विश्वविद्यालयोंमें मठाधीशी बंद हो जाए तो शिक्षा का बहुत कल्याण होगा। मेरा नौकरी का दूसरा कोईन प्रिफरेंस ही नहीं था, 14 साल दिल्ली व अन्य विश्विविद्यालय/कॉलेजों में इंटरविव दिए और अंततः संयोगों के टकराव से मिल ही गयी। 1984 में इलाहाबादस विवि में मेरा संतोषप्रद इंटरविव 1 घंटा 28 मिनट चला था। बिल्कुल सही समय का पता बाहर बैठे लोगों से चला। मेरे निकलते ही एक ने कौतूहल भाव से कहा था, "बाप रे! एक घंटा अटाइस मिनट"? 6 पद थे और मैं इतना आशावान हो गया था कि सोचने लगा था कि गंगा पार विकसित हो रहे झूसी में घर लिया जाय़ कि गंगा के इसी पार तेलियरगंज या मंफोर्ड गंज में? करी डेढ़ साल बाद उससमय के वीसी, आरपी मिश्र से संयोग से कहीं मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि वे मेरे इंटरविव से इतने प्रभावित थे कि तमाम तर के बावजूद मेरा नाम पैनत में सातवें नंबर पर रखवा पाए। 6 पोस्ट थी तो 7वें पर रखते या 70वें पर क्या फर्क पड़ता। ऐसा हा 1987 में जामिया में हुआ, लंबा इंटरविव चला था। वहां आए आईआईपीए के एक एक्सपर्ट से कुछ दिनों बाद एक सेमिनार में मुलाकात हुई उन्होंने भी कहा कि मेरे इंटरविव से वे और वीली साहब बहुत प्रभावित हुए थे और वे मेरा नाम पैनल में चौथे नंबर पर रखवाने में सफल रहे थे। 3 पोस्ट थी तो चौथे पर रखते याचालीसवें पर क्या फर्क पड़ता।
समय मिला तो कभी इंटरविवों की एंथॉलॉजी लिखूंगा।
मुझसे जब कोई कहता कि मुझे देर से नौकरी मिली तो मैं कहता कि सवाल उल्टा है, मिल कैसे गयी?
मित्र Shahid Pervez ने पूछाहिंदू में नौकरी कैसे मिली तो संक्षेप में उन्हें यह जवाब दिया। विस्तार से फिर कभी। यह कमेंट भी यहां जोड़ दो रहा हूं।
लंबी कहानी है, अलग से लिखूंगा। संक्षेप में यह कि कलम की मजदूरी में इग्नू के लिए कुछ यूनिट (पाठ) लिखे थे और कुछ अनुवाद किए थे जो वहां के स़ोसल साइंस के डायरेक्टर, प्रोफेसर पांडव नायक को बहुत पसंद आया और उन्होंने एकेडमिक असोसिएट की नौकरी ऑफर कर दी। काम और वेतन लेक्चरर का था। 1989 में यूनिवर्सिटी ने नीतिगत फैसला ले लिया था कि औपचारिकताएं पूरी करके एकेडेमिक असोसिएट कैडर खत्म कर सबको लेक्चरर बना दिया जाएगा। इसी बीच हिंदू कॉलेज में गेस्ट लेक्चरर (लगभग 50/घंटा या ऐसा ही कुछ) का ऑफर मिला। मोटर साइकिल से सुबह पहला क्लास हिंदू में लेकर इग्नू (मैदान गढ़ी) जाता था। नवंबर 1989 में वहां इंटरविव में वाम-दक्षिण खेमों के दो गॉडफादरों के हितों के टकराव में एक साल के लिए मेरा हो गया। मूर्खता में मैं इग्नू छोड़कर हिंदू आ गया। साल भर बाद (1990) उन्ही दो गॉड फादरों के हितों के मिलाप ने वहां मेरी नौकरी खत्म कर दी और मैं फिर से कलम की मजदूरी से घर चलाने लगा। 1995 में फिर कई संयोगों के टकराव में मुझे फिर से हिंदू में नौकरी मिल गयी। इस पर विस्तार से कभी लिखूंगा, यह 6-7 पेजों के लेख को मैंने एक पैरा में समेट दिया। गॉडफादरों और उनकी गॉड औलादों के नाम के साथ लिखूंगा।
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