सामाजिक आंदोलनों की मेरी एक पोस्ट पर एक सज्जन (अंधभक्त) पर बेबात मार्क्स के नाम का दौरा पड़ा और कहे कि वे ऐसा काम करते थे कि जर्मनी से भागकर दूसरे देश में जाना पड़ा। फिर बोले कि उतना बड़ा और कोई नहीं हुआ? उस परः
सही कह रहे हैं, उनके (मार्क्स) बाद अभी तक तो कोई और हुआ नहीं। सत्ता का भय होता है विचारों का आतंक। 23-24 साल के एक निहत्थे लड़के के विचारों का इतना आतंक हुअआ कि जर्मनी के शासकों को देश में उसकी उपस्थिति अपनी सत्ता के लिए खतरनाक लगने लगी। पड़ोस के देश फ्रांस में भी उसके कलम की गूंज से उनके देश के शासकों को दौरा पड़ने लगा और जर्मन शासकों के दबाव में फ्रांस के शासकों को भी उन्हें देश निकाला देना पड़ा। बेल्जियम में रहते हुए उन्होंने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो लिखा और राष्ट्रीय नागरिकता त्याग कर अंतरराष्ट्रीय नागरिक बन गए। उनके कलम से निकले शब्द बेल्जियम के शासकों भी नहीं रास आए और अपनी सत्ता के लिए खतरा लगने लगे तथा वहां से भी उन्हें जाना पड़ा और 1848 में जीवन भर के लंदन आ गए। भारत पर लिखने के लिए उन्होंने औपनिवेशिक (अंग्रेजी) शासन से यहां आने की अनुमति मांगी लेकिन भारत के औपनिवेशिक शासकों को उनका यहां आना अपनी सत्ता के लिए खतरनाक लगा और उन्हें अनुमति नहीं दिया। लंदन स्थित इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी तथा अन्य स्रोतों से सामग्री जुटाकर भारत पर कालजयी लेखन किया। भारतीय पद्धति की व्याख्या के लिए एसियाटिक मोड ऑफ प्रोडक्सन की प्रस्थापना गढ़ा। 1857 की क्रांति को जब सभी सभी गदर कह रहे थे तब मार्क्स नें इंडियाज वार ऑफ इंडेपेंडेंस शीर्षक से न्यू यॉर्क ट्रिब्यून में डिस्पैचेज लिख रहे थे। शासक वर्गों और उनके चारणों के लिए उनके विचारों का इतना आतंक बना हुआ है कि उनकी मौत के लगभग डेढ़ सौ साल बाद भी धनपशुओं के आप जैसे चारणों पर उनके नाम का दौरा पड़ता रहता है।
जैसे आप जैसे फासीवादी अंधभक्तों पर आज भी उनके नाम का दौरा पड़ता रहता है तो उनकी भौतिक उपस्थिति के साथ उनके विचारों के आतंक का अंदाज लगाइए। सत्ता का भय होता है विचारों का आतंक। भगत सिंह के विचारों से आतंकित औपनिवेशिक शासकों को सारी राज्य मशीनरी का बल लगाकर उनकी हत्या करनी पड़ी। लेकिन आप जैसे बंद दिमाग फासीवादी अंधभक्तों को क्रांतिकारियों की बातें कैसे समझ आएंगी? रटा भजन गाइए और मस्त रहिए। मेरा समय नष्ट करना बंद कर दीजिए
समाज के बेईमान लोगों में से ही आंदोलनों में भी लोग आते हैं तो उसमें भी समाज का प्रतिबिंबित होना लाजमी है। बाकी मनुष्य चिंतनशील व्यक्ति होता है, उसे कोई मूर्ख नहीं बना सकता, मूर्ख ही औरों पर मूर्ख बनाने का आरोप लगा सकता है। किसी संघर्ष की सफलता-असफलता तमाम बातों पर निर्भर करती है लेकिन संघर्षकर्ताओं की नीयत महत्वपूर्ण होती है। बाकी जैसे एक समय लाल सलाम का फैसन था वैसे ही लाल सलाम को गाली देने का फैशन बन चुका है। व्यवस्था के सारे apologetics को सदा से ही लाल सलाम का दौरा पड़ने की बीमारी रही है। यह बात मार्क्स-एंगेल्स ने 1848 में ही महसूस कर लिया था और लिखा कि पूरे यूरोप को एक भूत परेशान कर रहा है, साम्यवाद का भूत।
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