किसी ने पूछा, पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय में आपकी ही पेंसन क्यों रुकी हुई है? मैंने कहा नतमस्तक मसाज में सिर उठाकर जीना मंहगा शौक है। बचपन से ही इस शौक की आदत पड़ गयी। इस शौककी कीमत लगातार चुकाता़ रहा, यह भी उसी की किश्त है। नतमस्तक समाज में सिर उठा कर जीने के शौक की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है लेकिन अपनी शर्तों पर जीने का सुख भौतिक कष्टों पर भारी पड़ता है। सोचा था कि कम्यूटेसन के पैसों में से गांव में 2 कमरे बनवा लूंगा, कभी-कभार महीने-दो महीने का शहर से अवकाश लेने के लिए, लेकिन हवा को पीठ न देने के चुनाव में हवा के थपेड़ों से दो हाथ करना ही पड़ता है। हर सोचा काम पूरा नहीं होता। बहुत कुछ लिखने की सोचता हूं, लेकिन इसमें इस शौक का नहीं बौद्धिक आवारागर्दी और अनुशासनहीनता की भूमिका है।
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