Tuesday, June 21, 2016

गुजरात फाइल्स

समीक्षा-लेख
 Gujarat Files:  Anatomy of A Cover Up
By Rana Ayub  prudent
Published by Rana Ayub, New Delhi, 2016

राजनैतिक अंडरवर्ल्ड और दुस्साहसी पत्रकारिता
ईश मिश्र
      हमारी पीढ़ी के लोग, खासकर वे जो 1970 के दशक में छात्र आंदोलनों से जुड़े थे, उन्हें आपातकाल में हवा में मन पर फासीवादी आतंक की अनुभूतियों की यादें अब भी कभी मन को बेचैन करती होंगी. समीक्षार्थ इस पुस्तक में वर्णित मोदी के मुख्यमंत्रित्व में गुजरात में, यह अनुभूति मोदी यानि आरयसयस की सोच से भिन्न सोच वालों के मन में इस आतंक की अनुभूति उस अनुभूति से कहीं ज्यादा. हर क्षेत्र में मोदी का अघोषित आपातकाल इंदिरा गांधी के घोषित आपातकाल से अधिक भयावह दृष्य उपस्थित करता है. आज्ञाकारी “प्रतिबद्ध” नौकरशाही, पुलिस और न्याय पालिका तथा रीढ़विहीन, वफादार, अनुयायी सांसद. लेकिन इंदिरा गांधी दमन के राज्य के उपकरणों पर निर्भर थीं मोदी के पास इसके साथ वीयचपी, बजरंगदल, एबीवीपी जैसे पैरा सैन्यसंगठन भी थे/हैं. सत्ता में आते ही जनतांत्रिक संस्थानों तथा अभिव्यक्ति के अधिकारों पर हमले सिलसिला गुजरात के फासीवादी आतंक को देशव्यापी बनाने का प्रयास है. एक साल पहले महाकाव्य रामायण के नायक राम की आलोचना के लिए मैसूर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गुरू की गिरफ्तारी ताजी कड़ी है.
तहलका में अपने खुलासे के चलते अमितशाह की गिरफ्तारी से उत्साहित, साहसी(बल्कि दुस्साहसी) और हिम्मती युवा पत्रकार, राणा अयूब ने असंभव पर निशाना साधने की ठानी. चुनावी ध्रुवीकरण के मकसद से गोधरा के प्रायोजन से 2002 के नरसंहार तथा फर्जी मुठभेड़ों में सरकार तथा प्रशासन और पुलिस की संलिप्तता की बात सर्वविदित है, लेकिन जैसा कि लेखक ने शुरू में ही कहा है कि ठोस सबूत के अभाव में इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता. “साफ साफ दिख रहा था कि पिछले 10 सालों न्यायिक प्रक्रिया विकृत हुई है. लोगों की जान बचाना जिनकी जिम्मेदारी है, वे बिक चुके हैं. दंगों से लेकर मुठभेड़ों और रानैतिक हत्याओं के मामलों में कई असहज सत्य छिपे हैं.” (पृ.9) तहलका के संपादकों का प्रोत्साहन पा वह छिपी सच्चाइयों को उद्घाटित करने निकल पड़ी. रिपोर्टर की पहचान को छिपाकर अमेरिका के एक फिल्म इंस्टीट्यूट छात्रा मैथिली त्यागी बन गई. इस रूपांतरण में उसे बहुत पापड़ बेलने पड़े. उसे  19 साल का एक फ्रांसीसी लड़का सहायक के रूप में मिल गया. 8 महीने जान जोखिम में डालकर सबूत इकट्ठा करती रही. जब उसे मोदी से अगली मुलाकात का इंतजार था, संपादकों ने उसे वापस बुला लिया. गुजरात का फासीवादी आतंक की प्रतिध्वनि दिल्ली में सुनाई दी. तहलका के संपादक प्रतिध्वनि से भयभीत उसे अन्वेषण रोक देने को कहा. और उन्होंने (तरुण तोजपाल और शोमा)वृ ‘स्टोरी’ न छापने का करार कर लिया. जैसा कि पुस्तक के प्राक्कथन में राणा ने एक चैनल में नौकरी के शुरुआती दिनों में पत्रकारिता में नैतिकता और मुल्यों पर संपादक से बहस को याद कर कहती है, “उन्होंने मुझे धैर्यपूर्वक सुना और फिर जो कहा आज तक न भूली हूं. एक अच्छे पत्रकार को ‘स्टोरी’ से खुद को अलग कर व्यावहारिक होना चाहिए. अफशोस है कि मैं आजतक इस कला में महारत न हासिल कर सकी. क्योंकि यह कॉर्पोरेट या राजनैतिक शक्तियों के इशारे पर ‘स्टोरी’ ‘किल’ करने का बहाना बन जाता है.” लेकिन मैथिली त्यागी से वापस राणा अयूब रुकने वाली नहीं थी. वह आत्म विशावास से आगे बढ़ी. नतीजा है, 2001-2010 के दौर में गुजरात में महत्वपूर्ण पदों पर रहे लोगों के खुफिया कैमरों में कैद दुर्लभ इकबालिया बयानों की यह अनूठी. कृति. गुजरात फाइल्स: एनॉटॉमी ऑफ अ कवर अप.      
हिंदुस्तान तथा गुजरात के हालिया राजनैतिक इतिहास से अपरिचित किसी पाठक को राणा अयूब की गुजरात फाइल्स: एनॉटॉमी ऑफ अ कवर अप (आपराधिक लीपापोती की व्यूह-संरचना) पढ़ते हुए एक रोचक जासूसी उपन्यास का बोध होगा. एक ऐसा उपन्यास जिसके अगले रहस्य की जिज्ञासा एक बार में पढ़ने को बाध्य कर देता है. फर्क इतना है कि इसका अंडरवर्ल्ड राजनैतिक है और पात्र वास्तविक तथा जीवित. एक भ्रष्ट और निर्दयी व्यवस्था तथा सर्वव्यापी भय के माहौल में वफादार कारिंदों की तरह राजनैतिक अपराध के सहभागी और साजिश को अंजाम देने वाले अफसरों की तो बात ही छोड़िए, ईमानदार अधिकारी भी बेबसी के बहाने अन्याय के विरुद्ध मुंह नहीं खोलते. इन बंद मुहों को खुलवाने का ताना-बाना बुनने की तरकीबें करती है, इस उपन्यास की लेखक/नायिका/जासूस, एक प्रवासी भारतीय के छद्म भेष में जिन्हें वह कुर्ते, डायरी और घड़ी में छिपे खुफिया कैमरों में कैद करती है. गुजरात फाइल्स छद्म भेष में राणा अयूब की 8 महीने की 2002 जनसंहार तथा तत्पश्चात् फर्जी मुठभेड़ के बारे में जोखिम भरी खोजी पत्रकारिता की खोज का लेखा-जोखा है. एक अमेरिकी फिल्म इंस्टीट्यूट से आई एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता, ‘मैथिली’ के रूप में वह उन प्रशासनिक तथा पुलिस अधिकारियों का स्टिंग करती है जो 2001 सा 2010 के बीच गुजरात में अहम पदों पर थे. चोर कैमरों में कैद संवाद मानवता के विरुद्ध वीभत्सतम अपराध में सरकार और इसके अधिकारियों की सक्रिय संलग्नता का जीता सबूत है. लेकिन जिस गुजरात उच्च न्यायालय को गुलबर्ग सोसाइटी के नरसंहार में कोई साजिश नज़र नहीं आता वह इन सबूतों का स्वतः संज्ञान लेने से रही. पुस्तक उस हक़ीक़त का प्रमाण है जिसे अंदरखाते भक्त भी मानते हैं कि इन्ही नरसंहारों तथा फर्जी मुठभेड़ों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते नरेंद्र मोदी और अमित शाह गुजरात की सत्ता के गलियारों को पार करते हुए दिल्ली के तख्त तक पहुंच गये. यह पुस्तक मुल्क की सामाजिक चेतना पर भी एक तगड़ा तमाचा है जिसका इतने भीषण नरसंहार तथा सामूहिक बलात्कार पर खून खौलने की बजाय इसके प्रायोजकों को आराध्य बना देती है. यह पुस्तक उस हक़ीक़त को उजागर करती है जिसे सत्ता के हर संभव तरीके से लगातार झुठलाने की कोशिस की जा रही है. यह सत्योद्घाटन (रहस्योद्घाटन इस लिए नहीं कह रहा हूं कि ये सर्वविदित रहस्य हैं) उन अफसरों की जुबानी है जिनकी जुबान को जांच आयेगों के सामने सांप सूंघ गया था.    
      साहसी युवा पत्रकार राणा अयूब द्वारा जान-जोखिम में डालकर जुटाए गए नरसंहार तथा फर्जी मुठभेड़ों से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से सत्ता हासिल करने के बयां की  यह पुस्तक, पढ़ते हुए यूरोपीय नवजागरण कालीन राजनैतिक चिंतक, मैक्यावली बरबस याद आ गये. लगा कि नवजागरणकालीन किसी राजनैतिक उपन्यास का नवउदारवादी भारतीय संस्करण पढ़ रहा हूं. मैक्यावली राजनीति में सफलता को ही सद्गुण मानते थे तथा नैतिकता को शासक की ऐय्याशी (लक्ज़री). लेकिन वह सफल शासक को नैतिकता के सर्वश्रेष्ठ पुजारी के प्रामाणिक अभिनय की सलाह देने से नहीं चूकते. सब रचनाएं समकालिक होती हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक हो हो जाती हैं. 1513 में राजनैतिक निर्वसन से मिले एकांत में लिखी गयी उनकी कालजयी कृति प्रिंस इसी कोटि की है. मैक्यावली राजनीति को सत्ता प्राप्त करने, बरकरार रखने और बढ़ाने की कला के रूप में परिभाषित करते हैं तथा साधन की असुचिता का औचित्य साध्य की सुचिता में देखते हैं. अंत भला तो सब भला. सत्ता की प्राप्ति, उसकी रखवाली और संवृद्धि ही राजनीति में साध्य है, जिसे छल-कपट; धोखा-धड़ी, जुमलेबाजी किसी भी साधन से प्राप्त किया जाए. चिंतक या दार्शनिक समाज में न्याय-अन्याय; अच्छाई-बुराई का निर्माण नहीं करता बल्कि वे पहले से ही मौजूद होती हैं. वह उसकी व्याख्या भर करता है. आदर्शवादी चिंतक सामाजिक/राजनैतिक विद्रूपताओं के यथार्थ को अमूर्त-आध्यात्मिक शब्दाडंबर के आवरण में छिपा देता है तथा यथार्थवादी साहस के साथ उन्हें जस-का-तस अनावरित करता है. मैक्यावली ने राजनीति में छल-कपट; राजनैतिक हत्याओं या तखतापलट का आविष्कार नहीं किया. ये बातें राजनैतिक संक्रमणकालीन, नवजागरण काल की राजशाहियों में आम थीं. मैक्यावली ने महज राजनैतिक चालबाजियों और धूर्तता को खूबसूरती से अंज़ाम देने की हिमायत की है. मोदी का राजनैतिक उदय, आरोहण और अवश्यंभावी अस्त मैक्यावली की समकालिक प्रासंगिता का ज्वलंत उदाहरण है. अवश्यंभावी अंत की बात इसलिए कि वह विजयी राजा को विजय की जीत के जश्न से परहेज करने की बात करता है कि यह अंत नहीं शुरुआत है. असली काम तो उसके बाद शुरू होता है, शासनशिल्प. विजित जनता के करों से शासन चलाना तथा भविष्य के युद्धों के लिए उनसे ही सेना तैयार करना है इसलिए उनपर न तो करों का भार बढ़ाना है, न नया कर थोपना है और न ही उनके धर्म तथा रीति रिवाजों से छेड़-छाड़. लेकिन मोदी सरकार विश्वबैंक तथा कॉरपोरेट आकाओं के दबाव में जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ाने की मजबूरी में लगातार युद्ध(चुनाव) मोड में बनी हुई है. युद्ध में छल के वही तरीके बार बार कारग़र नहीं हो सकते.
प्रिंस  समझदार शासकों के लिए राजनैतिक परामर्श की एक संहिता है जो नैतिक-अनैतिक; उचित-अनुचित; पवित्र-अपवित्र, धार्मिक अधार्मिक आदि के विचारों से परे सत्ता प्राप्त करने; उसपर एकाधिकार कायम रखने तथा बढ़ाने के व्यावहारिक तरीके बताती है. मैक्यावली का प्रिंस जहां छल-कपट; धोखा-धड़ी; हत्या-नरसंहार; साम-दाम-भेद-दंड, येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करने की हिमायत करता है, तो निर्भीक युवा पत्रकार अयूब राणा की 8 महीने की जान-जोखिम वाली छद्म भेष की ‘जासूसी’ की परिणति गुजरात फाइल्स छल-कपट; धोखा-धड़ी; हत्या-बलात्कार; सांप्रदायिक विस्थापन; फर्जी मुठभेड़ आदि मैक्यावलियन तरीकों से हासिल सत्ता का भंडाफोड़ करती है. इस लेख का मकसद मोदी जी की मैक्यावलियन प्रवृत्तियों पर चर्चा करना नहीं है, वह एक अलग विमर्श का विषय है. यहां मकसद गुजरात की मोदी मार्का राजनीति के प्रसंग से नवउदारवादी युग में मैक्यावली की प्रासंगिकता इंगित करना है.
मैक्यावली का प्रिंस न तो मध्ययुगीन राजाओं की तरह “दैवीय गुणों से संपन्न” किसी ईश्वर का प्रतिनिधि है न ही राजकुलीन युवराज. वह मोदी या हिटलर की तरह एक साधरण पृष्ठभूमि से आने वाला योद्धा है जो अपनी सूझ-बूझ से राज्य की स्थापना करता है. वह उस “समझदार” शासक को सलाह देता है कि उसे नया कुछ नहीं करना है, बल्कि इतिहास के समझदार शासकों की मिसालों में से चुनना भर है. वह एक अनुकरणीय मिशाल प्राचीन क्लासिकल काल का देता है और साथ में एक समकालिक.
ईशा पूर्व चौथी शताब्दी में सिसिली के एक कुम्हार का बेटा था अगाथोक्लस जो साइराकस आकर सेना में भर्ती हुआ तथा अपने कुलीन, धनी संरक्षक की विधवा से शादी करके अपनी सेना खड़ी कर लिया. एक बार उसने नगर सभागार में प्राचीन विधिवेत्ता सोलोन पर चर्चा का आयोजन किया. नगर के सभी गणमान्य आमंत्रित थे. जैसे ही वे सभागार में घुसे वहां पहले से ही छिपे इसके सैनिकों ने उनका कत्ल-ए-आम कर दिया. अगाथोक्लस ने खुद को सम्राट घोषित कर दिया. अपने समकालिक मिशालों में रोड्रिगो बोर्जियाज की मिशाल देता है. रोड्रिगो रोमन चर्च में एक कार्डिनल था जो 1492 में अलेक्जेंडर षष्टम् नाम से पोप बना. उसने अपने दो बेटों को कॉर्डिनल नियुक्त कर दिया तथा बेटी उसकी अनुपस्थिति में वेटिकन नगर का कार्यभार सभांलती थी. उसके पास अपने जल्लाद, अपनी जेल तथा अपने जहरनवीश(poisoner) थे. जहरनवीश काफी व्यस्त रहते थे. उनके शिकारों में कई कॉर्डिनल थे. “अलेक्ज़ेंडर षष्टम ने छल के सिवा कुछ नहीं किया. वह इसके अलावा कुछ नहीं सोचता था. वह वायदों की बड़ी बड़ी लड़ियां लगा देता था, पूरा एक भी नहीं करता था. जो भी हो वह हमेशा छल में सफल रहा क्योंकि यह कला वह भलीभांति जानता था.” जब 2007 में एटीयस के महानिदेशक रहे, राजन प्रियदर्शी से मैथिली बनी अयूब राणा गुजरात में मोदी की लोकप्रियता के बारे में पूछती है तो उनका उत्तर मैक्यावली के उपरोक्त उद्धरण की याद दिलाता है. “वे सबको बेवकूफ बनाते हैं और लोग बेवकूफ बन जाते हैं.” यह देश की सामाजिक चेतना के लिहाज से सोचनीय है.
      यहां मकसद मैक्यावली के शासनशिल्प की नवउदारवादी व्याख्या नहीं है वह एक अलग विमर्श का मुद्दा है, इस जस्तावेज में सत्ता के लिए जघन्य अपराधों को पढ़ते हुए, मन में सवाल उठा कि मैक्यावली अगर आज प्रिंस लिख रहा होता तो उसे समकालिक मिशाल चुनने में खास मशक्कत न करनी पड़ती. वैसे मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने बाकियों की उम्मीद पर पानी फेर दिया है. वह मेरी मानता तो मोदी को चुनता. अमित शाह सत्ता के अति उत्साह में कई बार मन की बात कह देता है, जैसे कि मोदी के काला धन वापसी के शगूफे को सार्जनिक रूप से जुमलेबाजी मान लेना. मोदी मन की बात कहने का पाखंड करता है. मैक्यावली की एक सलाह है खुद की नकाबपोशी करते हुए औरों को बेनकाब करना. जैसा कि इस पुस्तक में उजागर किया गया है कि मोदी ने कभी कुछ लिखित आदेश नहीं दिया. मौखिक आदेश भी अविधा में.
“जियो और जीने दो” के सिद्धांत वाले 2002 में दंगों के समय गुजरात के गृह सचिव रहे अशोक नारायण बताते हैं, ‘वे कभी कागज पर कुछ भी नहीं लिखते हैं. उनके पास अपने लोग हैं. उन लोगों और विश्व हिंदू परिषद के लोगों के जरिए उनके संदेश निचले दर्जे के पुलिस अफसरों तक पहुंचते रहे थे.’(पृ.86) ‘....... वैसे भी वे सामने नहीं आते. वे इतने चतुर हैं और फोन पर इतनी चतुराई से बात करते हैं – वे अफसरों को फोन करके कहते हैं. ‘अच्छा उस इलाके का ध्यान रखना.’ आम आदमी के लिए इसका मतलब यह बनता है कि ‘ध्यान रखना उस इलाके में दंगा न होने पाए’ लेकिन निहितार्थ होता है कि ‘ध्यान रखना कि उस इलाके में दंगा करवाना है’. ...  वे खुद कोई काम नहीं करते इसके लिए उसके एजेंटों की एक श्रृंखला है. फिर भीड़ के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया जाता है. अब आप भीड़ को कैसे गिरफ्तार करेंगे?”(पृ.88) जब गृह सचिव जैसे बड़े ओहदे का अधिकारी इतनी लाचारी दिखाए तो जनतंत्र की हत्या पर बस अफशोस ही किया जा सकता है. वे ‘मैथिली’ को बताते हैं, “जब मैं गृहसचिव था तो मैंने आदेश दिया था कि लिखित आदेश के बिना कोई कदम नहीं उठाया जाएगा. जब बंद की घोषणा हुई (27 फरवरी 2002) तो मुख्य सचिव सुब्बाराव ने मुझसे कहा कि वीयचपी नेता तोगड़िया रैली करना चाहते हैं तथा मेरी राय जानना चाहा. मैंने ऐसी किसी भी रैली को अनुमति न देने की बात की क्योंकि इससे हालात काबू से बाहर हो जायेंगे. मुख्यमंत्री के जब इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने सवाल किया कि मैं ऐसे कैसे कर सकता हूं. अनुमति तो देनी ही पड़ेगी. जब मैंने लिखित आदेश की मांग की तो वे (मोदी) मुझे घूरने लगे.”
      अंतरात्मा की आवाज़ सुनने वाला एक ईमानदार पुलिस अधिकारी भी जांच आयोग के सामने चुप था, अवकाश प्राप्त जीवन में एक ‘प्रवासी’ फिल्म मेकर के सामने मुखर हुए. वार्तालाप का एक लंबा उद्धरण अप्रासंगिक न होगा. राजन प्रियदर्शी 2007 में मठभेड़ में हत्याओं की सीआईडी द्वारा जांच के समय एटीयस प्रमुख थे तथा 2002 के दंगों के दौरान राजकोट के आईजी थे. “उनके साथ उनका दलित होना हमेशा जुड़ा रहा. कई बार उन्हें वरिष्ठों के गंदे काम करने को मजबूर होना पड़ा.”
मैं जब से यहां आई हूं, हर कोई सोहराबुद्दीन मुठभेड़ की चर्चा कर रहा है?”
‘पूरा देश मुठभेड़ की बात कर रहा है. इन्होंने एक मंत्री की शह पर शोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति को उड़ा दिया. ये मंत्री अमित शाह है जो मानवाधिकारों में विश्वास नहीं करता. वो हमें बताया करता था कि उसका मानवाधिकार आयोगों में कोई भरोसा नहीं है. ....’
आपने कभी उनके मातहत काम नहीं किया?”
‘किया है, जब मैं एटीयस का प्रमुख था. ... मैं तो मानवाधिकारों में भरोसा रखता हूं. इस शाह ने एक बार मुझे अपने बंगले पर बुलवाया. मैं तो आज तक न किसी के बंगले पर गया हूं न ही किसी के घर या दफ्तर में. मैंने उसे बताया कि सर मैंने आपका बंगला नहीं देखा है. वह खीझ गया, बोला मैंने उसका बंगला क्यों नहीं देखा है. फिर उसने कहा कि वह मुझे लेने के लिए अपना निजी वाहन भेज देगा. ....... मेरे पहुंचते ही बोला, ‘अच्छा आपने एक बंदे को गिरफ्तार किया है न, जो अभी आया है एटीयस में, उसको मार डालने का है.’ मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तब वे बोले, ‘देखो मार डालो, ऐसे आदमी को जीने का कोई हक़ नहीं है.’
 “मैं तुरंत अपने दफ्तर लौटा और अपने मातहतों की बैठक बुलायी. मुझे डर था कि अमित शाह उन्हें सीधे निर्देश देकर उसे मरवा सकता था. मैंने उनसे कहा, देखो मुझे उसे मारने का आदेश मिला है, लेकिन कोई उसे छुएगा नहीं, केवल पूछ-ताछ करनी है. मुझसे कहा गया है, चूंकि मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं, इसलिए कोई भी ऐसा नहीं करेगा.”
 “ये तो बहुत साहस की बात थी?”
“इस नरेंद्र मोदी ने मुझे उस दिन बुलाया जिस दिन मैं रिटायर हो रहा था. ........ ऐसे ही कई सवाल पूछे.  ..... फिर वे बोले, “अच्छा ये बताओ सरकार के खिलाफ कौन कौन लोग हैं, मतलब कितने अफसर सरकार के खिलाफ हैं?  ………..”
आपके राज्य में कोई डीजी क्यों नहीं है?”
“क्योंकि मोदी को कुलदीप शर्मा नामक अफसर से बदला लेना है.”
“मुझे पता चला है कि उनकी अफसरों की एक अपनी टीम भी है?”
 “मैं जब जूनागढ़ का आईजी था, तब वहां एक दंगा हुआ था. मैंने कुछ लोगों के खिलाफ एक य़फआईआर दर्ज की थी. गृहमंत्री ने मुझे फोन करके पूछा, “राजन जी कहां हैं आप?” मैंने जवाब दिया, ‘सर मैं जूनागढ़ में हूं.’ फिर उन्होंने कहा, “अच्छा तीन नाम लिखो आपको इन तीनों को गिरफ्तार करना है.” मैंने कहा, “सर ये तीनों अभी मेरे पास बैठे हैं और मैं आपको बताना चाहूंगा कि ये मुस्लिम हैं और इन्हीं के चलते हालात सामान्य हुए हैं. इन्हीं लोगों ने अपनी कोशिस से हिंदुओं और मुस्लिमों को एकजुट किया है और दंगे को खत्म करवाया है.” वे बोले, “देखो सीयम साहब ने कहा है.” उस वक्त ये नरेंद्र मोदी ही मुख्यमंत्री था. उन्होने कहा कि ये सीयम के आदेश हैं. मैंने जवाब दिया, “सर, मुख्यमंत्री का आदेश होने के बावजूद, मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि ये तीनों निर्दोष हैं.”
“फोन पर कौन था?”
“गृहमंत्री गोरधन जफड़िया.”
“कब की बात है?
“जुलाई, 2002 के आसपास की, तब जड़फिया ने कहा था वे खुद वहां आएंगे.”
“और ये कौन लोग थे?”
अरे ये अच्छे लोग थे. मुसलमान थे जो दंगे को खत्म करना चाह रहे थे. मेरी जगह कोई और होता तो उन्हें ही गिरफ्तार कर लेता.
....................
अमित शाह ने आपसे जिस शख्स को उड़ाने को कहा था, क्या वह मुस्लिम था?”
“नहीं वे उसे इसलिए हटाना चाहते थे कि विजनेस लॉबी की ओर से कोई दबाव था.”
“मुझे पता चला है कि कुछ अफसरों से जबरन इशरत जहां की मुठभेड़ करवाई गयी?”
देखो यह बात मेरे तुम्हारे बीच है की है. इन लोगों ने ... यानि बंजारा-गैंग ने 5 सरदारों को गिरफ्तार किया, उसमें एक कांस्टेवल भी था. बंजारा का कहना था कि ये सब आतंकवादी हैं और इनकी मुठभेड़ कर देनी चाहिए. उनके सौभाग्य के संयोग से पांडियन उस वक्त यसपी था. उसने इंकार कर दियो और पांचों बच गए.”
“यानि सारे अधिकारी मुस्लिम विरोधी नहीं हैं?”
नहीं वे नेताओं के इशारे पर ऐसा करते हैं. जो उनकी बात नहीं मानते उन्हें वे कहीं दूर पटक देते हैं. ..........
 “यह सरकार भ्रष्ट और सांप्रदायिक है. इस अमित शाह की लो. मेरे पास आकर शेखी बघारता था कि 1985 में उसने कैसे-कैसे दंगे भड़काया था. वह हर बड़े अधिकारी को अपने यहां बुलाकर दरबार लगाने का शौकीन था. ............”
“लेकिन तज्जुब होता है कि उसने यह सब आपको बताया?”
“उसे मुझपर भरोसा था. दर-असल उसी ने मुझे इशरत के मामले के बारे में बताया था. उसने बताया कि मारने के पहले इशरत को हिरासत में रखा था और उन पांचों को मार दिया गया था, मुठभेड़ की बात पूरी तरह बकवास है. उसी ने बताया था कि वह आतंकवादी नहीं थी.”
“आश्चर्य है कि एटीयस जैसी अहम एजेंसी के मुखिया पद पर आपको रहने दिया?”
“उस समय तक वे मुझे भी अपना आदमी समझते थे, सोचते थे, जैसा कहेंगे वैसा ही करूंगा. ................
पीसी पांडेय ने दंगाइयों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, दरअसल मुसलमानों के कत्ल-ए-आम के लिए वही जिम्मेदार है. वह मुख्यमंत्री का चहेता है. .................”


मैक्यावली प्रिंस को सलाह देता है कि वैसे तो प्यार से वफादारी हासिल हो तो बेहतर है लेकिन प्यार भरोसेमंद साधन नहीं है. भय सबसे भरोसेमंद साधन है. गर्दन पकड़ो तो दिल-दिमाग अपने आप रास्ते पर आ जायेगा. वह कैलीगुला के हवाले से बताता है, “लोगों की नफरत से कोई पर्क नहीं पड़ता, बशर्ते वे मुझसे डरते रहें.” भय पैदा करने के लिए ‘कुछ कत्ल तो करने ही पड़ेंगे.’ इसके लिए उसका मंत्र है. तेजी से कत्ल करो और आहिस्ता-आहिस्ता घाव भरो. लेकिन कत्ल का तांडव जल्दी रुकना चाहिए. कत्ल का जिम्मा ऐसे ओहदेदार को सौंपो जिससे सत्ता की दावेदारी का खतरा हो. जैसा कि मीरा बेन कोदनानी तथा कत्ले-आम का तांडव रुकते ही कातिल का कत्ल कर दो. मोदी ने भय का जो माहौल खड़ा किया कि गुजरात के नौकरशाहों और पुलिसियों की बात ही छोड़िये, जिस पत्रिका के लिए जान जोखिम में डालकर 8 महीने जासूसी पत्रकारिता के जरिए दुर्लभ सबूत जुडाया उस पत्रिका के संपादक इतने भयाक्रांत हो गये कि रिपोर्ट ही नहीं छाप सके. मैथिली के भेष में अयूब राणा अपने स्टिंग के अगले चरण की तैयारी में तहलका के संपादक को फोन करती है तो उसे वापस बुला लिया जाता है.
      “अगली सुबह मैं दिल्ली पहुंचकर सीधे तहलका के दफ्तर पहुंची. मैंने मोदी की फूटेज अपने लैपटॉप पर ट्रांसफर कर लिया था. तरुण (तेजपाल) अपनी कैबिन में थे. शोमा भी वहीं आ गयीं. मैंने उन्हें फुटेज दिखाया. वे ओबामा की किताब देख कर हंस रहे थे.
      “मैंने पूछा, ‘मुझे वापस क्यों बुला लिया गया, कुछ ही दिन में उसके (मोदी के) दफ्तर से मुझे दुबारा मुलाकत का फोन आने वाला है.’
      “तरुण ने कहा, ‘देखो सोमा, बंगारू लक्ष्मण पर तहलका स्टिंग के बाद हमारा दफ्तर बंद कर दिया गया था, मोदी सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति, प्रधानमंत्री बनने के कगार पर है. उसको छुएंगे तो हम खत्म हो जायेंगे.’
      “मैं उनकी बातों से सहमत नहीं थी. क्या पूरा-का पूरा स्टिंग ऑपरेसन अपने आप में एक बहुत बड़ा खतरा नहीं था? लेकिन हमारे हर तर्क को उन्होने क जोरदार नहीं से नकार दिया.” (पृ.203)
      खोजी पत्रकारिता के लिए मशहूर चौथे खंबे के लंबरदार जब इतने भयाक्रांत हों तो चारण चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका के बारे में आसानी से अंदाज लगाया जा सकता है.
      “दो दिन बाद मैंने फोन से यूनिनोर सिम निकाल कर तोड़कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया तथा वही वर्ताव मैंने फोन के साथ भी किया. उस दिन मैथिली ने हमेशा के लिए दृश्य से गायब हो गयी. संपादकों ने कहानी न छापने का फैसला किया.” राणा के दिल पर क्या गुजरी होगी, कल्पना किया जा सकता है.
      “तब से मैं चुप रही. अब तक.” और जब उसने इसे किताब के रूप में छापने का फैसला किया तो उसे कोई प्रकाशक नहीं मिलता. खुद छापती है तो कोई वितरक नहीं मिलता. फासीवादी आतंक और क्या होगा?” भला हो सूचना क्रांति का कि लाखों प्रतियां ऑनलाइन बिक रही हैं.
जैसा कि पुस्तक की भूमिका में जस्टिस बीयन श्रीकऋष्णा[1] ने मार्क ट्वाइन के हवाले से कहा है कि सच्चाई फिक्सन से ज्यादा अजनबी होती है क्योंकि फिक्सन में वैकल्पिक संभावनाएं होती हैं सच्चाई में नहीं. इस उपन्यास की नायिका/जासूस लेखिका स्वयं है – “दुस्साहसी” खोजी पत्रकार राणा  अयूब-- जो “मैथिली त्यागी” नामक एक यनआरआई (प्रवासी भारतीय) फिल्मकार के चोले में जान जोखिम में डालकर राजनैतिक माफिआओं का सच उजागर करती है. गौरतलब है कि ये वही राणा अयूब है, तहलका में जिसके स्टिंग के आधार पर अमित शाह को फर्जी मुठभेड़ के मामले में जेल की हवा खानी पड़ी थी. यह अलग बात है कि मुंबई की संबद्ध अदालत से उसे क्लीन चिट मिल गयी. यह भी अलग बात है कि क्लीन चिट देने वाले जज को रिटायर होने के बाद राज्यपाली उपहार में मिल गयी. जासूसी अपने अंतिम चरण में पहुंच कर डॉन को गिरफ्त में लेने के करीब पहुंचती है कि डॉन की बढ़ती ताकत से भयभीत हो एजेंसी जासूस को वापस बुला लेती है. तब तक डॉन इतना शक्तिशाली हो जाता है तथा उसका देश भर में इतना भय व्याप जाता है कि उसे अपनी कहानी के लिए कोई प्रकाशक नहीं मिलता. किताब खुद छापती है तो कोई वितरक नहीं मिलता. भला हो ऍरिजान किंडल ऑनलाइन बुकिंग का कि इतनी महत्वपूर्ण किताब लोगों तक धड़ल्ले से पहुंच रही है.
2002 में गोधरा के प्रायोजन[2]  से इतिहास के भयावह जनसंहार से चुनावी ध्रुवीकरण से सत्ता में ने के बाद आयोगों की प्रतिकूल टिप्पणियों के बावजूद कुछ प्यादों की बलि के अलावा सभी प्रमुख किरदार पदों पर बने रहे. “शायद इसी से प्रोत्साहित हो, गुजरात में मुठभेड़ों की झड़ी लग गयी, जिनमें से ज्यादातर फर्जी निकले.“शायद इसी से प्रोत्साहित हो, गुजरात में मुठभेड़ों की झड़ी लग गयी, जिनमें से ज्यादातर फर्जी निकले.” किसी रचनात्मक सामाजिक-आर्थिक नीति के अभाव में, सत्ता पर पकड़ बनाये रखने के उद्देश्य सेमुसलमानों से “गुजराती अस्मिता” पर खतरे के नाम पर ये “मुठभेड़ें” ध्रुवीकरण की निरंतरता बनाये रखने के “प्रयास के हिस्से हैं”. (पृ.33). तहलका की एक पुरानी रिपोर्ट के हवाले से लेखक बताती हैं कि सोहराबुद्दीन हत्या के पहले से शाह का परिचित था जिसे आतंकवादी बताकर उड़ा दिया गया. इस मुठभेड़ के एक नायक गिरीश सिंहल को पश्चाप है. लेखक से इनकी बात-चीत काफी रोचक है, लेकिन मैं 2-4 वाक्य ही उद्धृत करूंगा, (फर्जी) “मुठभेड़ों  मे शामिल ज्यादातर अफसर छोटी जातियों के हैं. राजनीतिज्ञों ने ज्यादातर का इस्तेमाल करके फेंक दिया.” (पृ.42) मोदी को अपना काम निकालकर दरकिनार कर देने की बात बताने के बाद 10 मुठभेड़ करने की बात स्वारते हैं. देश की स्थिति कितनी चिंताजनक है जब नौकरशाह और पुलिस अधिकारी संवैधानिक कर्तव्य निभाने की बजाय राजनेताओं की चाकरी में अपराध रोकने की बजाय अपराध करने लगें! जैसा कि लेखक ने अशोक नारायण और राजन प्रियदर्शी के बयानों से दिखाया है, “सिंहल अपवाद नहीं बल्कि, नियम है.” राजन प्रियदर्शी के उपरोक्त लंबे उद्धरण में साफ कहा गया है कि मुठभेड़ें अमितशाह के निर्देश पर हुईं.  एक ईमानदार अफसर जीसी रैगर को जब सोहराबुद्दीन मुठभेड़ का मामला उन्हें सौंपा गया तो अमित शाह के दबाव में काम करने की बजाय उन्होंने अपना तबादला करा लिया. राज्य में ईमानदार अफसरों के बारे में पूछे जाने पर न्होंने कहा, “कई हैं लेकिन तालाब को गंदा करने के लिए एक सड़ी मछली ही काफी होती है.” नरोदा पाटिया की खलनायिका मायाबेन कोडनानी भी सिंहल का ही इस्तेमाल कर फेंक देने का रोना रोती हैं.
ऐसे में जब देश की अर्थव्यवस्था की पातालगामी गति तथा साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी के हाथों मुल्क की की नालामी से ध्यान हटाने के लिए और उत्तरप्रदेश में चुनाव के मद्देनज़र संघ परिवार तथा ब्राह्मणवादी ताकतें कैराना और कांधला से हिंदुओं के पलायन की अफवाहें फैलाकर समाज के ध्रुवीकरण की कोशिस में है, यह किताब एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसे ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुंचनी चाहिए. यह अमूल्य दस्तावेज ऐसे सबूतों से भरा पड़ा है कि सर्वोच्च न्यायालय को स्वतः संज्ञान ले अपराधियों पर मुकदमा करना चाहिए. यह दस्तावेज सबूत है कि कोई भी दंगा अराजनैतिक नहीं होता, न ही अप्रायोजित. यह इसका भी सबूत है कि कोई भी दंगा सरकार की शह पर ही लंबा चल सकता है. अशोक नारायण के शब्दों में, “मुठभेड़ में हुई हत्याओं के पीछे धार्मिक कम सियासी कारण ज्यादा हैं. सोहराबुद्दीन का ही देखिए. उसे नेताओं की शह पर मारा गया. अमित शाह इसीके चलते जेल में है. ऐसा हर जगह हो रहा है. यहां भी यही हो रहा है. फर्जी मुठभेड़ें या तो राजनीति प्रेरित होती हैं या फिर पुलिस वालों के अति-उत्साह का परिणाम. सवाल यह है कि लोग बार बार धर्मोंमाद की इनकी चुनावी चाल में फंस जाते हैं”? गणेशशंकर विद्यार्थी ने प्रताप में लिखा था कि जब तक लोग धर्मांधता और धार्मिक अंधविश्वासों, पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं होते, कुछ चालाक लोग उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे.
ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग
हिंदू क़लेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली 110007






[1] बाबरी विध्वंस के बाद मुंबईमें आरयसयस तथा शिवसेना द्वारा सांप्रदायिक तांडव की जांच के लिए बने श्रीकृष्णा कमीसन के अध्यक्ष, जिसकी रिपोर्ट सरकार के ठंडे बस्ते में विश्राम कर रही है. 
[2] जैसा कि बनर्जी आयोग ने कहा था कि उक्त कोच में बाहर से आग लगाना असंभव था. जरा सोचिए डेढ़ फुट के दरवाजे से त्रिशूल, तलवार से लैस कारसेवकों की ट्रेन के किसी कोच में बाहर से, पलक झपकते, इतनी भीषण आग लगाना कि पूरा कोच खाक़ हो जाय, संभव है?

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