बुद्धिजीवी (साहित्यकार) कभी समाज को दिशा नहीं देता; वह न्याय-अन्याय नहीं पैदा करता बल्कि समाज की दिशा (उसमें मौजूद न्याय-अन्याय) पर प्रतिक्रिया देता है। जैसा कि कार्ल मार्क्स ने शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं और सामाजिक चेतना को आकार देते हैं। पारंपरिक (पेशेवर) बुद्धिजीवी तटस्थता और निष्पक्षता के आवरण में, प्रकारांतर से शासक वर्ग के विचारों दिवारा निर्धारित सामाजिक चेतना को औचित्य प्रदान करते हैं। शासक वर्गों से ही निकले जनवादी (शासित वर्ग के जैविक) बुद्धिजीवी समकालिक सामाजिक चेतना की आलोचना के माध्यम से सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की प्रक्रिया में योगदान करते हैं और शासित वर्ग को बदलाव का वैचारिक हथियार प्रदान करते हैं।
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