परशुराम पर विमर्श की एक पोस्ट पर मेरा एक कमेंट :
एक बालक के रूप में परशुराम नाम से मेरा परिचय राम लीला में लक्ष्मण-परशुराम संवाद में रामचरित मानस की पंक्तियों से हुआ था जिसमें लक्ष्मण परशुराम को ललकारते हैं कि इहां कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं जो तर्जनी देख मरि जाहीं...... । बड़ों के सम्मान के संस्कार वाले छोटे बालक को यह लक्ष्मण की धृष्टता लगी थी और मैंने रामलीला के आयोजक साधू भैया ने शंका समाधान यह कहकर किया कि शठे शाठ्यम समाचरेत यानि दुष्टों से दुष्टता से ही निपटना चाहिए। मतलब परशुराम और लक्ष्मणण का झगड़ा दो दुष्टों का झगड़ा था। मन लक्ष्मण को दुष्ट मानने को राजी नहीं हो रहा था, लेकिन साधू भैया की बात पर अविश्वास करने का भी मन नहीं हो रहा था। साधू भैया यानि सरयू प्रसाद, जो उम्र में तो पिताजी के वरिष्ठ समकालीन थे लेकिन पद में भाई लगते थे, अविवाहित थे और नदी के किनारे उस पार, कुंए के पास कुटी बनाए थे तथा साधुओं की तरह लुंगी स्टाइल में धोती पहनते थे और परशु लेकर चलते थे। साधू होने के नाते क्षेत्र के सम्मानित व्यक्ति थे। थोड़ा बड़े होकर कहीं पढ़ा कि पिता के आदेश पर परशुराम ने मां की हत्या कर दी थी और महाभारत में कर्ण के गुरु थे लेकिन जैसे ही पता चला कि कर्ण क्षत्रिय थे उन्हें शाप दे दिया। मन में त्रेता और द्वापर के बीच के अंतराल को लेकर उहापोह की स्थिति पैदा हुई थी। और बाद में पता चला कि हमारा इतिहासबोध ही नहीं मिथकीय है अपितु ऐतिहासिक कालनिर्धारण भी।
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