Sunday, April 2, 2023

मार्क्सवाद 284 (सांप्रदायिकता)

 1984-85 में सिखों के प्रति समाज में ऐसे ही पूर्वाग्रह व्याप्त थे जैसा आज मुसलमानों के प्रति। पंजाब में आतंकवाद इसलिए नहीं खत्म हुआ कि लोग सिखों को संदेह की नजर से देखते थे, उस संदेह से देश की आत्मा में जो जख्म लगे उनकी दाग अभी भी है। लोग नहीं ,मिथ्या सांप्रदायिक चेतना से ग्रस्त लोग ही हर सिख को संदेह की दृष्टि सो देखते थे जैसे आज सांप्रदायिक मिथ्याचेतना और पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से ग्रस्त लोग हर मुसलमान को संदेह की नजर से देखते हैं। वैज्ञानिक चेतना तथा मानवीय संवेदना से लैस लोग तब भी मानते थे कि आतंकवाद किसी समुदाय की जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है वे सिखों के खिलाफ दुष्प्रचार के विरुद्ध थे। उस समय भी लोगों के दिमाग में सांप्रदायिक जहर मीडिया और अफवाहों से भरा जा रहा था आज सोसल मीडिया ने सांप्रदायिक विषवमन की गति कई गुना बढ़ा दिया है। आतंकवाद इसलिए खत्म हुआ क्योंकि समाज का एक बड़ा गैर-सिख तपका सिखों के साथ खड़ा हुआ, 1984 के सिख नरसंहार के बाद हमलोगों ने दिल्ली में एक संगठन बनाया 'सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन' (एसवीए), जो एक दूसरे से अलग-थलग जेएनयू तथा दिल्ली विश्वविद्यालयों के सांप्रदायिकता विरोधी छात्र-शिक्षकों के बीच संपर्क मंच बना। बाद में जेएनयू के पढ़े जामिया के कुछ शिक्षकों की पहल से वहां के भी कई शिक्षक-छात्र जुड़े। दिवि के रामजस कॉलेज में उसके स्थापना सम्मेलन में 2,000 से अधिक शिक्षक-छात्र थे। यह संगठन 1992 तक सक्रिय रहा। आतंकवाद इसलिए खत्म हुआ कि आम सिखों में इसका समर्थन नहीं था, अकालीदल का भी बहुमत इसके विरुद्ध था। उसी तरह जैसे आज भी आम मुसलमान फिरकापरस्ती के खिलाफ है उसी तरह जैसे आम हिंदू। मिथ्या चेतना से ग्रस्त लोग समाम माध्यमों से जहालत फैला रहे हैं कि आम मुसलमान आतंकी तथा धर्मांध है, यह प्रवृत्ति सोसल मीडिया में बहुत अधिक है क्योंकि इसके मुखर लोगों में सांप्रदायिक मिथ्या चेतना से ग्रस्त सवर्ण पुरुषों का बहुमत है बाकी बहुसंख्या- आतंक से चुप करा दिया जाते हैं या हाशिए पर धकेल दिये जाते हैं। सांप्रदायिकता खत्म करने के लिए धर्म के आधार पर एक दूसरे के प्रति घृणा और संदेह नहीं, विश्वास और समानुभूति की आवश्यकता है।

03.04.2021

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