दिल्ली में 1984 में हम लोगों ने एक संगठन बनाया, 'सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन (एसवीए)', एक तुलसी विशेषज्ञ सिद्धांतकार बन गए जिन्होंने संगठन का प्रमुख नारा प्रस्तावित किया, 'कण-कण में व्यापे हैं राम, मत फैलाओ दंगा लेकर उनका नाम'। मैंने यह कह कर विरोध किया कि इसीलिए तो एक अपवित्र हो गए कण को भी हिंदुत्ववादी पवित्र करना चाहते हैं। दुश्मन के ही मैदान में उसीके हथियार से लड़ने में हार निश्चित है। खैर में अल्पमत में था। और राम के नाम से चल रहे सांप्रदायिक अभियान का राम के नाम से ही हम विरोध करते रहे। बाबरी विध्वंस के बाद एसवीए भी बिखर गया।
वैसे राम के नाम से शुरू सांप्रदायिक अभियान के जरिए भाजपा के राजनैतिक आरोहण में तत्कालीन कांग्रेस सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राजनैतिक स्वीकार्यता के लिए संघ की संसदीय शाखा जनसंघ का भाजपा में संक्रमणआक्रमक सांप्रदायिकता को गांधीवादी समाजवाद के आवरण में छिपाकर किया। 1984 के जनसंहार के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को मिले अभूतपूर्व बहुमत ने संघ के लंबरदारों को आक्रमक सांप्रदायिकता की रणनीति अपनाने को प्रेरित किया और उन्होंने सांप्रदायिक लामबंदी की धुरी के रूप में राम के नाम पर बाबरी विध्वंस को मुद्दा बनाया। राजनैतिक अनभिज्ञता के चलते राजीव गांधी ने प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता की रणनीति के तहत मस्जिद का ताला खुलवा दिया तथा राम चबूतरे के लिए जमीन का अधिग्रहण किया तथा अपने शासनकाल में मेरठ, मलियाना हाशिमपुरा होने दिया। दुश्मन के मैदान में उसी के हथियार से लड़ने में हार होनी ही थी। उसके बाद अडवाणी की रथयात्रा, उत्तर प्रदेश में कल्याण के नेतृत्व में भाजपा सरकार और उसकी देख-रेख में केंद्र की नरसिंह राव सरकार की परोक्ष मिलीभगत से बाबरी विध्वंस और दंगे तथा गुजरात नरसंहार के रथ पर भाजपा की भारत विजय की मुहिम इतिहास बन गए हैं। 1923 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने लिखा था कि जब तक धर्मांधता रहेगी, कुछ चतुर लोग लोगों को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे।
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