आत्मालोचना का अभाव भारत का या यों कहें कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति लगती है। गांधी जी उपनिवेशवाद के कारणों के विश्लेषणों में भारतीयों को आगाह करते हैं कि यदि वे अपनिवेशवाद के कारण अपने अंदर न ढूंढ़कर बाहर ही ढूंढ़ते रहेंगे तो निदान नहीं खोज पाएंगे। आत्मालोचना ही बौद्धिक विकास की कुंजी है। मैं बचपन में सोचा करता था कि मेरे गांव में खेत-मजदूरी एवं अन्य श्रम के काम करने वाली एक अछूत जाति के लोग संख्या में सवर्णों से बहुत अधिक हैं तथा श्रम करने से, कहा जाता है, बल भी अधिक होता है तो 'स्वेच्छा' से इतना दबकर क्यों रहती हैं? तब तक सामाजिक चेतना के निर्माण में शासक वर्गों के विचारों की भूमिका और व्यक्तिगत या विशिष्ट समूह की सामूहिक चेतना पर सामाजिक चेतना के प्रभाव की बातें मालुम नहीं थीं। शिक्षा तथा अन्यान्य कारणों से पैदा दलित प्रज्ञा और दावेदारी के प्रभाव से उत्पन्न दलित चेतना का रुख जाति के विनाश की तरफ न होकर जवाबी जातिवाद की तरफ है। असमानता का निदान जवाबी असमानता नहीं, समानता है। मुझे लगता है कि जातीय अस्मिता की राजनीति अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुकी है, अब उसके जनवादीकरण की जरूरत है। मुझे लगता है कि अब जातीय अस्मिता की राजनीति धार्मिक अस्मिता की राजनीति (सांप्रदायिक फासीवाद) की ईंधन-पानी बन चुकी है। आत्मालोचना की प्रवृत्ति के अभाव में, सवर्ण जातियों का बड़ा हिस्सा भक्तिभाव से ग्रस्त है और प्रसाद की लालच एवं मिख्या चेतना के प्रभाव में शूद्र (ओबीसी-दलित) जातियों का उल्लेखनीय हिस्सा।
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