of one's will/ One wants to look what one is not / As a vagabond philosopher has rightly said/ One is born free but is everywhere in chains/ To be free with a free trade/ One can liberate the self by liberating the collective/ No-one can be free in an unfree society.

Friday, May 4, 2012

मर्दवाद

वादों से मुक्ति के दावे खतरनाक वाद होते हैं. नस्लवाद; साम्प्रदायिकता; जातिवाद; .. की ही तरह, पित्रिसतामकता, यानि जेंडर , यानि मर्दवाद न तो जीववैज्ञानिक/जैविक प्रवृत्ति है और न ही "पाई=२२/७" की तरह का सास्वत विचार जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक चलती आई है. मर्दवाद कोई विचार नहीं बल्कि विचारधारा है जो हमारे रोजमर्रा के व्यवहार और आचार से निर्मित और पुनर्निर्मित होती है और शोषक तथा शोषित दोनों को प्रभावित करती है. हम लड़की को बेटा कहकर शाबाशी देते हैं और वह बालिका भी इसे शाबाशी के ही रूप में लेती है. अब बिना कहे कह दिया जाता है कि लड़का होना खास बात है. मुझे अब तक इसलिए याद है कि बहुत दिनों तक गाँव के लड़के-लडकियां चिढाते थे. मेरा मुंडन पांचवें साल में हुआ था. लंबे बालों के चलते अक्सर अपरिचित लोग बेटी बुला देते थे. एक बार इतना गुस्सा आया कि मैने प्रमाण के साथ बता दिया कि बेटा हूँ. अब ५ साल से कम के बच्चे को किसने बताया कि बेटी होना बुरी बात है? विचारधारा अपने को मिथकों, रहस्यों, वर्जनाओं और पाप-पुन्य के पाखण्ड, पूर्वाग्रहों/दुराग्रहों के जरिए स्थापित और मजबूत करती है. यह वर्चस्वशाली के पक्ष में शब्द और मुहावरे गढती है और उन्हें मूल्यपरक अर्थ देती है. इसीलिये हमें अपने शब्दों के चुनाव और भाव में सजग रहना चाहिए. जब भी हम महिला-पुरुष सहकर्मियों/मित्रों से आर्थिक और सैद्धांतिक समानता के बावजूद महिलाओं की दुहरी, "बीबी" की भूमिका के मामले में अक्सर कोई भौतिक दबाव नहीं होता, विचारधारात्मक दबाव बहुत प्रभावी होता है और इसे तोड़ने के लिए कठिन आत्मसंघर्ष और सामाजिक संघर्ष की द्व्द्वात्मक एकता की जरूरत है.

नारी विमर्श 1

I
मैं तो नारीवादी हूँ और हमें व्यवहार में भी नारी-विरोधी और नैसर्गिक क्रियाओं की अवमानना वाली गालियों की जगह नई गालियों का ईजाद कारना चाहिए. तब तक चीकट/चिरकुट/टुच्चा जैसी सेकुलर गालियों से काम चलाया जाय.यदि सेक्सुअलिटी की मर्दवादी अवधारणाओं से मुक्त होकर लिंग भेदभाव से मुक्त एक जनतांत्रिक संस्कृति और भाषा का निर्माण करें तो अंदर-बहार का झंझट खत्म हो जायेगा. हर शब्द value-loaded होता है value-free नहीं. इसलिए दैनंदिन व्यवहार में भी हमें शब्दों के चुनाव में हमेशा सजग रहना चाहिए. जैसे हम किसी बेटी को बेटा का "कम्प्लीमेंट" न दें या फिर लड़कों को भी बेटी का कम्प्लेमेंट दें. तबसे संगम पर यमुना-गंगा का काफी पानी मिल चुका है. मैं अपनी फेमेल स्टुडेंट्स से कहता हूँ कि वे भाग्यशाली हैं कि कुछ पीढ़ी बाद पैदा हुईं. हमारे छात्र काल से और अब तक नारी-चेतना/दावेदारी/बौद्धिकता और दलित-चटना/दावेदारी /बद्धिकता के क्षेत्रों में अभूत अग्रगामी-अभियान द्वंद्वात्मक परिवर्तन के नियमों की स्पष्ट पुष्टि करते हैं. परिवर्तन अभी तक क्रमिक और मात्रात्मक है जो निश्चित ही एक-न-एक दिन गुणात्मक क्रांतिकारी रूप लेगी और खत्म हो जायेंगे मर्दवाद और जातिवाद.
II
इन्साफ और बदले के भावना परस्पर-विरोधी हैं. बलात्कारी और अपराधी किसी दोसरे ग्रह से नहीं आते, इसी समाज से निकलते है. कोइ बलात्कार नहीं पैदा होता बल्कि ऐसी प्रवृतियाँ उसे समाजेरेकरण से मिलती हैं और हमारी शिक्षा में ज्ञान के लिए आवश्यक शर्त -- "गृहीत ज्ञान" को वुनौती और विवेक-जानी तार्त्क्लिक ज्ञान की प्रतिस्थापना -- को पूरी लारने के कारकों को प्रोत्साझित करने की बजाय हतोत्साहित किया जाता है. हर क्षेत्र में नारी प्रतिभा से मात खाने और नारी शिक्षा और दावेदारी के सशक्त अभुहियाँ से के बाद नमर्दवादी सामाजिक मूल्यों के लम्बरदार बौखला गए हैं. विज्ञापनों एवं मीडिया के माध्यम से  उन्हें सिर्फ जिस्म शाबित करने में नाक्लाम, कायर कुत्तों की तरह झुण्ड में हमला करना और बर्बर यौन न्हामला इस मानसिकता की चरम परिणति है. मर्दवादी अहंकार-जानी इस विकृति मानसिकता  के विरुद्ध लंबी वैचारिक लड़ाई लडनी है.  [२१.१२.१२]

Thursday, May 3, 2012

राष्ट्रपति

कोई भी राष्ट्रपति बने ज्यादा उम्मीद यही है कि कठपुतली ही रहेगा.ज्ञानी जी जब राष्ट्रपति बने थे तो जे.एन.यू. में मूर्ख राष्ट्रपति की आवश्यकता पर चुटकुला प्रचलित हुआ था, VICTOR 45 वाला. करते वही सब हैं, ज्ञानी जी शरीफ थे कह भी दिए कि वे तो गांधी-नेहरू परिवार में झाडू लगाकर भी खुश रहेंगे. राज्य सभा राज सभा बन गयी है. ग्रेग चैपल ने क्रिकेट के सम्बन्ध में भारतीयों की चिन्तन प्रणाली पर बहुत सटीक कमेन्ट किया. उन्होंने कहा कि भारतीयों में आमतौर पर नेतृत्व क्षमता का अव्हाव होता है क्योंकि उनके बदले सोचने और निर्णय लेने का काम उनके माँ-बाप और शिक्षक करते हैं. इसकी सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति राजनीति में दिखती है. बहुमत दल के विधायक नहीं आलाकमान मुख्य मंत्री का चुनाव करता है क्योंकि विधायक का अपना विवेक नहीं होता उसके बदलव सोचने का काम १० जनपथ या नागपुर करता है. विधायक और सांसद जर-खरीद गुलाम दीखते हैं. अभी तक जितने भी राष्ट्रपति हुए हैं, डाक्टर के.आर.नारायण को छोड़कर, सभी कठपुतली हुए हैं. आपातकाल पर दस्तखत करने वाले राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद की गुसलखाने में गिरकर मौत आज भी रहस्य बनी हुई है.

साथी धीरेन्द्र को श्रद्धांजलि.

साथी धीरेन्द्र को श्रद्धांजलि. धीरेन्द्र को जानने का मौक़ा तो तभी हुआ था जब वे छात्रसंघ के उपाध्यक्ष बने थे. इस सदी के शुरुआती किसी साल में पंचायतीराज पर एक कार्यशाला के सिलसिले में, हमलोग --वीरेंद्र सिंह, धीरेन्द्र मौ मैं -- ३-४ दिन की बनारस, राबर्ट्सगंज,दुद्धी की यात्रा पर साथ थे तब धीरेन्द्र को बेहतर जानने का मौक़ा मिला. धीरेन्द्र के एक अच्छे वक्ता थे जिनमें तार्किक बहस, संगठन और लामबंदी की क्षमता थी. हाल के दिनों में तो पीस के दफ्तर में कभी-कभार मुलाक़ात होती रहती थी. धीरेन्द्र के साथ परिस्थितियों और पार्टियों ने काफी नाइंसाफी किया. धीरेन्द्र उम्र में मुझसे छोटे थे और अपने से छोटे किसी आत्मीय का इस तरह अचानक न रहना कितना दुखदायी है हम सब जानते हैं. साथी धीरेन्द्र को लाल सलाम.

Tuesday, May 1, 2012

मई दिवस को लाल सलाम

मई दिवस पर कलम की याद
ईश मिश्र

 क्या सोच कर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो,
इस तरह तो ,कुछ और निखर जायेगी आवाज़

 थम नहीं सकता अब यह विप्लवी राग,/ तोड़ तो चाहे तो सारे सामान-ओ-साज़./ बिगुल बजाया था शिकागो के कामगारों ने/ रूस तक जल्दी ही पहुँच गयी उनकी आवाज़/ देख हथियारबंद मजदूर दस दिनों के विप्लव में / हिल गया था धरती पर सारे सरमायेदारों का राज/ चीन में फहरा जब लाल फरारा,दुश्मन हुआ बहुत ताराज/ लिखा उन्होंने जो लहू से अपने, इन्किलाब जिंदाबाद/ गूँज गयी दुनिया भर में जल्दी ही उनकी आवाज़// मई दिवस को लाल सलाम, इन्किलाब जिंदाबाद/ जिंदाबाद इन्किलाब, इन्किलाब जिंदाबाद.