Saturday, April 22, 2023

लल्ला पुराण 324 (संस्कृति)

 कुछ लोग संस्कृति की दुहाई देते रहते हैं, जैसे राष्ट्रवाद की लेकिन पूछने पर बताते नहीं कि संस्कृति या राष्ट्रवाद है क्या? एक मित्र ने प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति पर तंज करते हुए संस्कृति पर बयान दिया, उस पर:


जी ज्ञान की उत्कंठा में सवाल पूछना मानव प्रकृति है क्योंकि किसी भी ज्ञान की कुंजी है सवाल-दर-सवाल। जी सनातन और राष्ट्रवाद लोग चल्लाते रहते हैं, जब भी सवाल पूछ कर उस पर गंभीरता से विमर्श का प्रयास किया जाता है, लोग भाग नहीं लेते। शिक्षा जगत की हर अवधारणा परिभाषा से शुरू होती है, आपने संस्कृति की हमारे-उनके की शब्दावली में फेंकने वाली शैली और चुनावी लोकलुभावन लहजे में में जो उंमादी व्याख्या की है वह सैकड़ों वर्षों की दूरी को पाटते हुए कबीर-नानक-गोरखनाथ का सत्संग कराकरभाव की, भक्ति वाहवाही भला दिला दे, ज्ञानवर्धन नहीं करती। गांधीजी पूरब-पश्चिम की नहीं प्राचीन-आधुनिक सभ्यता की बात करते हैं। इंगलैड में ही नहीं पूरी दुनिया में ही स्त्रियों ने सतत संघर्षों से अधिकार प्राप्त किए हैं, क्योंकि चंद मातृवंशक (मैट्रीलीनियल) जन जातियों को छोड़कर सभी समाज पितृसत्तात्मक रहे हैं। हमारे यहां उच्च वर्गों में पति की लाश के साथ पत्नी को जलाने की (सती प्रथा) रही है जिसके विरुद्ध ब्रह्मसमाज आंदोलन को पोंगापंथी विरोध को झेलते हुए कठिन संघर्ष करना पड़ा, जिसके अवशेष 1980 के दशक तक (देवराला कांड) अवतरित होते रहे। विधवाओं की दुर्दशा का इतिहास जगजाहिर है। इंग्लैंड और यूरोप में 19वीं शदी से शुरू सतत नारी आंदोलनों के चलते ही उन्हें शिक्षा, काम और नागरिकता का अधिकार मिला। 1980 के शुरुआती दशक में मुझे अपनी बहन के पढ़ने के अधिकार के लिए लड़ना पड़ा था, स्त्री-प्रज्ञा और दावेदारी के सतत संघर्ष के ही चलते आज किसी बाप की औकात नहीं कि सार्वजनिक रूप से बेटा-बेटी में भेद करने की बात करे, एक बेटे के लिए 4-5 बेटियां भले ही पैदा कर ले। पशु-पक्षियों समेत सभी समाजों में, पारस्परिक सहयोग की प्रवृत्तिया रहीं हैं जिनका ब्रह्मांड और प्रकृति की द्वंद्वात्मक प्रवृत्ति से कोई अंतर्विरोध नहीं है। द्ंद्वात्मक एकता से सामंजस्य पैदा होता है। जाने-माने अराजकतावादी दार्शनिक क्रोपोत्किन की पुस्तक 'मुचुअल एड' इस दिशा में काफी ज्ञानवर्धक है, पीडीएफ कॉपी शायद ऑनलाइन उपलब्ध हो। इसमें दिखाया गया है कि ऐतिहासिक रूप से प्रतिस्पर्धा नहीं पारस्परिक सहयोग प्रगति का मानक रहा है, प्रतिस्पर्धा (सईर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट) पश्चिमा-पूरबी नहीं पूंजीवादी सूत्र है। लाइक या वाहवाही बटोरने की प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृत्ति से शगूफेबाजी की बजाय, आइए संस्कृति पर गंभीर विमर्श शुरू करें (सनातन और राष्ट्रवाद पर भी)। Raj K Mishra ने धर्म और संस्कृति पर विमर्श का एक थ्रेड शुरू किया था, मैंने भी और कमेंट लिखकर संग्रहित करने की योजना से एक लंबा कमेंट किया था, लेकिन वह विमर्श बिना तार्किक परिणति तक पहुंचे गायब हो गया। राज से आग्रह है कि वे फिर से वह विमर्श शुरू करें और अन्य मित्रों से आग्रह है कि उसमें शगूफेबाजी न करके गंभीरता से भागीदारी करें। विषयकेंद्रित विमर्श से यह ग्रुप अपनी अलग बौद्धिक पहचान बना सकता है। सादर।

23.04.20322

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