Sunday, June 5, 2016

शिक्षा और ज्ञान 68 (परंपरा)

परंपराएं सिर पर पूर्वजों की लाशों के बोझ सी हैं, बोझ तो फिर भी बोझ होता है, जितनी जल्दी हो सके बोझ मुक्त हो जाना चाहिए. संबंधों की नैसर्गिक प्रवृत्ति का विवेकसम्मत परिमार्जन संबंधों का आधार होता है, पूर्वजों की स्थापित परंपराओं का अनुशरण बौद्धिक विकास की गतिविज्ञान के नियमों के प्रवाह को अवरुद्ध करता है. पूर्वजों की प्रतिक्रिया को सही-गलत मानने के प्रतिमान परंपरा के मानकों पर होते हैं इसलिए वे स्वतंत्र चुनाव नहीं होते. परंपराएं तथा स्थापित मान्यताएं खास सामाजिक प्रणाली को बरकरार रखने के लिए होती हैं. संबंधों की वर्जनाएं मर्दवादी मान्यताओं की सुरक्षा कवच हैं. विवेक से परिमार्जित नैसर्गिक प्रवृत्ति ही स्वस्थ संबधों के सौंदर्य की नियामक हैं. संबंधों के सर्वमान्य(?) व्यवहारों से विचलन इसलिए अपराधबोध देता है कि समाजीकरण के दौरान उन मान्यताओं को अंतिम सत्य मान आत्मसात कर लेते हैं - बिना उनपर सवाल किए. समस्या अशिक्षा नहीं है, समस्या पढ़ाए गए को सत्य मान लेने की कुशिक्षा है. अशिक्षा कुशिक्षा से बेहतर है. क्योंकि जो पढ़ाया जा रहा है उस पर सवाल करना नहीं पढ़ाया जाता है. अपराधबोध न तो सहज मनोवृत्ति है न नैसर्गिक प्रवृत्ति. हम मूल रूप से स्वछंदता (संबंधों के संबंध में) के पक्षधर हैं लेकिन सामाजिक वर्जनाएं स्वतंत्रता के सौंदर्यबोध को विकृत कर अनायास के अपराध बोध को जन्म देती हैं. मेरे लिए स्वफूर्त पारस्परिकता ही संबंधों की सुचिता का एकमात्र मानदंड है. थोड़ा "हास्यभाव"ः संबंधों का अपराधबोध महिलाओं पर ज्यादा होता है, पितृसत्तामक संसकारों के चलते.

पुनश्च:
13 साल की उम्र में जब मुझे जनेऊ धारण करने को कोई कारण नज़र नहीं आया तो मैंने तोड़ दिया. इस "अपराध" पर लोक प्रतिक्रिया तथा विमर्श की बातें लंबी हो जायेंगी. गांव के एक विद्वान माने जाने वाले व्यक्ति ने कहा कि पुरखों की परंपरा है. मैंने कहा था कि जरूरी तो नहीं हमारे पुरखे हमसे ज्यादा बुद्धिमान रहे हों? पंडित जी ने प्रचारित कर दिया कि मैंने पूर्जों को मूर्ख कहा था.इस तरह मेरे "गुड ब्वॉय" इमेज में यह पहली दरार थी. इम्तहान के अंक दरारों को ढकने की कोशिस करते लेकिन दरार चौड़ी होती गयी अंततः इमेज ही टूट गयी.

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