Thursday, November 3, 2011

religious feelings

दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्वान उपकुलपति ने पता नहीं किस अंकगणित के ज्ञान से जान लिया कि इतिहासेतर विषय के विद्यार्थियों के लिए भारतीय संसकृतियों पर इतिहास के एक अंतर्विषयक (inter - disciplinry ), ऐक्षिक पाठ्यक्रम का एक पाठ बहुसंख्यक आबादी की धार्मिक भावनाओं को आहत करता है ( धार्मिक भाबवानाएं पता नहीं किस धातु की बनी होती हैं कि पता नहीं चलता किस बात से आहत हो जायेंगीं) और इतिहासकारों की राय लेने की बजाय चले गए सर्वोच्च नायालय कि राय लेने. न्यालोय ने कहा यह मामला विशेषज्ञों के समिति तय कर सकती है न्यायालय नहीं. कुलपति महोदय ने एक समिति बना दिया. समिति के ३ सदास्याओं ने इसे उचित ही नहीं वांछनीय बताया. चौथे सदस्य ने वांछनीयता और औचित्य की बात छोड़ कर इसकी जटिलता के आधार पर कि विद्यार्थी समझ नहीं पायेंगे और अध्यापक समझ नहीं पायेंगे, जैसे हास्यास्पद तर्क दिए. उल्लेखनीय है कि नये पाठ्यक्रम की रूप-रेखा विश्वविद्यालय के विभाग और कालेजों के शिक्षकों के बीच व्यापक विचार-विमर्श के बाद एक पाठ्यक्रम समिति आपस में विचार-विमर्श के बाद तैयार करती है. पाठ्यक्रम विषय के अध्यापकों की आमसभा द्वारा पारित होने के बाद ही लागू किया जाता है. इतिहास के अद्यापकों में ९०% से अधिक, जन्मना हिन्दू हैं. उनकी भावनाएं तो नहीं आहत हुई होंगी नहीं तो इसे क्यों स्वीकृति देते? कुलपति महोदय को कसे पता चला कि इस लेख को बी.ए. के विद्यार्थियों को पढ़ाने से हिन्दुओं की भावनाओं को चोट पहुँच रही है. २००७ से कुछ संघी शिक्षकों ने यह मुद्दा उठाना शुरू किया, वैचारिक दिवालियेपन के चलते २००८ में संघ के लम्पट ब्रिगेडों में से एक, अखिल विद्यार्थी परिषद्, के १५-२० लडके टीवी वालों के साथ विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में घुस गए और हुडदंग मचाना शुरू कर दिया और तत्कालीन अध्यक्ष प्रोफ़ेसर जाफरी और कुछ अन्य अध्यापकों के के साथ अभद्र भाषा में दुर्व्यहार तथा मारपीट- हाथापाई करने के बाद जाकर कुलपति से मिले. अगले दिन विश्वविद्यालय के इतिहास तथा अन्य विषयों के सैकड़ों अध्यापक और छात्र हिंसा और असभ्य-लम्पटता के विरुद्ध विश्वविद्यालय में रैली निकाला, सभा किया और कुलपति को ज्ञापन दिया जिसके परिणाम-स्वरुप लम्पटों ने स्वीकार किया कि उनका विरोध का तरीका गलत था. मैं भी उस विरोध प्रदर्शन में था और ज्यादातर प्रदर्शनकारी और लगभग सभी वक्ता नाम से कम-से-कम हिन्दू थे. ज़ाहिर है उनकी भावनाएं उस लेख से नहीं बल्कि संघी ब्रिगेड की जहालत और असहिष्णुता तथा लम्पटता से आहत हुई. [क्रमशः]

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