Monday, August 30, 2021

लल्ला पुराण 306 (परंपरा की आलोचना)

 अतिशयोक्ति अलंकार की कोटि है, 2 लाख बार तो नहीं, कई बार यह स्वाकारोक्ति कर चुका हूं कि पहनने का कोई तर्क नहीं समझ आने से, फालतू समझ 13 साल की उम्र में जनेऊ से मुक्ति पा लिया। मेरी इस बात से किसी के आहत होने का कारण समझ नहीं आता कोई अनायास आहत हो तो घाव पर विवेक का मरहम लगा ले। मुझे रक्षाबंधन से कोई समस्या नहीं है, करवाचौथ को एक मर्दवादी पर्व मानता हूं जोकि मेरी निजी राय है। पतियों के लिए पत्नियों के उपवास के पर्व को मर्दवादी कहने से मर्दवादी सोच वालों की सोच आहत आहत होना की परवाह नहीं करना चाहिए। किसी महाकाव्य के नायक द्वारा पत्नी के अपहरण की सजा में उसी की अग्नि परीक्षा लेना और उसके बावजूद गर्भवती अवस्था में किसी बहाने घर-देश से निकाल देना निश्चित ही मर्दवादी कृत्य है। महिषासुर की समीक्षा मैंने किया है तथा उसके कुछ (कम-से-कम एक) लेखकों को निजी रूप से जानने की बात आप खुद बता चुके हैं। भारत में ही नहीं दुनिया भर में बहुत से सरकारी भोपुओं को बहुत दिनों से वाम का दौरा पड़ता रहा है। एक तरफ वे वाम का मर्शिया पढ़ते हैं दूसरी तरफ दौरे के शिकार होते हैं।

Sunday, August 29, 2021

नारी विमर्श 20

 सार्वजनिक स्थानों पर स्त्रियों की बेखौफ आवाजाही से मर्दवाद को कल्चरल शॉक मिलता है। मर्दों की यौन कुंठा और यौन-अपराधी प्रवृत्ति के चलते होने वाले यौन अपराधों के बहाने वे स्त्रियों की घूमने-फिरने तथा कहीं भी आने-जाने की आजादी को रोकना चाहते हैं जब कि रोकना अपराधी मर्दों को चाहिए। 2012 में दिल्ली के चर्चित बलात्कार के बाद मप्र के एक मंत्री ने बयान दिया था कि लड़की लक्ष्मण रेखा लांघेगी तो रावण उठाएगा ही। मैंने एक कविता में जवाब दिया था - उठो सीता शस्त्र उठाओ। सड़कों और रातों पर लड़कियों का भी समान अधिकार है, अपराधियों को रोकना सरकार की ड्यूटी। लेकिन सरकार लड़कियों को ही रोकना चाहती है। रातों और सड़कों पर अपने अधिकार के लिए दिल्ली विवि की लड़कियों ने 'पिंजड़ा तोड़' आंदोलन शुरू किया है। मैसूर की लड़कियों को चाहिए कि इस प्रतिबंध की धज्जियां उड़ाते हुए इन जगहों की रातों पर कब्जा करें।

Saturday, August 28, 2021

लल्ला पुराण 305 (भाषा की तमीज)

Arvind Raiसार्वजनिक बाते हर सार्वजनिक जगह होनी चाहिए. मैं एक लेखक हूं. कला कला के लिए अपराध है. मैं तफरी के लिए नहीं लिखता. अपना हर बड़ा कमेंट अपनी वाल पर पोस्ट करता हूं और ब्लाग में सेव करता हूं, भविष्य के लेखन की सामग्री के रूप में. नाम के साथ इसलिए पोस्ट करता हूं कि पाठक को लगे कि यह मौलिक पोस्ट नहीं, किसी पोस्ट पर कमेंट है. यह कमेंट भी पोस्ट करूंगा. ग्रुप के इस अनुभव पर तो एक लंबा लेख लिखूंगा. एक बार पहले निकाल कर भरती करना. जिसने भरती किया उसकी गलती है क्योंकि उसे मालुम है कि मैं कौन हूं और क्या लिखता हूं. 2 ही दिनों में मुझे 8 लोगों को ब्लॉक करने पर मजबूर होना पड़ा. मैं उन्ही को ब्लॉक करता हूं जो विषय से इतर ऊल-जलूल बातों में समय नष्ट करते हैं या मेरे बारे में ऐसी ऐसी जानकारियां देने लगते हैं जो मेरे लिए अन्यथा दुर्लभ होतीं. मैं अपना अन्वेषण स्वयं करना चाहता हूं, दूसरों के माध्यम से नहीं. बेहतर होता कि मैं इन बंद दिमागों को नज़र- अंदाज करता. लेकिन जैसा कि मेरे साथ अक्सर होता है कि भूल जाता हूं कि 41 साल पहले 20 साल था और इनकी भाषा की तमीज का श्रोत पूछ बैठता हूं.. त्रिभुवन सिंह के बजरंगीर तो ऐसे त्रशूल-तलवार तेज करके दौड़ पड़े जैसे देवलोक में कोई महिषासुर (महिषासुर पर एक किताब की समीक्षा करनी है) आगया हो. तुमलोगों के लिए तो काफी उपयोगी पाठ्य सामग्री छोड दिया था लेकिन मुझे चोरों की तरह बिन बताए निकाल कर ग्रुप(लल्ला की चुंगी) के बाकी लोगों को भी वंचित कर दिया. मुझे एक सुंदर सा विदागीत लिखकर स्व-निष्कासन के सुख से वंचित कर दिया.I am used to carrying a bit rustic-intellectual arrogance and say, "loss is yours". बहुत जनतांत्रिक हैं आप लोग? एक पोस्ट को 21 लोग पसंद करते हैं, 4-5 लोग गाली गलौच करते हैं. गाली-गलौच करने वाला कोई ऐडमिन या उसका आदमी होता है जो "सर्वसम्मति" से चोरी से बिन बताए निकाल देता है. वैसे उसका शुक्रगुजार हूं कि और भी कीीमती समय भैंस को बीन सिखाने में बर्बाद होने से बचा दिया. बहुमत हमेशा सज्जनता का होता है लेकिन सज्जनता के बहुमत की आपराधिक चुप्पी दुर्जनता के अल्पमत को खेल बिगाड़ने का मौका देती है. कोई् मेरी अंत्येष्टि की विधि जानना चाहता है तो कोई मेरे दिवंगत पिता की. जैसे इन्हे पक्का पता हो कि ये मेरे पहले नहीं मरेंगे. इनसेसे पूछ दिया कि भाषा की तमीज शाखा में सीखा, मां-बाप से या विवि में? इसमें कौन सी गाली हो गयी? यदिआप इस सवाल को गाली मानते हैं तो मतलब हुआ कि खुद भी अपनी भाषा की तमीज पर आश्वस्त नहीं हैं. मुझसे पूछिए यह सवाल. मैंने अपनी सदाकत लिखने की जुर्रत की बेबाक भाषा की तमीज अपने कॉमरेडों के साथ पढ़ते-लड़ते-बढ़ते सीखा. बां-बाप से सीखी तमीज 13 साल में जनेऊ तोड़ने के साथ भूलना शुरू कर दिया था यानि ब्राह्मणवादी संस्कारों से विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था. गाली-गलौच संघी अतिवादियों का काम है, मेरा. नहीं मैंने किसी पर निजी आक्षेप नहीं लगाया. मैंने पहले ही आग्रह किया था कि मेरे विचारों पर बात करें निराधार निजी आक्षेप नहीं. लंपट को लंपट कहना गाली नहीं होता. वैसे मैंने किसी को लंपट नहीं कहा, सिर्फ इतना कहा कि विमर्श में विषयांतर बौद्धिक लंपटता है. लल्ला चुंगी पर 2 दिन के अनुभव पर लेख की बात फ्री प्ररे से हो गयी है. छपने के बाद शेयर करने में जो लोग उसमें जो टैग हो सकते हैं कर दूंगा. सारे चरित्र बेनाम रहेंगे.

बाकी मैंने तो आप में कभी समय निवेश की सोचा था. मैं आपको गाली क्यों दूंगा? बस बढ़-लिख कर, दिमाग इस्तेमाल करना सीख कर भूमिहार से इंसान बनने की प्रक्रिया शुरू कर दें अपनी उपलब्धि मानूंगा और आपका एहसान. शिक्षक हूं बच्चों को पढ़ाता हूं, गरियाता नहीं.
पुनश्च: चाहो तो चुंगी पर कॉपी पेस्ट कर सकते हो.

फुट नोट:
"संयोग से" मुझसे ब्राह्मणवाद की आलोचना करते हुए नाम में मिश्र पर आपत्ति करने वाले, विप्र जैसी बेहूदी गाली देने वाले और मेरी ब्लॉक लिस्ट को सुशोभित करने वालों में ज्यादातर/सभी मिश्रा/पांडे/तिवारी-त्रिपाठी/अवस्थी/शुक्ला .. ही हैं

29.08.2015

Friday, August 27, 2021

मार्क्सवाद 256 (राजनैतिक शिक्षा)

राजनैतिक शिक्षा और जनांदोलनों के माध्यम से अपना जनबल तैयार करने की बजाय पिछले 55 सालों से कम्युनिस्ट पार्टियां इस या उस शासकवर्ग की पार्टी का पुछल्ला बनकर अपना क्षरण करती जा रही हैं। आज तीनों पार्बिटियों का संसदीय आधार 1964 में सीपीआई की संसदीय शक्ति का 10% भी नहीं रह गया है। में महागठबंधन में शामिल होने की बजाय क्रांतिकारी उन्हें एक मजबूत वाम विकल्प तैयार करना चाहिए। वक्त की जरूरत है तीनों संसदीय पार्टियां आपसी गठबंधन से एक ताकतवर ब्लॉक बनाएं तथा एक ताकतवर स्थिति से फासीवाद-विरोधी दलों से सीटों का चुनावी समझौता करें तथा जनांदोलनों की रणनीति की छोटी कम्युनिस्ट पार्टियां चुनाव में इस ब्लॉक का समर्थन करें। मेरी राय में राममनोहर लोहिया-दीनदयाल उपाध्याय के कांग्रेस विरोधी समझौते के तहत 1967 में कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट पार्टियों का भारतीय जनसंघ के साथ संविद प्रयोग भयानक भूल थी जिससे आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के सामाजिक समवीकार्यता की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। बिहार आंदोलन में जेपी द्वारा आरएसएस को अपना प्रमुख सहयोगी बनाने, प्रगतिशील छवि बनाने के लिए इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल में उसे प्रमुखता से निशाना बनाना तथा 1977 में जनता सरकार के प्रयोग में उसकी अहमियत से आरएसएस की सांप्रदायिकता पर सामाजिक स्वीकार्यता की मुहर लग गयी। मेरे ख्याल से बिहार चुनाव में तानों पार्टियों को मजबूत गठबंठन बनाकर जनता के प्रमुख समस्याओं के चुनावी मुद्दों पर लड़ना चाहिए। चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर महागठबंधन का सरकार बनाने में समर्थन करना चाहिए। अस्मिता की राजनीति ने बिहार के क्रांतिकारी आंदोलनों को बहुत क्षति पहुंचाया है।

28.08.2021

शिक्षा और ज्ञान 328 (बुद्धिजीवी)

 चिंतनशील जीव होने के नाते सिद्धांततः हर व्यक्ति बुद्धिजीवी होता है, लेकिन व्यवहार में वही बुद्धिजीवी होता है जो खास सरोकारों को विचारों में समेकित कर अभिव्यक्ति देता है। बुद्धिजीवी दो तरह के होते हैं -- पारंपरिक और जैविक। पुजारी, धर्मशास्त्री, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, पत्रकार जैसे बौद्धिक दायित्व निभाने वाले या धर्म-संस्कृति की तिजारत करने वाले लोग पारंपरिक बुद्पाधिजीवी की कोटि में आते हैं और स्वायत्त स्वतंत्र होने का दावा करते हैं किंतु वस्तुतः वे वर्चस्वशाली समूहों के सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने का काम करते हैं। वर्ग विशेष के जैविक बुद्धिजीवी उस वर्ग के हितों को समेकित कर उन्हें अभिव्यक्ति देते हैं। एडम स्मिथ और थॉमस हॉब्स पूंजीवाद के जैविक बुद्धिजीवी थे और और कार्ल मार्क्स सर्वहारा के।

Saturday, August 21, 2021

नारी विमर्श19 (मर्दवाद)

 बहुत सारे लोग उच्चतम शिक्षा के बावजूद जाहिल बने रह जाते हैं क्योंकि वे केवल learn करते हैं, unlearn नहीं। मर्दवाद (gender) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही नकोई साश्वत विचार। मर्दवाद या पितृसत्तात्मकता विचार नहीं विचारधारा है जिसे हम अपने समाजीकरण के दौरान अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते हैं। विचारधारा शोषक (उत्पीड़क) या शासक को ही नहीं और शोषित (पीड़ित) या शासित को भी प्रभावित करती है। सांस्कृतिक मूल्य के रूप में विचारधारा हमारे नित्य-प्रति के क्रिया कलापों. विमर्शों, रिवाजों, त्योहार-उत्सवों, भाषा के संस्कार मुहावरों, चुटकुलों आदि के द्वारा निर्मित-पुनर्निर्मित और पोषित होते हैं। आर्थिक परिवर्तनों के साथ राजनैतिक तथा कानूनी परिवर्तन तुरंत होते हैं क्यों वे वाह्यगत होते हैं और आर्थिक परिवर्तनों को समेकित करने के लिए आवश्यक होते हैं। सांस्कृतिक परिवर्तन आत्मगत होते हैं और मुश्किल। बीसवीं शताब्दी के इतालवी दार्शनिक, एंतोनिीयों ग्राम्सी ने इसकी व्याख्या सांस्कृतिक वर्चस्व के सिद्धांत के रूप में की है। प्रभुता की स्थापना बल के अलावा सहमति से भी होती है। पारंपरिक पत्नियां बलपूर्वक नहीं सहमति से पतियों की प्रभुता स्वीकार करती हैं। हम जब किसी लड़की को बेटा कह कर साबाशी देते हैं तो सांस्कृतिक वर्चस्व के तहत वह भी इसे साबाशी ही समझती है। धीरे धीरे ही सही लेकिन सांस्कृतिक परिवर्तन भी अवश्यंभावी हैं, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन परिवक्व होकर एक दिन क्रांतिकारी गुणात्मक परिवर्तन का रूप ले लेते हैं। पिछली आधी शताीब्दी में स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी का अभियान काफी दूरी तय कर चुका है, स्त्री चतेतना सामाजिक चेतना को काफी बदल चुकी है लेकिन पर्याप्त स्तर तक नहीं। आज कोई भी बाप सार्वजनिक रूप से नहीं दावा कर सकता कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है, वास्तविक, व्यवहारिक विजय तो विचारधारा क् रूप में मर्दवाद के अंत के साथ होगी। समयसीमा तो नहीं तय की जा सकती, लेकिन प्रकृति का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत भी निश्चित है। मर्दवाद इसका अपवाद नहीं है।

Wednesday, August 18, 2021

लल्ला पुराण 396 (द्विराष्ट्र सिद्धांत)

 Arvind Rai द्विराष्ट्र परियोजना, 1857 की ससस्त्र किसान-क्रांति से बौखलाए औपनिवेशिक शासकों की बांटो-राज करो नाति का उपपरिणाम थी, जिसे कार्य रूप देने के लिए उसके देसी दलाल -- मुस्लिम लीग और हिंदू महा सभा मुल्क में फिरकापरस्ती नफरत फैलाना और अपने अंग्रेज आकाओं की शह पर दंगे करवाना शुरू किया। औपचारिक रूप से सबसे पहले सावरकर की अध्यक्षता में हिंदू महा सभा ने द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रस्ताव पारित किय.ा तथा उसके कुछ साल बाद मुस्लिम लीग ने। ऐतिहासिक विकास क्रम के विरुद्ध सावरकर की स्पष्ट राय थी कि हिंदू और मुसलमान अलग अलग राष्ट्र हैं। अगर ऐसा होता तो बांगलादेश क्यों-कैसे बनता। औपनिवेशिक वफादारी के पुस्कार स्वरूप सावरकर को पेंसन मिलीू और जिन्ना को पाकिस्तान की सदारत।


https://www.firstpost.com/india/vd-savarkar-was-no-proponent-of-two-nation-theory-his-writings-on-hindu-muslim-relations-only-constitute-statement-of-fact-7770871.html

Monday, August 16, 2021

बेतरतीब 110(बच्चे और दंड)

 3 साल पुरानी एक पोस्ट, शेयर करने काविकल्पनहीं दिखा, इसलिए कॉपी-पेस्ट:

27 सितंबर 2016

मित्रों, एक सज्जन ने इस मंच पर एकाधिक बार एक पोस्ट इस मंतव्य का पोस्ट किया कि बच्चे लाड़-दुलार से उद्दंड हो जाते हैं, उन्हें मार-पीट कर; प्रताड़ित करके; दंडित करके उनमें गुणों का विकास करना चाहिए. इस तरह के लोग लगता है बचपन में मार खा खा कर खुद बंद-बुद्धि लतखोर हो जाते हैं और अपने बच्चों को भी खुद सा लतखोर बनाना चाहते हैं, इस तरह के बाल-अत्याचार के अपराधी अभिभावकों तथा शिक्षकों की सार्वजनिक आलोचना होनी चाहिए.

मैंने जवाब में लिखा था कि मैं न तो कभी घर में मार खाया न स्कूल में, तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया! जरा अतीतावलोकन कीजिए और सोचिए जिन मां-बापों ने अपने बच्चों को दंडित करके गुणी बनाने की कोशिस की उनमें से कितने विद्वान बने? बचपन में विद्रोही तेवर के बावजूद "अच्छे" बच्चे की छवि थी. 9 सगे और कई चचेरे भाई-बहनों में लाड़-प्यार कितना मिला पता नहीं, लेकिन मार कभी नहीं खाया. एक बार (5-6 साल की उम्र में) पिताजी ने 1 रूपया खोने के लिए एक चांटा मारा तो दादी ने पलटकर एक उन्हें वापस दिया और पान खा रहे थे बाहर आ गया, हिसाब बराबर हो गया. पढ़ने-लिखने में तेज था, होम वर्क इसलिए पूरा कर लेता था कि टीचर क्लास में खड़ा न कर दे. 9 साल में प्राइमरी पास कर लिया सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 7-8 किमी था. 12 साल में मिडिल पास किया, पैदल की दूरी पर हाई स्कूल नहीं था, साइकिल पर पैर नहीं पहुंचता था, सो शहर चल दिया और तबसे सारे फैसले खुद करने लगा. इलाहाबाद विवि में साल बीतते-बीतते क्रांतिकारी राजनीति में शिरकत के चलते आईएस/पीसीयस की तैयारी से इंकार करने के चलते पिताजी से आर्थिक संबंध विच्छेद कर लिया और अपनी शर्तों पर जीते हुए कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और अब इकसठिया गया हूं. इंटर में एक कमीन टीचर ने मारने के लिए छड़ी उठाया, मैंने पकड़ लिया कि बताओ क्यों मारोगे? उसने केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में फेल करने की कोशिस की लेकिन लगता है एक्सटर्नल नहीं माना और 30 में 10 नंबर देकर पास कर दिया, तब भी टॉपर से 19 नंबर ही कम आए.

13 साल में जनेऊ तोड़ दिया, कर्मकांडी दादा जी हर बार घर आने पर मंत्र-संत्र के साथ फिर से जनेऊ पहना देते थे, लेकिन कभी हाथ नहीं उठाया, अंत में ऊबकर छोड़ दिया. भूत का डर तभी खत्म हो गया, 17 की उम्र तक नास्तिक हो गया, काल्पनिक भगवान का भी काल्पनिक भय खत्म हो गया. 2 बेटियों का फक्रमंद बाप हूं, दोनों ही मेरी ज़िगरी दोस्त हैं. ज्यादातर मां-बाप अभागे दयनीय जीव होते हैं, समता के अद्भुत सुख से अपरिचित, बच्चों से मित्रता नहीं करते और शक्ति के वहम-ओ-गुमां में जीते हैं.

बच्चे कुशाग्रबुद्धि, सूक्ष्म पर्यवेक्षक तथा चालू और नकलची होते हैं, मां-बाप को प्रवचन से नहीं दृष्टांत से उन्हें पालना होता है. मैं आवारा आदमी जब बाप बना तो सोचा अच्छा बाप कैसे बना जाय. 1. बच्चों के साथ समतापूर्ण जनतांत्रिक तथा पारदर्शी व्यवहार करें. 2. उन्हे अतिरिक्त ध्यान; अतितिरिक्त संरक्षण एवं अतिरिक्त अपेक्षा से प्रताड़ित न करें. 3. बच्चों के अधिकार तथा बुद्धिमत्ता का सम्मान करना सीखें. 4. बच्चों की विद्रोही प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दें, विद्रोह में सर्जनात्मकता है. To rebel is to create. मार-पीट कर जो बच्चों को पालते हैं वे बच्चों के साथ अक्षम्य अमानवीय अपराध करते हैं तथा अपने बच्चों को भी खुद सा लतखोर गधा बना देते हैं. मेरी बेटियां नियंत्रण और अनुशासन की बेहूदगियों से स्वतंत्र पली-बढ़ी हैं तथा अपने अपने क्षेत्रों में, परिजनों में प्रशंसित होती हैं. लोग कहते हैं भगत सिंह पड़ोसी के घर पैदा हों, मुझे गर्व है कि दोनों भगत सिंह की उनुयायी हैं.

आप सबसे अनुरोध है कि अपने अहं और अज्ञान में बच्चों को दब्बू और डरपोक न बनाएं, उनके अंदर की विद्रोही प्रवृत्तियों को कुंद न करके उन्हें प्रोत्साहित और परिमार्जित करें. विद्रोही प्रवृत्ति में सर्जक-अन्वेशी संभावनाएं अंतर्निहित होती हैं. यदि किसी की बापाना भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो उनका इलाज कराएं.

ईमि — with Markandey Pandey and 21 others.

Sunday, August 8, 2021

नारी विमर्श 18 (सिमों द बुआ)

 ‘The Second Sex' की लेखक स्त्रीवादी दार्शनिक सिमों द बुआ (Simone de Beauvoir) से एक पत्रकार ने पूछा कि जब स्त्रियां पारंपरिक जीवन में खुश हैं तो वे उनपर अपने विचार क्यों थोपना चाहती हैं? उन्होंने कहा कि वे किसी पर कुछ नहीं थोपना चाहतीं। स्त्रियां पारंपरिक जीवन में इस लिए खुश हैं कि वे जीवन के और तरीके नहीं जानती वे उनका जीवन के और तरीकों से परिचय कराना चाहती हैं। मर्दवाद कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है जिसे हम नित्य-प्रति की जीवनचर्या, रीति-रिवाजों, कर्मकांडों और अनुष्ठानों से निर्मित और पुनर्निर्मित करते हैं। विचारधारा शोषित और शोषक दोनों को प्रभावित करती है।

Saturday, August 7, 2021

मार्क्सवाद 255 (मंडल)

 मंडल कमीसन को लागू करने की घोषणा से जातिवाद के संचार की बात स्वार्थबोध से प्ररित सवर्णों का कुंठा विसर्जन है। वर्णाश्रमी जातिवादी भेदभाव अपने वीभत्स रूप में पहले से मौजूद था, 1990 के बाद सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिलना शुरू हुई। इवि में हमारे समय (1970 के दशक का पूर्वार्ध) गैर-सवर्ण छात्रों की संख्या नगण्य थी। 1990 में कैंपसों की संरचना आज जैसी होती तो हिंसक मंडलविरोधी उन्माद एकतरफा न होता। दिवि और जेएनयू में कुछ वामपंथियों समेत तमाम स्वघोषित जातिवादविरोधी सवर्ण बेनकाब हो गए। मिश्र सरनेम के बावजूद मंडलविरोधी उन्माद का मेरा समर्थन न करना कई लोगों को घोर आश्चर्यजनक लगा था। जेएनयू जैसी जगह में भी वहां के छात्रसंघ के अध्यक्ष को इस्तीफा देना पड़ा (वह भी सवर्ण था) वही हाल दिवि के शिक्षक संघ के अध्यक्ष मुरली मनोहर सिंह की हुई थी। 1990 के बाद जातिवाद शुरू नहीं हुआ बल्कि जातिवादी सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिलना शुरू हुई। प्रतिक्रिया में जवाबी जातिवाद शुरू हुआ, जो कि उतना ही अधोगामी है जितना जातिवाद। समाधान जातिवादी प्रतिस्पर्धा नहीं, जातिवाद का विनाश है।

मार्क्सवाद 254 (सीएसपी)

'मार्क्सवाद की विचारधारा से प्रभावित कांग्रेसजन' द्वारा 1934 में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का गठन गांधी के आशिर्वाद से नहीं उनकी इच्छा के विरुद्ध हुआ था। 1928 में कॉमिन्टर्न की 6ठी कांग्रेस के प्रतिगामी प्रस्तावों के तहत तब तक कांग्रेस से सहयोग करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय आंदोलन के अलग-थलग हो गयी तथा प्रतिबंधित थी। नवगठित सीएसपी के अध्यक्ष तथा महमंत्री आचार्य नरेंद्रदेव और जेपी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट भी सीएसपी में शामिल हुए। नंबूदरीपाद पार्टी के संस्थापर सह लचिव (ज्वाइंट सेक्रेटरी) थे। अशोक मेहता, मीनू मसानी, लोहिया जैसे कुछ कम्युनिस्ट विरोधी जरूर टॉर्च-खुरपी लेकर पार्टी में कम्युनिस्ट कांस्पिरेसी खोजते रहते थे। यूरोप में नवजागरण एवं प्रबोधन क्रांतियों ने जन्मगत भेभाव खत्म कर दिया था लेकिन भारत में ऐसे आंदोलन नहीं हुए तथा जन्मगत (जातीय) भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष भी कम्युनिस्टों की अतिरिक्त जिम्मेदारी थी, जिसे उन्होंने अनदेखा किया, परिणाम स्वरूप जातिवादी भेदभाव के खिलाफ जवाबी जातिवाद शुरू हो गया जो वर्गसंघर्ष के रास्ते का उतना ही बड़ा गतिरोधक है, जितना जातिवाद।

Thursday, August 5, 2021

Marxism & Religion

 Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, just as it is the spirit of a spiritless situation. It is the opium of the people.”


“The abolition of religion as the illusory happiness of the people is required for their real happiness. The demand to give up the illusion without giving up its condition is the demand to give up a condition which needs illusions.”

This is often misunderstood, perhaps because the full passage is rarely used: the boldface in the above is my own, showing what is usually quoted. The italics are in the original. In some ways, the quote is presented dishonestly because saying “Religion is the sigh of the oppressed creature...” leaves out that it is also the “heart of a heartless world.” This is more a critique of society that has become heartless and is even a partial validation of religion that it tries to become its heart. In spite of his obvious dislike of and anger towards religion, Marx did not make religion the primary enemy of workers and communists. Had Marx regarded religion as a more serious enemy, he would have devoted more time to it.

Marx is saying that religion is meant to create illusory fantasies for the poor. Economic realities prevent them from finding true happiness in this life, so religion tells them this is OK because they will find true happiness in the next life. Marx is not entirely without sympathy: people are in distress and religion does provide solace, just as people who are physically injured receive relief from opiate-based drugs.
The problem is that opiates fail to fix a physical injury — you only forget your pain and suffering. This can be fine, but only if you are also trying to solve the underlying causes of the pain. Similarly, religion does not fix the underlying causes of people’s pain and suffering — instead, it helps them forget why they are suffering and causes them to look forward to an imaginary future when the pain will cease instead of working to change circumstances now. Even worse, this “drug” is being administered by the oppressors who are responsible for the pain and suffering.

13.08.2013

Tuesday, August 3, 2021

ईश्वर विमर्श 101 (मनुष्य की उत्पत्ति)

 ईश्वर नहीं है तो हम कहां से आए? किस्म के सवाल अनादि काल से लोग पूछते आए हैं, सिलसिला आज भी जारी है।


मित्र, हम अपने मां-बाप के अंतरंग जीववैज्ञानिक संबंधों से उत्पन्न प्राणी हैं जिनके आदिम पूर्वजों ने प्रजाति विशिष्ट प्रवृत्ति विवेक से खुद को पशुकुल से अलग किया था। ईश्वर संबंधी ये मुद्दे सैकड़ों साल पहले तय हो चुके। वैसे उपरोक्त कमेंट में तो मैंने ईश्वर के कल्पना होने की बात नहीं की है, खीर खाने से राजा दशरथ की रानियों के बच्चे पैदा होने के संदर्भ में यही कहा है कि खीर खाने से बच्चा पैदा होने की बात कल्पना है। ईश्वर भय तथा अज्ञान की उत्पत्ति है जिसकी हिफाजत के लिए मनुष्य ने अपनी ऐतिहासिक जरूरत के लिए धर्म का आवरण निर्मित किया। इसी लिए ईश्वर तथा धर्म के स्वरूप और चरित्र देश-काल के हिसाब से बदलते रहे हैं। सत्य वही है जिसका प्रमाण हो, ईश्वर का प्रमाण मिलते ही उसे भी सत्य मान लूंगा। कर्मकांडी ब्राह्मण बालक से प्रामाणिक नास्तिकता तक की यात्रा बहुत दुरूह आत्मसंघर्षों की यात्रा होती है इसके लिए अजेय विवेक एवं अदम्य साहस की आवश्यकता होती है।

4.08.2020

शिक्षा और ज्ञान 327 (धर्म और राजनीति)

 मंदिर-मस्जिद राजनैतिक कारणों से तोड़े बनाए गए। मैं यह पूछता हूं कि हम (हमारे पूर्वज) इतने कमजोर क्यों थे कि कोई नादिर शाह 2000 घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंद डालता था? इसके लिए ज्ञान व्यवस्था और समाज व्यवस्था में जवाब ढूंढ़ना पड़ेगा। शस्त्र-शास्त्र का अधिकार जिस समाज में चंद लोगों के हाथ में सीमित हो, बड़े कामगर समूह के साथ पशुवत व्यवहार हो, ज्ञान के नाम पर अंधविश्वास और मिथक पढ़ाए जाते हों, उसे कोई भी रौंद सकता था। मैं अपने दलित साथियों से पूछता हूं कि हमारे पूर्वज तुम्हारे पूर्वजों से पशुवत व्यवहार करते थे तो वे सहर्ष उसे स्वीकार क्यों करते थे? (मेरे लड़कपन तक ऐसा ही था) ऐसा चेतना के स्तर और स्वरूप के चलते होता है। आज संवैधानिक जनतंत्र में कुत्तों की तरह झुंड में शेर बनते हुए संख्याबल के बूते किसी की हत्या कर देना या किसी का 400 साल पुराना भवन तोड़ देना बहादुरी नहीं कायरता और अपराध है। सुप्रीम कोर्ट के अन्यायमूर्तियों ने भी अपने उसी फैसले में बाबरी विंध्वंस को जघन्य अपराध कहा है। 10 साल के 10 लड़के मिलकर शहर के सबसे बड़े पहलवान को पीट सकते हैं, इसमें इन लड़कों की बहादुरी नहीं भीड़ की अपराधी प्रवृत्ति है। अतीत की गलतियां नहीं सुधारी जा सकतीं, उनसे सीख ली जा सकती है। 500 साल की गलती सुधारने में अमेरिका की पूरी आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा।


04.08.2020

Monday, August 2, 2021

बेतरतीब 110 (भाई साहब)

 इस कहानी (प्रेमचंद की बड़े भाई साहब) से मैं कुछ अधिक ही एकात्म स्थापित कर पाया था क्योंकि इस कहानी के बड़े भाई साहब की ही तरह मेरे भाई साहब भी मुझसे 5 साल बड़े थे लेकिन कक्षा में 3 साल ही आगे। लेकिन ऐसा उनके बुनवियाद मजबूत करने के चलते नहीं, बल्कि हड़बड़ी में मेरी उछलकूद के चलते था। गणित ( गिनती-पहाड़ा) में अच्छा होने के चलते गदहिया गोल ( प्रीप्राइमरी [अलिफ])से कक्षा एक में तथा डिप्टी साहब (एसडीआई) के मुआयने के दौरान अंकगणित के ही एक मौखिक सवाल के जवाब में कक्षा 4 से 5 में प्रोन्नति पा गया था। दरअसल कक्षा 4 और 5 के बच्चे एक ही कमरे में बैठते थे, सवाल कक्षा 5 वालों से पूछा गया था, कोई नहीं बता पाया तो मैंने हाथ खड़ा कर दिया। यह 1963-64 की बात है। वैसे अब सोचता हूं कि हर काम समय पर ही करना चाहिए, आगे-पीछे नहीं। लेकिन बचपन से ही समय से आगे रहने की प्रवृत्ति थी। कम उम्र में प्राइमरी पास कर लेने के चलते हाई स्कूल की परीक्षा की न्यूनतम आयुसीमा की पूर्ति के लिए उम्र बढ़ाकर लिखानी पड़ी, परिणास्वरूप जल्दी रिटायर हो गए डेढ़ साल के पढ़ाने के सुख से वंचित।


कालजयी रचनाकार की स्मृति को कोटिक नमन।