अतिशयोक्ति अलंकार की कोटि है, 2 लाख बार तो नहीं, कई बार यह स्वाकारोक्ति कर चुका हूं कि पहनने का कोई तर्क नहीं समझ आने से, फालतू समझ 13 साल की उम्र में जनेऊ से मुक्ति पा लिया। मेरी इस बात से किसी के आहत होने का कारण समझ नहीं आता कोई अनायास आहत हो तो घाव पर विवेक का मरहम लगा ले। मुझे रक्षाबंधन से कोई समस्या नहीं है, करवाचौथ को एक मर्दवादी पर्व मानता हूं जोकि मेरी निजी राय है। पतियों के लिए पत्नियों के उपवास के पर्व को मर्दवादी कहने से मर्दवादी सोच वालों की सोच आहत आहत होना की परवाह नहीं करना चाहिए। किसी महाकाव्य के नायक द्वारा पत्नी के अपहरण की सजा में उसी की अग्नि परीक्षा लेना और उसके बावजूद गर्भवती अवस्था में किसी बहाने घर-देश से निकाल देना निश्चित ही मर्दवादी कृत्य है। महिषासुर की समीक्षा मैंने किया है तथा उसके कुछ (कम-से-कम एक) लेखकों को निजी रूप से जानने की बात आप खुद बता चुके हैं। भारत में ही नहीं दुनिया भर में बहुत से सरकारी भोपुओं को बहुत दिनों से वाम का दौरा पड़ता रहा है। एक तरफ वे वाम का मर्शिया पढ़ते हैं दूसरी तरफ दौरे के शिकार होते हैं।
Monday, August 30, 2021
Sunday, August 29, 2021
नारी विमर्श 20
सार्वजनिक स्थानों पर स्त्रियों की बेखौफ आवाजाही से मर्दवाद को कल्चरल शॉक मिलता है। मर्दों की यौन कुंठा और यौन-अपराधी प्रवृत्ति के चलते होने वाले यौन अपराधों के बहाने वे स्त्रियों की घूमने-फिरने तथा कहीं भी आने-जाने की आजादी को रोकना चाहते हैं जब कि रोकना अपराधी मर्दों को चाहिए। 2012 में दिल्ली के चर्चित बलात्कार के बाद मप्र के एक मंत्री ने बयान दिया था कि लड़की लक्ष्मण रेखा लांघेगी तो रावण उठाएगा ही। मैंने एक कविता में जवाब दिया था - उठो सीता शस्त्र उठाओ। सड़कों और रातों पर लड़कियों का भी समान अधिकार है, अपराधियों को रोकना सरकार की ड्यूटी। लेकिन सरकार लड़कियों को ही रोकना चाहती है। रातों और सड़कों पर अपने अधिकार के लिए दिल्ली विवि की लड़कियों ने 'पिंजड़ा तोड़' आंदोलन शुरू किया है। मैसूर की लड़कियों को चाहिए कि इस प्रतिबंध की धज्जियां उड़ाते हुए इन जगहों की रातों पर कब्जा करें।
Saturday, August 28, 2021
लल्ला पुराण 305 (भाषा की तमीज)
Friday, August 27, 2021
मार्क्सवाद 256 (राजनैतिक शिक्षा)
राजनैतिक शिक्षा और जनांदोलनों के माध्यम से अपना जनबल तैयार करने की बजाय पिछले 55 सालों से कम्युनिस्ट पार्टियां इस या उस शासकवर्ग की पार्टी का पुछल्ला बनकर अपना क्षरण करती जा रही हैं। आज तीनों पार्बिटियों का संसदीय आधार 1964 में सीपीआई की संसदीय शक्ति का 10% भी नहीं रह गया है। में महागठबंधन में शामिल होने की बजाय क्रांतिकारी उन्हें एक मजबूत वाम विकल्प तैयार करना चाहिए। वक्त की जरूरत है तीनों संसदीय पार्टियां आपसी गठबंधन से एक ताकतवर ब्लॉक बनाएं तथा एक ताकतवर स्थिति से फासीवाद-विरोधी दलों से सीटों का चुनावी समझौता करें तथा जनांदोलनों की रणनीति की छोटी कम्युनिस्ट पार्टियां चुनाव में इस ब्लॉक का समर्थन करें। मेरी राय में राममनोहर लोहिया-दीनदयाल उपाध्याय के कांग्रेस विरोधी समझौते के तहत 1967 में कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट पार्टियों का भारतीय जनसंघ के साथ संविद प्रयोग भयानक भूल थी जिससे आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के सामाजिक समवीकार्यता की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। बिहार आंदोलन में जेपी द्वारा आरएसएस को अपना प्रमुख सहयोगी बनाने, प्रगतिशील छवि बनाने के लिए इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल में उसे प्रमुखता से निशाना बनाना तथा 1977 में जनता सरकार के प्रयोग में उसकी अहमियत से आरएसएस की सांप्रदायिकता पर सामाजिक स्वीकार्यता की मुहर लग गयी। मेरे ख्याल से बिहार चुनाव में तानों पार्टियों को मजबूत गठबंठन बनाकर जनता के प्रमुख समस्याओं के चुनावी मुद्दों पर लड़ना चाहिए। चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर महागठबंधन का सरकार बनाने में समर्थन करना चाहिए। अस्मिता की राजनीति ने बिहार के क्रांतिकारी आंदोलनों को बहुत क्षति पहुंचाया है।
28.08.2021
शिक्षा और ज्ञान 328 (बुद्धिजीवी)
चिंतनशील जीव होने के नाते सिद्धांततः हर व्यक्ति बुद्धिजीवी होता है, लेकिन व्यवहार में वही बुद्धिजीवी होता है जो खास सरोकारों को विचारों में समेकित कर अभिव्यक्ति देता है। बुद्धिजीवी दो तरह के होते हैं -- पारंपरिक और जैविक। पुजारी, धर्मशास्त्री, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, पत्रकार जैसे बौद्धिक दायित्व निभाने वाले या धर्म-संस्कृति की तिजारत करने वाले लोग पारंपरिक बुद्पाधिजीवी की कोटि में आते हैं और स्वायत्त स्वतंत्र होने का दावा करते हैं किंतु वस्तुतः वे वर्चस्वशाली समूहों के सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने का काम करते हैं। वर्ग विशेष के जैविक बुद्धिजीवी उस वर्ग के हितों को समेकित कर उन्हें अभिव्यक्ति देते हैं। एडम स्मिथ और थॉमस हॉब्स पूंजीवाद के जैविक बुद्धिजीवी थे और और कार्ल मार्क्स सर्वहारा के।
Saturday, August 21, 2021
नारी विमर्श19 (मर्दवाद)
बहुत सारे लोग उच्चतम शिक्षा के बावजूद जाहिल बने रह जाते हैं क्योंकि वे केवल learn करते हैं, unlearn नहीं। मर्दवाद (gender) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही नकोई साश्वत विचार। मर्दवाद या पितृसत्तात्मकता विचार नहीं विचारधारा है जिसे हम अपने समाजीकरण के दौरान अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते हैं। विचारधारा शोषक (उत्पीड़क) या शासक को ही नहीं और शोषित (पीड़ित) या शासित को भी प्रभावित करती है। सांस्कृतिक मूल्य के रूप में विचारधारा हमारे नित्य-प्रति के क्रिया कलापों. विमर्शों, रिवाजों, त्योहार-उत्सवों, भाषा के संस्कार मुहावरों, चुटकुलों आदि के द्वारा निर्मित-पुनर्निर्मित और पोषित होते हैं। आर्थिक परिवर्तनों के साथ राजनैतिक तथा कानूनी परिवर्तन तुरंत होते हैं क्यों वे वाह्यगत होते हैं और आर्थिक परिवर्तनों को समेकित करने के लिए आवश्यक होते हैं। सांस्कृतिक परिवर्तन आत्मगत होते हैं और मुश्किल। बीसवीं शताब्दी के इतालवी दार्शनिक, एंतोनिीयों ग्राम्सी ने इसकी व्याख्या सांस्कृतिक वर्चस्व के सिद्धांत के रूप में की है। प्रभुता की स्थापना बल के अलावा सहमति से भी होती है। पारंपरिक पत्नियां बलपूर्वक नहीं सहमति से पतियों की प्रभुता स्वीकार करती हैं। हम जब किसी लड़की को बेटा कह कर साबाशी देते हैं तो सांस्कृतिक वर्चस्व के तहत वह भी इसे साबाशी ही समझती है। धीरे धीरे ही सही लेकिन सांस्कृतिक परिवर्तन भी अवश्यंभावी हैं, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन परिवक्व होकर एक दिन क्रांतिकारी गुणात्मक परिवर्तन का रूप ले लेते हैं। पिछली आधी शताीब्दी में स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी का अभियान काफी दूरी तय कर चुका है, स्त्री चतेतना सामाजिक चेतना को काफी बदल चुकी है लेकिन पर्याप्त स्तर तक नहीं। आज कोई भी बाप सार्वजनिक रूप से नहीं दावा कर सकता कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है, वास्तविक, व्यवहारिक विजय तो विचारधारा क् रूप में मर्दवाद के अंत के साथ होगी। समयसीमा तो नहीं तय की जा सकती, लेकिन प्रकृति का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत भी निश्चित है। मर्दवाद इसका अपवाद नहीं है।
Wednesday, August 18, 2021
लल्ला पुराण 396 (द्विराष्ट्र सिद्धांत)
Arvind Rai द्विराष्ट्र परियोजना, 1857 की ससस्त्र किसान-क्रांति से बौखलाए औपनिवेशिक शासकों की बांटो-राज करो नाति का उपपरिणाम थी, जिसे कार्य रूप देने के लिए उसके देसी दलाल -- मुस्लिम लीग और हिंदू महा सभा मुल्क में फिरकापरस्ती नफरत फैलाना और अपने अंग्रेज आकाओं की शह पर दंगे करवाना शुरू किया। औपचारिक रूप से सबसे पहले सावरकर की अध्यक्षता में हिंदू महा सभा ने द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रस्ताव पारित किय.ा तथा उसके कुछ साल बाद मुस्लिम लीग ने। ऐतिहासिक विकास क्रम के विरुद्ध सावरकर की स्पष्ट राय थी कि हिंदू और मुसलमान अलग अलग राष्ट्र हैं। अगर ऐसा होता तो बांगलादेश क्यों-कैसे बनता। औपनिवेशिक वफादारी के पुस्कार स्वरूप सावरकर को पेंसन मिलीू और जिन्ना को पाकिस्तान की सदारत।
https://www.firstpost.com/india/vd-savarkar-was-no-proponent-of-two-nation-theory-his-writings-on-hindu-muslim-relations-only-constitute-statement-of-fact-7770871.html
Monday, August 16, 2021
बेतरतीब 110(बच्चे और दंड)
3 साल पुरानी एक पोस्ट, शेयर करने काविकल्पनहीं दिखा, इसलिए कॉपी-पेस्ट:
Sunday, August 8, 2021
नारी विमर्श 18 (सिमों द बुआ)
‘The Second Sex' की लेखक स्त्रीवादी दार्शनिक सिमों द बुआ (Simone de Beauvoir) से एक पत्रकार ने पूछा कि जब स्त्रियां पारंपरिक जीवन में खुश हैं तो वे उनपर अपने विचार क्यों थोपना चाहती हैं? उन्होंने कहा कि वे किसी पर कुछ नहीं थोपना चाहतीं। स्त्रियां पारंपरिक जीवन में इस लिए खुश हैं कि वे जीवन के और तरीके नहीं जानती वे उनका जीवन के और तरीकों से परिचय कराना चाहती हैं। मर्दवाद कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है जिसे हम नित्य-प्रति की जीवनचर्या, रीति-रिवाजों, कर्मकांडों और अनुष्ठानों से निर्मित और पुनर्निर्मित करते हैं। विचारधारा शोषित और शोषक दोनों को प्रभावित करती है।
Saturday, August 7, 2021
मार्क्सवाद 255 (मंडल)
मंडल कमीसन को लागू करने की घोषणा से जातिवाद के संचार की बात स्वार्थबोध से प्ररित सवर्णों का कुंठा विसर्जन है। वर्णाश्रमी जातिवादी भेदभाव अपने वीभत्स रूप में पहले से मौजूद था, 1990 के बाद सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिलना शुरू हुई। इवि में हमारे समय (1970 के दशक का पूर्वार्ध) गैर-सवर्ण छात्रों की संख्या नगण्य थी। 1990 में कैंपसों की संरचना आज जैसी होती तो हिंसक मंडलविरोधी उन्माद एकतरफा न होता। दिवि और जेएनयू में कुछ वामपंथियों समेत तमाम स्वघोषित जातिवादविरोधी सवर्ण बेनकाब हो गए। मिश्र सरनेम के बावजूद मंडलविरोधी उन्माद का मेरा समर्थन न करना कई लोगों को घोर आश्चर्यजनक लगा था। जेएनयू जैसी जगह में भी वहां के छात्रसंघ के अध्यक्ष को इस्तीफा देना पड़ा (वह भी सवर्ण था) वही हाल दिवि के शिक्षक संघ के अध्यक्ष मुरली मनोहर सिंह की हुई थी। 1990 के बाद जातिवाद शुरू नहीं हुआ बल्कि जातिवादी सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिलना शुरू हुई। प्रतिक्रिया में जवाबी जातिवाद शुरू हुआ, जो कि उतना ही अधोगामी है जितना जातिवाद। समाधान जातिवादी प्रतिस्पर्धा नहीं, जातिवाद का विनाश है।
मार्क्सवाद 254 (सीएसपी)
'मार्क्सवाद की विचारधारा से प्रभावित कांग्रेसजन' द्वारा 1934 में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का गठन गांधी के आशिर्वाद से नहीं उनकी इच्छा के विरुद्ध हुआ था। 1928 में कॉमिन्टर्न की 6ठी कांग्रेस के प्रतिगामी प्रस्तावों के तहत तब तक कांग्रेस से सहयोग करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय आंदोलन के अलग-थलग हो गयी तथा प्रतिबंधित थी। नवगठित सीएसपी के अध्यक्ष तथा महमंत्री आचार्य नरेंद्रदेव और जेपी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट भी सीएसपी में शामिल हुए। नंबूदरीपाद पार्टी के संस्थापर सह लचिव (ज्वाइंट सेक्रेटरी) थे। अशोक मेहता, मीनू मसानी, लोहिया जैसे कुछ कम्युनिस्ट विरोधी जरूर टॉर्च-खुरपी लेकर पार्टी में कम्युनिस्ट कांस्पिरेसी खोजते रहते थे। यूरोप में नवजागरण एवं प्रबोधन क्रांतियों ने जन्मगत भेभाव खत्म कर दिया था लेकिन भारत में ऐसे आंदोलन नहीं हुए तथा जन्मगत (जातीय) भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष भी कम्युनिस्टों की अतिरिक्त जिम्मेदारी थी, जिसे उन्होंने अनदेखा किया, परिणाम स्वरूप जातिवादी भेदभाव के खिलाफ जवाबी जातिवाद शुरू हो गया जो वर्गसंघर्ष के रास्ते का उतना ही बड़ा गतिरोधक है, जितना जातिवाद।
Thursday, August 5, 2021
Marxism & Religion
“Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, just as it is the spirit of a spiritless situation. It is the opium of the people.”
Tuesday, August 3, 2021
ईश्वर विमर्श 101 (मनुष्य की उत्पत्ति)
ईश्वर नहीं है तो हम कहां से आए? किस्म के सवाल अनादि काल से लोग पूछते आए हैं, सिलसिला आज भी जारी है।
शिक्षा और ज्ञान 327 (धर्म और राजनीति)
मंदिर-मस्जिद राजनैतिक कारणों से तोड़े बनाए गए। मैं यह पूछता हूं कि हम (हमारे पूर्वज) इतने कमजोर क्यों थे कि कोई नादिर शाह 2000 घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंद डालता था? इसके लिए ज्ञान व्यवस्था और समाज व्यवस्था में जवाब ढूंढ़ना पड़ेगा। शस्त्र-शास्त्र का अधिकार जिस समाज में चंद लोगों के हाथ में सीमित हो, बड़े कामगर समूह के साथ पशुवत व्यवहार हो, ज्ञान के नाम पर अंधविश्वास और मिथक पढ़ाए जाते हों, उसे कोई भी रौंद सकता था। मैं अपने दलित साथियों से पूछता हूं कि हमारे पूर्वज तुम्हारे पूर्वजों से पशुवत व्यवहार करते थे तो वे सहर्ष उसे स्वीकार क्यों करते थे? (मेरे लड़कपन तक ऐसा ही था) ऐसा चेतना के स्तर और स्वरूप के चलते होता है। आज संवैधानिक जनतंत्र में कुत्तों की तरह झुंड में शेर बनते हुए संख्याबल के बूते किसी की हत्या कर देना या किसी का 400 साल पुराना भवन तोड़ देना बहादुरी नहीं कायरता और अपराध है। सुप्रीम कोर्ट के अन्यायमूर्तियों ने भी अपने उसी फैसले में बाबरी विंध्वंस को जघन्य अपराध कहा है। 10 साल के 10 लड़के मिलकर शहर के सबसे बड़े पहलवान को पीट सकते हैं, इसमें इन लड़कों की बहादुरी नहीं भीड़ की अपराधी प्रवृत्ति है। अतीत की गलतियां नहीं सुधारी जा सकतीं, उनसे सीख ली जा सकती है। 500 साल की गलती सुधारने में अमेरिका की पूरी आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा।
04.08.2020
Monday, August 2, 2021
बेतरतीब 110 (भाई साहब)
इस कहानी (प्रेमचंद की बड़े भाई साहब) से मैं कुछ अधिक ही एकात्म स्थापित कर पाया था क्योंकि इस कहानी के बड़े भाई साहब की ही तरह मेरे भाई साहब भी मुझसे 5 साल बड़े थे लेकिन कक्षा में 3 साल ही आगे। लेकिन ऐसा उनके बुनवियाद मजबूत करने के चलते नहीं, बल्कि हड़बड़ी में मेरी उछलकूद के चलते था। गणित ( गिनती-पहाड़ा) में अच्छा होने के चलते गदहिया गोल ( प्रीप्राइमरी [अलिफ])से कक्षा एक में तथा डिप्टी साहब (एसडीआई) के मुआयने के दौरान अंकगणित के ही एक मौखिक सवाल के जवाब में कक्षा 4 से 5 में प्रोन्नति पा गया था। दरअसल कक्षा 4 और 5 के बच्चे एक ही कमरे में बैठते थे, सवाल कक्षा 5 वालों से पूछा गया था, कोई नहीं बता पाया तो मैंने हाथ खड़ा कर दिया। यह 1963-64 की बात है। वैसे अब सोचता हूं कि हर काम समय पर ही करना चाहिए, आगे-पीछे नहीं। लेकिन बचपन से ही समय से आगे रहने की प्रवृत्ति थी। कम उम्र में प्राइमरी पास कर लेने के चलते हाई स्कूल की परीक्षा की न्यूनतम आयुसीमा की पूर्ति के लिए उम्र बढ़ाकर लिखानी पड़ी, परिणास्वरूप जल्दी रिटायर हो गए डेढ़ साल के पढ़ाने के सुख से वंचित।