शास्त्री जी, इसी सवाल से कि विकल्प क्या है? से शासक शासन कायम रखता है. विकल्पहीनता मुर्दा कौमों की निशानी है. ज़िंदा कौमें कभी विकल्पहीन नहीं होतीं. इस औपचारिक जनतंत्र का विकल्प जनभागीदारी का वास्त्विक जनतंत्र है. यह आभासी जनतंत्र है, जिसमें से जन वैसे ही गायब है जैसे प्लेटो की रिपब्लिक से पब्लिक. इसमें तंत्र में जन की भागीदारी मतदान तक है. 2014 में इवि में मैंने इसी पर पेपर पेश किया था जिसे यूपी पीयूसील ने एक किताब में छापा है : "युगचेतना बनाम जनचेतना" जो मैं ब्लॉग के खोजकर पेश करता हूं. वास्तविक जनतंत्र के लिए सामाजिक चेतना का जनवादीकरण आवश्यक है. पूंजीवादी जनतंत्र का एकमात्र विकल्प जनवादी जनतंत्र है जिसकी अनिवार्य शर्त है उत्पादन साधनों पर निजी स्वामित्व की समाप्ति. अभी मैं पंजाब के संगरूर जिले में दलितों के जमीन आंदोलन की फैक्ट फाइंडिंग से लौटा हूं. दलितों ने आरक्षित जमीन पर कब्जा करके 'दलित कलेक्टिव' बनाकर सामूहिक खेती करते हैं. इस मॉडल से घबराकर सरकार उनकी 'सांझा खेती' की मिशाल को तोड़ने के लिए दमन के हर तरीके अपना रही है. असली जमतंत्र के लिए जन के बीच जाकर सामाजिक चेतना का जनवादीकरण करना पड़ेगा. कर रहे हैं लोग अपने अपने तरीके से.
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