बुद्धिजीवी (साहित्यकार) कभी समाज को दिशा नहीं देता; वह न्याय-अन्याय नहीं पैदा करता बल्कि समाज की दिशा (उसमें मौजूद न्याय-अन्याय) पर प्रतिक्रिया देता है। जैसा कि कार्ल मार्क्स ने शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं और सामाजिक चेतना को आकार देते हैं। पारंपरिक (पेशेवर) बुद्धिजीवी तटस्थता और निष्पक्षता के आवरण में, प्रकारांतर से शासक वर्ग के विचारों दिवारा निर्धारित सामाजिक चेतना को औचित्य प्रदान करते हैं। शासक वर्गों से ही निकले जनवादी (शासित वर्ग के जैविक) बुद्धिजीवी समकालिक सामाजिक चेतना की आलोचना के माध्यम से सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की प्रक्रिया में योगदान करते हैं और शासित वर्ग को बदलाव का वैचारिक हथियार प्रदान करते हैं।
Saturday, April 29, 2023
बेतरतीब 144 (स्कूली खिक्षा)
बेतरतीब 144 (स्कूली खिक्षा)
हमारे समय (1967) में कक्षा 9 में ही ऐच्छिक विषयों के चुनाव का विकल्प था, हिंदी, अंग्रेजी, गणित अनिवार्य विषय थे विज्ञान समूह में जीवविज्ञान की जगह मैंने संस्कृत लिया था। गणित के बाद दूसरे स्थान पर सर्वाधिक अंक उसी में आते थे। (हिंसक हिंदी आंदोलन के चलते अगले या उसके अगले साल से अंग्रेजी अनिवार्य विषय की सूची से हट गयी थी) इंटर में अनिवार्य हिंदी, अंग्रेजी के अलावा भौतिकी, रसायनशास्त्र और गणित लिया था। यह भूमिका अनायास लंबी हो गयी। बात हिंदी के अंकों की ही करना चाह रहा था। अंग्रेजी समेत बाकी सभी विषयों में बहुत अच्छे अंक आते थे हिंदी में 60% की इच्छा कभी पूरी नहीं हुई । हाई स्कूल और इंटर दोनों में 58-58 अंक ही आए, जबकि मेरी हिंदी ठीक-ठाक है। वैसे परीक्षक परसंतापी रहे होंगे वरना गणित जैसे विषयों को छोड़कर 58 पाने वाले छात्र को 3 सवालों में अद्धे बढ़ाकर साढ़े 59 यानि 60 कर देना चाहिए। इसीलिए जब हिंदी, अंग्रेजी या सामाजिक विज्ञान के विषयों में 95-100 अंक की बात सुनता हूं तो अजीब लगता है। एक शिक्षक के रूप में पाया कि 12वीं में अंग्रेजी में 95% या अधिक अंक पाने वाले छात्र 5 वाक्य लिखने में 7-8 गलतियां करते हैं। लगता है परीक्षकों को बोर्ड से अधिक नंबर देने का निर्देश मिलता है। हमारे समय में विज्ञान विषयों में बोर्ड के टॉपर के 81-82% कुल अंक होते थे। अब तो दिल्ली विवि के अच्छे कॉलेजों में पोलिटिकल साइंस जैसे विषय के प्रवेश में 97-98% कट ऑफ होता है। केवल यूपी बोर्ड के नहीं सभी बोर्डों की परीक्षाओं के अंकों की समीक्षा होनी चाहिए।
Thursday, April 27, 2023
ग्राम्सी 1
एंतोनियों ग्राम्सी: बुद्धिजीवी पर विचार
Monday, April 24, 2023
शिक्षा और ज्ञान 401 (बलि)
सभी प्राचीन सभ्यताओं में देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि की परंपरा रही है। लगता है जीवन के शिकारी चरण की याद में, मनुष्य देवताओं को भोग भी अपने प्रमुख भोजन से कराने का आदी हो गया, जो विरासत किसी-न-किसी रूप में हम आज भी ढोते आ रहे हैं। परंपराएं वैसे भी जीवित पीढ़ियों के मष्तिष्क पर पूर्वजों की लाशों के भार के दुःस्वप्न की तरह होती हैं। हम सब अपनी जगहों और चीजों को प्राचीनता से जोड़कर गर्वान्वित महसूस करते हैं। हमारे क्षेत्र से बहने वाली टौंस नदी को हम तमसा कहते थे।
Sunday, April 23, 2023
शिक्षा और ज्ञान 400 (परशुराम)
परशुराम पर विमर्श की एक पोस्ट पर मेरा एक कमेंट :
एक बालक के रूप में परशुराम नाम से मेरा परिचय राम लीला में लक्ष्मण-परशुराम संवाद में रामचरित मानस की पंक्तियों से हुआ था जिसमें लक्ष्मण परशुराम को ललकारते हैं कि इहां कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं जो तर्जनी देख मरि जाहीं...... । बड़ों के सम्मान के संस्कार वाले छोटे बालक को यह लक्ष्मण की धृष्टता लगी थी और मैंने रामलीला के आयोजक साधू भैया ने शंका समाधान यह कहकर किया कि शठे शाठ्यम समाचरेत यानि दुष्टों से दुष्टता से ही निपटना चाहिए। मतलब परशुराम और लक्ष्मणण का झगड़ा दो दुष्टों का झगड़ा था। मन लक्ष्मण को दुष्ट मानने को राजी नहीं हो रहा था, लेकिन साधू भैया की बात पर अविश्वास करने का भी मन नहीं हो रहा था। साधू भैया यानि सरयू प्रसाद, जो उम्र में तो पिताजी के वरिष्ठ समकालीन थे लेकिन पद में भाई लगते थे, अविवाहित थे और नदी के किनारे उस पार, कुंए के पास कुटी बनाए थे तथा साधुओं की तरह लुंगी स्टाइल में धोती पहनते थे और परशु लेकर चलते थे। साधू होने के नाते क्षेत्र के सम्मानित व्यक्ति थे। थोड़ा बड़े होकर कहीं पढ़ा कि पिता के आदेश पर परशुराम ने मां की हत्या कर दी थी और महाभारत में कर्ण के गुरु थे लेकिन जैसे ही पता चला कि कर्ण क्षत्रिय थे उन्हें शाप दे दिया। मन में त्रेता और द्वापर के बीच के अंतराल को लेकर उहापोह की स्थिति पैदा हुई थी। और बाद में पता चला कि हमारा इतिहासबोध ही नहीं मिथकीय है अपितु ऐतिहासिक कालनिर्धारण भी।
Saturday, April 22, 2023
लल्ला पुराण 324 (संस्कृति)
कुछ लोग संस्कृति की दुहाई देते रहते हैं, जैसे राष्ट्रवाद की लेकिन पूछने पर बताते नहीं कि संस्कृति या राष्ट्रवाद है क्या? एक मित्र ने प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति पर तंज करते हुए संस्कृति पर बयान दिया, उस पर:
जी ज्ञान की उत्कंठा में सवाल पूछना मानव प्रकृति है क्योंकि किसी भी ज्ञान की कुंजी है सवाल-दर-सवाल। जी सनातन और राष्ट्रवाद लोग चल्लाते रहते हैं, जब भी सवाल पूछ कर उस पर गंभीरता से विमर्श का प्रयास किया जाता है, लोग भाग नहीं लेते। शिक्षा जगत की हर अवधारणा परिभाषा से शुरू होती है, आपने संस्कृति की हमारे-उनके की शब्दावली में फेंकने वाली शैली और चुनावी लोकलुभावन लहजे में में जो उंमादी व्याख्या की है वह सैकड़ों वर्षों की दूरी को पाटते हुए कबीर-नानक-गोरखनाथ का सत्संग कराकरभाव की, भक्ति वाहवाही भला दिला दे, ज्ञानवर्धन नहीं करती। गांधीजी पूरब-पश्चिम की नहीं प्राचीन-आधुनिक सभ्यता की बात करते हैं। इंगलैड में ही नहीं पूरी दुनिया में ही स्त्रियों ने सतत संघर्षों से अधिकार प्राप्त किए हैं, क्योंकि चंद मातृवंशक (मैट्रीलीनियल) जन जातियों को छोड़कर सभी समाज पितृसत्तात्मक रहे हैं। हमारे यहां उच्च वर्गों में पति की लाश के साथ पत्नी को जलाने की (सती प्रथा) रही है जिसके विरुद्ध ब्रह्मसमाज आंदोलन को पोंगापंथी विरोध को झेलते हुए कठिन संघर्ष करना पड़ा, जिसके अवशेष 1980 के दशक तक (देवराला कांड) अवतरित होते रहे। विधवाओं की दुर्दशा का इतिहास जगजाहिर है। इंग्लैंड और यूरोप में 19वीं शदी से शुरू सतत नारी आंदोलनों के चलते ही उन्हें शिक्षा, काम और नागरिकता का अधिकार मिला। 1980 के शुरुआती दशक में मुझे अपनी बहन के पढ़ने के अधिकार के लिए लड़ना पड़ा था, स्त्री-प्रज्ञा और दावेदारी के सतत संघर्ष के ही चलते आज किसी बाप की औकात नहीं कि सार्वजनिक रूप से बेटा-बेटी में भेद करने की बात करे, एक बेटे के लिए 4-5 बेटियां भले ही पैदा कर ले। पशु-पक्षियों समेत सभी समाजों में, पारस्परिक सहयोग की प्रवृत्तिया रहीं हैं जिनका ब्रह्मांड और प्रकृति की द्वंद्वात्मक प्रवृत्ति से कोई अंतर्विरोध नहीं है। द्ंद्वात्मक एकता से सामंजस्य पैदा होता है। जाने-माने अराजकतावादी दार्शनिक क्रोपोत्किन की पुस्तक 'मुचुअल एड' इस दिशा में काफी ज्ञानवर्धक है, पीडीएफ कॉपी शायद ऑनलाइन उपलब्ध हो। इसमें दिखाया गया है कि ऐतिहासिक रूप से प्रतिस्पर्धा नहीं पारस्परिक सहयोग प्रगति का मानक रहा है, प्रतिस्पर्धा (सईर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट) पश्चिमा-पूरबी नहीं पूंजीवादी सूत्र है। लाइक या वाहवाही बटोरने की प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृत्ति से शगूफेबाजी की बजाय, आइए संस्कृति पर गंभीर विमर्श शुरू करें (सनातन और राष्ट्रवाद पर भी)। Raj K Mishra ने धर्म और संस्कृति पर विमर्श का एक थ्रेड शुरू किया था, मैंने भी और कमेंट लिखकर संग्रहित करने की योजना से एक लंबा कमेंट किया था, लेकिन वह विमर्श बिना तार्किक परिणति तक पहुंचे गायब हो गया। राज से आग्रह है कि वे फिर से वह विमर्श शुरू करें और अन्य मित्रों से आग्रह है कि उसमें शगूफेबाजी न करके गंभीरता से भागीदारी करें। विषयकेंद्रित विमर्श से यह ग्रुप अपनी अलग बौद्धिक पहचान बना सकता है। सादर।
Tuesday, April 18, 2023
बेतरतीब 143 (छितुनिया बाबा)
हम 12-13 साल के थे रात की पैसेंजर गाड़ी से आते थे, जौनपुर से चलने का समय तो 5.31 का था लेकिन 6.30 के पहले कभी आती नहीं थी। अपने (बिलवाई) स्टेसन पहुंचते पहुंचते 8 बज जाता था वहां से 7 मील दूर गांव। मेरे गांव और 3-4 किमी दूर कछरा के बीच कोई गांव नहीं था, अगल-बगल थे। कछरा तक कई और सहयात्री होते थे वहां से अकेले। गांव से छितुनिया बाबा तक एकाध तो छोटे-मोटे भूत रहते थे, उनकी तो ऐसी की तैसी। एक विशाल पेड़ (छीतुन) में छितुनिया बाबा रहते थे, वे रास्तानभुलवाने के विशेषज्ञ थे। डेबई बनिया घोड़ा लेकर 12-15 मील दूर भटक गए थे और इसी तरह की बहुत कहानियां प्रचलित थीं। अभी भी कुछ लोग जीवित हैं जिन्हें छितुनिया बाबा ने भैंसा या कुत्ता के रूप में गांव तक पहुंचाया था। मैं छितुनिया बाबा को गाली देकर कहता कि वह पंचपेड़वा दिख रहा है (एक-डेढ़ किमी पर 5 आमों की बाग) भुलवाओगे और देर रात घर पहुंच जाता और रात देर से आने की डांट खाता। जब मैं अपनी आदत से बाज नहीं आयातो डांटना बंद हो गया। तभी से मेरे दिमाग से भूत का भय खत्म हो गया। फिर तो रात-विरात भूतों के इलाकों से उन्हें गालियां देते आता-जाता। उसके 3-4 साल बाद भूत की ही तरह भगवान का भी भय खत्म हो गया। यदि भूत और भगवान का भय खत्म हो जाय तो आदमी निर्भय हो जाता है।
फुटनोट 371 (कानून का राज)
क्या भारत में कानून का राज खत्म हो गया? कभी पुलिस कानून हाथ में लेकर एन्काउंटर के नाम हत्या करती है तो कभी एक पूर्व सांसद के हाथ बांध कर अपने बेवर्दी कारिंदों से मरवा देती है। इन हत्याओं का जश्न मनाकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मोहरे बने लोग यह जान लें कि हिटलर के हत्यारों ने केवल यहूदी ही नहीं मारे थे। यह जरूर है कि उसके अंधभक्तों ने यहूदियों की हत्या को नस्लवादी ध्रुवीकरण के लिए खूब प्रचारित किया था। जो हिटलर की चाल चलेगा वह हिटलर की मौत मरेगा।
फुटनोट 370 (दंगा)
दंगे होते नहीं कराए जाते हैं, कोई भी दंगा अप्रायोजित नहीं होता और यदि सरकार चाहे तो ज्यादा-से-ज्यादा आधे घंटे में रोके जा सकते हैं, यदि कोई दंगा 3 महीने तक चलता रहे तो उसका मतलब उसके पीछे सरकार का हाथ है। दंगे सांप्रदायिक चुनावी ध्रुवीकरण के कारगर औजार हैं। 2002 का नरसंहार न होता तो न तो गुजरात में भाजपा सरकार बनती न देश में। ध्रुवीकरण बरकरार करने के लिए मॉब-लिंचिंग और कानूनेतर हत्याओं का क्रम जारी रखा जाता है। सांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनैतिक विचारधारा है।
बेतरतीब 142 (तलाशे माश)
विश्वविद्यालयोंमें मठाधीशी बंद हो जाए तो शिक्षा का बहुत कल्याण होगा। मेरा नौकरी का दूसरा कोईन प्रिफरेंस ही नहीं था, 14 साल दिल्ली व अन्य विश्विविद्यालय/कॉलेजों में इंटरविव दिए और अंततः संयोगों के टकराव से मिल ही गयी। 1984 में इलाहाबादस विवि में मेरा संतोषप्रद इंटरविव 1 घंटा 28 मिनट चला था। बिल्कुल सही समय का पता बाहर बैठे लोगों से चला। मेरे निकलते ही एक ने कौतूहल भाव से कहा था, "बाप रे! एक घंटा अटाइस मिनट"? 6 पद थे और मैं इतना आशावान हो गया था कि सोचने लगा था कि गंगा पार विकसित हो रहे झूसी में घर लिया जाय़ कि गंगा के इसी पार तेलियरगंज या मंफोर्ड गंज में? करी डेढ़ साल बाद उससमय के वीसी, आरपी मिश्र से संयोग से कहीं मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि वे मेरे इंटरविव से इतने प्रभावित थे कि तमाम तर के बावजूद मेरा नाम पैनत में सातवें नंबर पर रखवा पाए। 6 पोस्ट थी तो 7वें पर रखते या 70वें पर क्या फर्क पड़ता। ऐसा हा 1987 में जामिया में हुआ, लंबा इंटरविव चला था। वहां आए आईआईपीए के एक एक्सपर्ट से कुछ दिनों बाद एक सेमिनार में मुलाकात हुई उन्होंने भी कहा कि मेरे इंटरविव से वे और वीली साहब बहुत प्रभावित हुए थे और वे मेरा नाम पैनल में चौथे नंबर पर रखवाने में सफल रहे थे। 3 पोस्ट थी तो चौथे पर रखते याचालीसवें पर क्या फर्क पड़ता।
समय मिला तो कभी इंटरविवों की एंथॉलॉजी लिखूंगा।
मुझसे जब कोई कहता कि मुझे देर से नौकरी मिली तो मैं कहता कि सवाल उल्टा है, मिल कैसे गयी?
मित्र Shahid Pervez ने पूछाहिंदू में नौकरी कैसे मिली तो संक्षेप में उन्हें यह जवाब दिया। विस्तार से फिर कभी। यह कमेंट भी यहां जोड़ दो रहा हूं।
लंबी कहानी है, अलग से लिखूंगा। संक्षेप में यह कि कलम की मजदूरी में इग्नू के लिए कुछ यूनिट (पाठ) लिखे थे और कुछ अनुवाद किए थे जो वहां के स़ोसल साइंस के डायरेक्टर, प्रोफेसर पांडव नायक को बहुत पसंद आया और उन्होंने एकेडमिक असोसिएट की नौकरी ऑफर कर दी। काम और वेतन लेक्चरर का था। 1989 में यूनिवर्सिटी ने नीतिगत फैसला ले लिया था कि औपचारिकताएं पूरी करके एकेडेमिक असोसिएट कैडर खत्म कर सबको लेक्चरर बना दिया जाएगा। इसी बीच हिंदू कॉलेज में गेस्ट लेक्चरर (लगभग 50/घंटा या ऐसा ही कुछ) का ऑफर मिला। मोटर साइकिल से सुबह पहला क्लास हिंदू में लेकर इग्नू (मैदान गढ़ी) जाता था। नवंबर 1989 में वहां इंटरविव में वाम-दक्षिण खेमों के दो गॉडफादरों के हितों के टकराव में एक साल के लिए मेरा हो गया। मूर्खता में मैं इग्नू छोड़कर हिंदू आ गया। साल भर बाद (1990) उन्ही दो गॉड फादरों के हितों के मिलाप ने वहां मेरी नौकरी खत्म कर दी और मैं फिर से कलम की मजदूरी से घर चलाने लगा। 1995 में फिर कई संयोगों के टकराव में मुझे फिर से हिंदू में नौकरी मिल गयी। इस पर विस्तार से कभी लिखूंगा, यह 6-7 पेजों के लेख को मैंने एक पैरा में समेट दिया। गॉडफादरों और उनकी गॉड औलादों के नाम के साथ लिखूंगा।
Friday, April 7, 2023
फुटनोट 369 (जालसाजी)
असगर भाई (Asghar Wajahat) भाई ने एक व्यंग्य पोस्ट किया कि आज मशीन से जालसाजी होती है और अक्सर पकड़ लीजाती है। पहले के जमाने में हाथ की सफाई से जालसाजी की जाती थी और लोग इतना ही नहीं कि असली-जाली में फर्क नहीं कर पाते थे बल्कि जाली को असली और असली को जाली समझने लगते थे। उनकी असली डिग्री को किसी इंटरविव में जाली बता दिया गया था। उस पर कमेंट:
आप जैसे पुराने जमाने के लोग नयेपन के विरुद्ध कोई-न-कोई कुतर्क ढूंढ़ ही लेते हैं. जब प्रिंटिंग प्रेस आयाथा तब भी पुरातन लोग छापेख़ाने की किताबों के बारे में इसी तरह की बातें करते थे. आपकी जाली डिग्री की जालसाजी हाथ से की गई थी तो पकड़ा गयी यदि कम्प्यूटर से की गयी होती तो हिंदी की बजाय एंटायर हिंदी में भी एमए की जाली डिग्री होती तो कोई माई का लाल उंगली नहीं उठा सकता था, अगर कोई ऐसी जुर्रत करता तो अदालत उसपर जुर्माना ठोंक देती। अब यह मत कहिए कि आपके जमाने में कम्प्यूटर नहीं था, असली कलाकार जमाने से 10 कदम आगे रहता है.
Tuesday, April 4, 2023
लल्ला पुराण 323 (अडानी)
बहुत दिनों से कुछ लिंक शेयर करने के अलावा मैं चुंगी में कोई लेख नहीं पोस्ट कर पा रहा हूं, लेकिन मेरे कुछ शुभेच्छु मेरे संदर्भ से कुछ कुछ शेयर करते रहते हैं। अभी P Markandey जी ने मेरे संदर्भ से एंटार पोलिकल साइंस वाले द्वारा अपने सखा को एलआईसी समेत कई सरकारी संस्थानों दिलाए एंटायर 20 हजार करोड़ दिलाने के बारे में हिसाब न पूछने के लिए वाम संगठनों को कुछ फंड देने की सलाह दी। उस पर:
Sunday, April 2, 2023
मार्क्सवाद 284 (सांप्रदायिकता)
1984-85 में सिखों के प्रति समाज में ऐसे ही पूर्वाग्रह व्याप्त थे जैसा आज मुसलमानों के प्रति। पंजाब में आतंकवाद इसलिए नहीं खत्म हुआ कि लोग सिखों को संदेह की नजर से देखते थे, उस संदेह से देश की आत्मा में जो जख्म लगे उनकी दाग अभी भी है। लोग नहीं ,मिथ्या सांप्रदायिक चेतना से ग्रस्त लोग ही हर सिख को संदेह की दृष्टि सो देखते थे जैसे आज सांप्रदायिक मिथ्याचेतना और पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से ग्रस्त लोग हर मुसलमान को संदेह की नजर से देखते हैं। वैज्ञानिक चेतना तथा मानवीय संवेदना से लैस लोग तब भी मानते थे कि आतंकवाद किसी समुदाय की जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है वे सिखों के खिलाफ दुष्प्रचार के विरुद्ध थे। उस समय भी लोगों के दिमाग में सांप्रदायिक जहर मीडिया और अफवाहों से भरा जा रहा था आज सोसल मीडिया ने सांप्रदायिक विषवमन की गति कई गुना बढ़ा दिया है। आतंकवाद इसलिए खत्म हुआ क्योंकि समाज का एक बड़ा गैर-सिख तपका सिखों के साथ खड़ा हुआ, 1984 के सिख नरसंहार के बाद हमलोगों ने दिल्ली में एक संगठन बनाया 'सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन' (एसवीए), जो एक दूसरे से अलग-थलग जेएनयू तथा दिल्ली विश्वविद्यालयों के सांप्रदायिकता विरोधी छात्र-शिक्षकों के बीच संपर्क मंच बना। बाद में जेएनयू के पढ़े जामिया के कुछ शिक्षकों की पहल से वहां के भी कई शिक्षक-छात्र जुड़े। दिवि के रामजस कॉलेज में उसके स्थापना सम्मेलन में 2,000 से अधिक शिक्षक-छात्र थे। यह संगठन 1992 तक सक्रिय रहा। आतंकवाद इसलिए खत्म हुआ कि आम सिखों में इसका समर्थन नहीं था, अकालीदल का भी बहुमत इसके विरुद्ध था। उसी तरह जैसे आज भी आम मुसलमान फिरकापरस्ती के खिलाफ है उसी तरह जैसे आम हिंदू। मिथ्या चेतना से ग्रस्त लोग समाम माध्यमों से जहालत फैला रहे हैं कि आम मुसलमान आतंकी तथा धर्मांध है, यह प्रवृत्ति सोसल मीडिया में बहुत अधिक है क्योंकि इसके मुखर लोगों में सांप्रदायिक मिथ्या चेतना से ग्रस्त सवर्ण पुरुषों का बहुमत है बाकी बहुसंख्या- आतंक से चुप करा दिया जाते हैं या हाशिए पर धकेल दिये जाते हैं। सांप्रदायिकता खत्म करने के लिए धर्म के आधार पर एक दूसरे के प्रति घृणा और संदेह नहीं, विश्वास और समानुभूति की आवश्यकता है।
03.04.2021