हम 12-13 साल के थे रात की पैसेंजर गाड़ी से आते थे, जौनपुर से चलने का समय तो 5.31 का था लेकिन 6.30 के पहले कभी आती नहीं थी। अपने (बिलवाई) स्टेसन पहुंचते पहुंचते 8 बज जाता था वहां से 7 मील दूर गांव। मेरे गांव और 3-4 किमी दूर कछरा के बीच कोई गांव नहीं था, अगल-बगल थे। कछरा तक कई और सहयात्री होते थे वहां से अकेले। गांव से छितुनिया बाबा तक एकाध तो छोटे-मोटे भूत रहते थे, उनकी तो ऐसी की तैसी। एक विशाल पेड़ (छीतुन) में छितुनिया बाबा रहते थे, वे रास्तानभुलवाने के विशेषज्ञ थे। डेबई बनिया घोड़ा लेकर 12-15 मील दूर भटक गए थे और इसी तरह की बहुत कहानियां प्रचलित थीं। अभी भी कुछ लोग जीवित हैं जिन्हें छितुनिया बाबा ने भैंसा या कुत्ता के रूप में गांव तक पहुंचाया था। मैं छितुनिया बाबा को गाली देकर कहता कि वह पंचपेड़वा दिख रहा है (एक-डेढ़ किमी पर 5 आमों की बाग) भुलवाओगे और देर रात घर पहुंच जाता और रात देर से आने की डांट खाता। जब मैं अपनी आदत से बाज नहीं आयातो डांटना बंद हो गया। तभी से मेरे दिमाग से भूत का भय खत्म हो गया। फिर तो रात-विरात भूतों के इलाकों से उन्हें गालियां देते आता-जाता। उसके 3-4 साल बाद भूत की ही तरह भगवान का भी भय खत्म हो गया। यदि भूत और भगवान का भय खत्म हो जाय तो आदमी निर्भय हो जाता है।
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