Sunday, June 26, 2016

दलित सामूहिकता

दलित सामूहिकता: पंजाब में दलितों का भूमि आंदोलन
ईश मिश्र
      7 जून 2016 को संगरूर में जमीन के अधिकार के लिए आयोजित रैली में जिले के विभिन्न गांवो के हजारों लोगों ने शिरकत की. तस्वीरों में ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी के लाल झंडे के साथ महिलाएं ज्यादा दिख रहीं हैं. खबर है कि अन्य जिलों के मुख्यालयों पर ऐसे ही प्रदर्शन हुए. तस्वीरें दलित चेतना और नारीवादी चेतना के एकसाथव उभार तथा जनवादीकरण के स्वस्फूर्त संगम की कहानी कहती हैं. 25 मई 2016 के पंजाब के अखबारों में प्रदेश के संगरूर जिले की भवानीगढ़ तहसील के बालद कलां गांव के जमीन के अधिकार के लिए आंदोलत दलितों पर पुलिस की बर्बर कार्रवाई की खबर छपी. जनहस्तक्षेप के साथियों ने वहां जाकर सच्चाई जानने का फैसला किया 28-29 मई को हमारी टीम ने आंदोलन के कुछ गांवो का दौरा किया. संगरूर से हमारे साथ असोसिएसन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (एयफडीआर) हो लिए. बालद कलां के दलित अनसूचित जाति समुदाय के लिए आरक्षित पंचायती जमीन की नीलामी में ‘फर्जीवाड़ा’ का विरोध कर रहे थे.
पंजाब की ग्रामीण संरचना में जातीय वर्चस्व का आधार आर्थिक संसाधनों, मुख्यतः खेती की जमीन पर मिलकियत में गैरबरारी है. इसीलिए जमीन कि यह लड़ाई जातिवादी दमन तथा जातिवाद के विरुद्ध भी है. दलित आंदोलनकारियों ने सामाजिक और आर्थिक मुक्ति की लड़ाई को जोड़ दिया है क्योंकि भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रहे हैं. जमींदार या बड़े-छोटे-मझले किसान ज्यादातर ऊंची जातियों (प्रमुखतः जाट) के हैं, दलित ज्यादातर भूमिहीन. गांवों में दो तरह की शलमात (सामूहिक) जमीनें हैं, नजूल और पंचायती. नजूल  जमीन ज्यादातर ऐसी जमीनें हैं, जिनके मालिक बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गये और जो पंजाब के उस तरफ से आये लोगों को बंटित करने के बाद बच गयी तथा जिन जमीनों के मालिक बिना उत्तराधिकारी या विरासत के मर गये. हर ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र में कुछ सार्वजनिक जमीन पंचायत के आधीन होती है. पंजाब विलेज कॉमन लैंड रेगुलेसन ऐक्ट, 1961 के तहत खेती की शलमात (सार्वजनिक) जमीन में एक-तिहाई पर अनुसूचित जातियों के आरक्षण का प्रावधान है. आंदोलन से जुड़े पंजाबी कवि तथा नवजवान भारत सभा के कार्यकर्ता सुखविंदर सिंह पप्पी ने बताया कि कागजों पर 56,000 एकड़ जमीन दलितों को आबंटित थी, लेकिन जमीन पर एक इंच भी नहीं. पंचायती जमीन की सालाना नीलामी होती है. आरक्षित जमीन की नीलामी की राशि बाकी की तुलना में आधी होती है. धनी किसान किसी डमी दलित किसान के नाम से बोली लगाकर जमीन पर कीबिज रहते रहे हैं. शिक्षा के प्रसार के साथ आई दलित चेतना में उभार से दलित अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए. बहुत दिनों से उनके प्रतिनिधि तमाम मंचों से ‘डमी’ दावेदार की चालबाजी से धनी किसानों द्वारा उनके हिस्से की जमीन हड़पने की बात करते रहे हैं, लेकिन पहली ठोस शुरुआत हुई 2008 में बरनाला जिले के बनरा गांव में.
पंजाब में किसान आंदोलनों का लंबा इतिहास है. लेकिन ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (ज़ेडपीयससी) के तत्वाधान में पंजाब के मालवा क्षेत्र बहुत से गांवों में चल रहा भूमि आंदोलन कई मायनों में पहले के आंदोलनों से अलग है. यह एक नये किस्म का जातीय/वर्ग संघर्ष है. इस संघर्ष में एक तरफ पंचायती ज़मीन की एक-तिहाई के असली हक़दार गांव के दलित हैं, दूसरी तरफ फर्जीवाड़े से उस पर, प्रशासन की मिलीभगत से काबिज रहे ऊंची जातियों (प्रायः जाट) के धनी किसान. इस आंदोलन में छात्रों की उल्लेखनीय भागीदीरी ही नहीं है, ज्यादातर मामलों में उन्ही की पहल से आंदोलन शुरू हुए. महिलाओं की बराबर की भागीदारी तो है ही, वे संघर्ष की अगली कतारों में हैं. इस आंदोलन की एक जो बहुत खास बात, जो कि भूंडलीय कॉरपोरेटी, भोंपुओं के हमले के चलते सामाजिक चेतना के व्यक्तिवादीकरण आक्रामक मुहिम को चुनौती देते हुए दलितों ने सामूहिकता की एक नई मिशाल कायम की है. संघर्षों के साथी जीने के साथी बन गये. संघर्ष की सामूहिकता की बुनियाद पर जिन गांवों के दलितों ने खेती की जमीन हासिल की है वहां उन्होंने सामूहिक खेती के प्रयोग से, सामूहिक श्रम तथा उत्पादों के जनतांत्रिक वितरण की प्रणाली के सिद्धांतों पर ज़ेडपीयससी के परचम तले दलित सामूहिक के विचार का निर्माण किया. झंडे का लाल रंग और केंद्र में सूरज का निशान व्यापक विचार-विमर्श के बाद अपनाया गया. ज़ेडपीयससी के कार्यकर्ताओं तथा अन्य लोगों ने बताया कि 16 से अधिक गांवों में संघर्ष से दलित सामूहिक बन चुके हैं तथा 100 से अधिक गांवों में संघर्ष जारी है. कुछ आंदोलनों के मार्फत दलित सामूहिक (दलित कलेक्टिव) की व्याख्या की कोशिस करेंगें.    
बनरा संघर्ष: एक नई शुरुआत
धोखा-धड़ी तथा प्रशासन की मिलीभगत के फर्जीवाड़े से दलितों के लिए आरक्षित पंचायती जमीन पर ऊंची जातियों के धनी किसानों का नियंत्रण बना रहा. 2008 में पहली बार बनरा गांव के दलितों ने इस रीति को ठोस चुनौती दी. बनरा गांव के बहाल सिंह ने क्रांतिकारी पेंदू मजदूर यूनियन के परचम तले गांव के 250 दलित परिवारों को लामबंद किया तथा उन्हें उनके अधिकारों के बारे में अवगत कराया. एकताबद्ध लामबंदी से न सिर्फ वे अपने अधिकारों के बारे में सचेत हुए बल्कि सामूहिकता की शक्ति के बारे में भी. आंदोलित लामबंदी ने ऐसा माहौल खड़ा कर दिया कि जाट जमींदारों तथा धनी किसानों के लिए कोई बिकाऊ डमी दलित मिलना असंभव हो गया. गौरतलब है कि इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रही थी. आंदोलन से सामूहिकता की विचारधारा ने जन्म लिया. सामूहिक बोली से बनरा के दलितों ने गांव की 33% पंचायती जमीन (9एकड़) पर सामूहिक पट्टा करवा लिया. आत्मसम्मान तथा मानवीय प्रतिष्ठा की दृष्टि से यह 9 एकड़ जमीन बनरा के दलितों के लिए जीवनरेखा साबित हुई. जातीय उत्पीड़न की पीड़ा की ताजी साझा यादों तथा साझे संघर्ष के अनुभव से एकता की शक्ति के अनुभव से उत्पन्न हुई सामूहिकता की समझ. जमीन पर उन्होने सामूहिक स्वामित्व, सामूहिक श्रम तथा समान वितरण के सिद्धांत पर दलित सामूहिकता का भवन खड़ा किया. खाद्यान्न उत्पादन के लिए जमीन बहुत कम है, प्रति परिवार 10 बिस्सा. सोची-समझी योजना के तहत वे धान-गेहूं की पारम्परिक फसल चक्र की बजाय सामूहिक जमीन पर चरी और बरसीम जैसी चारे की खेती का बारहमासी फसलचक्र अपनाया. यह आंदोलन सामूहिकता के भावी निर्माण तथा उसके फायदों की शिक्षा की प्रयोगस्थली बन गया. जमीन में हर परिवार की बहुत छोटी हिस्सेदारी को देखते हुए आर्थिक दृष्टि से जमीन की सुलभता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी कि आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा की दृष्टि से. 11 लोगों की निर्वाचित समिति उत्पादन तथा समुचित वितरण की देख-रेख करती है. वितरण अगले साल की बोली की रकम की बचत के बाद होता है. जैसा कि ऊपर कहा गया है कि खेती के मशीनीकरण और कीटनाशकों के इस्तेमाल से मवेशियों के चारे के लिए गांव की महिलाओं को दूर दूर जाना पड़ता था या जमींदारों के खेतों में जहां उन्हें अपमानित होना पड़ता था. जमीन का यह संघर्ष जातीय वर्चस्व के विरुद्ध आर्थिक संघर्ष है, सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों का संगम.
दलित सामूहिकता भावी आंदोलनों की प्रेरक शक्ति और अभिन्न प्रवृत्ति बन गयी. बनरा प्रयोग का प्रसार 5 साल से अधिक समय तक एक ही गांव तक सीमित रहा लेकिन दलित सामूहिकता का विचार पूरे मालवा में फैल गया जिससे उन धनी किसानों में हड़कंप मच गया जो फर्जीवाड़ा करके अभी तक दलितों के हिस्से की जमीन हथियाते रहे थे.

शेखा: सामूहिकता का अगला चरण
जैसा ऊपर कहा गया है कि बनरा सामूहिकता के विचार का अगला प्रयोग 2014 में बरनाला जिले के  शेखा गांव में हुआ. बनरा दलित सामूहिकता के प्रयोग से उत्साहित पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन (पीयसयू) से संबद्ध कुछ छात्रों ने सरकारी दस्तावेजों की छान-बीन से बनरा गांव की पंचायती जमीन में दलितों का हिस्सा मालुम किया तथा गांव के दलित परिवारों को लामबंद किया.  इस गांव के भूमिहीन दलितों को आरक्षित जमीन का फायदा कभी नहीं मिला था. छात्रों के नेतृत्व में दलित ग्रामीण विकास तथा प्रशासनिक दफ्तरों पर धरना, प्रदर्शन घेराव आदि के जरिए बनरा की ही तरह सामूहिक बोली से दलितों के लिए आरक्षित जमीन हासिल करने में सफल रहे. बनरा की ही भांति शेखा के दलितों ने भी प्राप्त जमीन पर साझा खेती की प्रणाली को ठोस रूप दिया. व्यक्तिवादी सोच को खारिज करते हुए साझा खेती की दलित सामूहिकता दलितों के विचार-विमर्श तथा लामबंदी का स्थाई मंच सा बन गया है. मार्क्सवादी शब्दावली में साझा खेती तथा दलित सामूहिकता श्रम सामाजीकरण की विद्यापीठ सा है. बनरा की ही तरह मानवीय प्रतिष्ठा तथा आत्म सम्मान के अर्थों में शेखा संघर्ष भी आर्थिक के अलावा सामाजिक न्याय की लड़ाई है. बनरा की ही तरह शेखा के दलितों ने भी पारंपरिक फसलचक्र से हट कर चारे की सामूहिक खेती शुरू की. महिलाओं को चारा के लिए दूर-दूर जाना या जमींदारों की जमीन में. ‘अपने’ खेत से अवमानना सह कर बड़ी जातियों के किसानो के खेतों से चारे की घास काटने से मुक्ति मिल गयी. इस आंदोलन की एक खास बात यह है कि इसे छात्रों ने शुरू किया. अन्य गांव के दलित छात्रों के पास पहुंचने लगे. पूरे राज्य में आंदोलन के विस्तार, संघर्ष को सांगठनिक आयाम देने तथा विभिन्न आंदोलनों के समन्वय के उद्देश्य से जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी(ज़ेडपीयससी) का गठन किया गया. मालवा (संगरूर, मानसा, पटियाला, जलंधर तथा लुधियाना जिले) के सैकड़ों गांवों में आंदोलन ज़ेडपीयससी के नेतृत्व में चल रहे हैं और दोआबा क्षेत्र से भी ऐसे आंदोलनों की भनक आना शुरू हो गयी है.

बालद कलां: आंदोलन का समेकीकरण
. इन आंदोलनों में मौजूदा विवाद का कारण, बालद कलां का आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है. यहां कुल शालमात जमीन का रकबा काफी है – 375 एकड़ जिसमें दलितों के लिए आरक्षित जमीन का रकबा 125 एकड़ है. पंचायती जमीन की नीलामी में पुलिस-प्रशासन तथा ऊंची जातियों की मिलीभगत से फर्जीवाड़े के विरुद्ध 24 मई 2016 को संगरूर जिले की भवानीगढ़ के बालद कलां के दलितों के सड़क-रोको आंदोलन पर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया तथा आंदोलन गोलीबारी की. कई आंदोलनकारी बुरी तरह घायल हो गये और कई गिरफ्तार. पुलिस बर्बरता की शिकार कई महिलाएं भी हैं. दो लड़कियां कोचिंग सेंटर जा रही थीं उन्हें भी पुलिस ने घसीट-घसीट कर पीटा. इस पुनीत काम को पुरुष पुलिस वालों ने ही अंज़ाम दिया.  28 मई को जब जनहस्तक्षेप की टीम  संगरूर जिले के कुछ आंदोलित गांवों के दौरे पर उन महिलाओं से मिली तो पैरों पर 4 दिन पुरानी चोट के ताजे नीले घाव दिखाते हुए उनके चेहरे पर खौफ नहीं, आत्मविश्वास और संघर्ष के दृढ़ संकल्प के भाव थे. उन्होंने कहा, “पुलिस कुछ भी कर ले, जान चली जाये पर जमीन नहीं छोड़ेंगे.” उन्होंने और बाकियों ने भी बताया कि यह उनके लिए सिर्फ आर्थिक मुद्दा नहीं है बल्कि सामाजिक भी. यह इज्जत का भी मामला है. पंजाब में खेती के मशीनीकरण तथा कीटनाशकों के प्रयोग से पशुओं के चारे के लिए घास की संभावनाएं कम होकर नहरों के तटों तथा खेतों की मेड़ों तक सिमट गयी हैं. दलितों के पास जमीन नहीं है. महिलाएं जब ऊंची जातियों के किसानों के खेतों से घास काटने जातीं तो उन्हें जमीन वालों के हाथों काफी अपमान एवं दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता था. अब उन्हें यह अपमान बर्दाश्त करने की बाध्यता नहीं है.
 2014 में ज़ेडपीयससी के नेतृत्व में लंबे संघर्ष के बाद सामूहिक बोली के जरिए जमीन प्राप्त करने के पहले तक दलितों को एक इंच जमीन नहीं मिली. अप्रैल 2014 से शुरू संघर्ष पर जमींदारों ने पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत से बहुत कहर बरपाए लेकिन संघर्ष की एकता तोड़ने में नाकाम रहे.
शेखा की सफलता के बाद अन्य गांव भी आंदोलित होना शुरू हो गये जिनमें जमीन के ज्यादा रकबे तथा दमन की गहना के बालद कलां का आंदोलन काफी महत्वपूर्ण है. 1961 में कानून बनने के बावजूद गांव के दलित अपने हिस्से की जमीन से वंचित थे तथा धनी किसान डमी दलित की बोली के आधार पर दलितों के हिस्से की जमीन हड़पते रहे. अपने अधिकार तथा सामूहिकता की ताकत की चेतना से लैस दलितों ने खुद को ज़ेडपीयससी की इकाई के रूप में संगठित कर संघर्ष छेड़ दिया. सामूहिक बोली से नीलामी में पट्टा हासिल कर साझा खेती शुरू कर दिया. यहां भी 11 लोगों की निर्वाचित कमेटी सामूहिक उत्पादन-वितरण की देखरेख करती है. अगली बोली के लिए आमदनी बचाकर उत्पाद सब परिवारों में बंट जाता है. थोड़ी जमीन में चारे की फसलें -- चरी व वर्सीम – की खेती के अलावा बाकी ज़मीन पर खाद्यान्न उपजाते हैं. कल तक जमींदार जिन्हें पैर की जूती समझते थे आज उनका सम्मान से जीना उन्हें रास नहीं आ रहा है. उन्होंने प्रशासन की मिलीभगत से इस बार फिर दलितों के हिस्से की जमीन हड़पने के चक्कर में हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर डटे हैं, कुछ भी हो जाये वे जमीन न छोड़ने को कटिबद्ध हैं. बालद कलां पूरे पंजाब में मिशाल बन गया है तथा सैकड़ों गांवों के दलित सदियों पुराने जातीय समीकरण को तोड़ते हुए जमीन की लड़ाई को व्यापक जनसंघर्षों में तब्दील करने को आंदोलित हो उठे हैं जिनकी कोई खबर मीडिया की मुख्यधारा में अछूत बनी हुई है.
 2014 के आंदोलन में पुलिस की बर्बर मार से हफ्तों  कोमा(बेहोशी) में रही गांव की 40 वर्षीय परमजीत कौर पुलिस की बर्बरता की याद कर रो पड़ीं, लेकिन उन्होंने बताया कि अपनी जमीन के चलते जमींदारों के अपमान से मुक्ति की खुशी में पुलिस की यातना की पीड़ा छोटी दिखती है. बालद कलां की सफलता के बाद, जैसा कि आंदोलन में शरीक पीयसयू के पृथवी सिंह ने बताया, संगरूर और बरनाला जिलों के लगभग 20 गांवों में दलित सामूहिक (दलित कलेक्टिव) बन चुके हैं तथा मालवा के बाकी गांवों में भी दलित सामूहिकता के आधार पर लामबंद हो रहे हैं. छोटी जमीनों पर सांझा खेती के बाद इतनी बड़ी जमीन पर साझा खेती एक चुनौती थी जिसे दलितों ने स्वीकार किया तथा साझा खेती के फायदे को चिन्हित. यहां भी सामूहिकता का सैद्धांतिक आधार सामूहिक स्वामित्व, सामूहिक श्रम प्रक्रिया तथा जनतांत्रिक वितरण है.  
बड़ौ: संघर्ष के लिए अध्ययन
बड़ौ दलित सामूहिकता ने संघर्ष को गतिमान बनाने के लिए संघर्ष के लिए पढ़ाई-लिखाई को प्राथमिकता दी है. जनहस्तक्षेप की टीम गांव वालों से रैदास धर्मशाला में मिली और दीवारों पर भगत सिंह, पाश तथा चे ग्वेरा के लेखन के उद्धरण यह देख खुशी से दंगस रह गयी. ज़ेडपीयससी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय पृथ्वी सिंह ने बताया कि जिन जिन गांवों में जलित सामूहिकता का गठन हो चुका है उनमें संगठन पुस्तकालय खोलने की योजना हना रहा है. पुस्तकालय की जरूरत के बारे में पूछने पर एक युवक ने अंबेडकर को उद्धृत करते हुए बताया कि पीड़ा से मुक्ति के लिए लड़ना पड़ेगा और लड़ाई के लिए पढ़ना पड़ेगा. एक साल पहले जब आंदोलन शुऱू हुआ था तो यहां भी पुलिस ने बर्बरता की वही कहानी दुहराया था यहां तक कि एक कबाड़ी बटोरने वाले को भी निर्ममता से पीटा था.
दलित महा पंचायत
मई में पंचायती जमीन की नीलामी से पहले अप्रैल 2015 में जेडपीयससी ने भवानीगढ़ में दलित महापंचायत का आयोजन किया जिसमें मालवा के उपरोक्त 5 जिलों के लगभग 100 गांवों से हजारों लोगों ने भागीदारी की. पंचायत ने जिन गांवों में दलित सामूहिकता बन चुकी है उन्हें और सुदृढ़ करने तथा अन्य गांवों में इसके विस्तार पर विचार-विमर्श किया.
20 मार्च को ग्राचों गांव में एक और दलित पंचायत हुई. इस गांव के दलितों ने भी जमीन हासिल कर सामूहिकता का निर्माण कर लिया है. 102 गांवों के लगभग 400 दलितों ने इस सम्मेलन में भागीदारी की. तब से कई सम्मेलन हुए. जनेड़ी गांव के सम्मेलन पर ऊंची जातियों के हमले का गांव वालों ने मुहतोड़ जवाब दिया.
मतोई: महिला सशक्तीकरण की मिशाल
वैसे तो कई गांवों में दलितों के संघर्ष जारी हैं लेकिन मतोई का संघर्ष गौरतलब है केयोंकि इस गांव के आंदोलन की शुरुआत और नेतृत्व छात्राओं ने किया. बनेरा में पीयसयू के छात्रों की पहल से उत्साहित मतोई गांव की शहर में पढ़ने वाली संदीप कौर के नेतृत्व में कॉलेज में पढ़ने वाली छात्राओं ने और गांवों की दलित छात्राओं तथा समर्थकों  के साथ मिल कर दलित परिवारों को लामबंद किया तथा लंबे संघर्ष के बाद जमीन हासिल कर साझा खेती और दलित सामूहिकता का गठन किया. वैसे तो कई गांवों के आंकड़े हैं लेकिन खेड़ी का मामला अनूठा है
खेड़ी: सामाजिक न्याय का मजाक
1976 में खेड़ी गांव के भूमिहीन किसानों को आवासीय प्लॉट आबंटित किए गये. पंजाब-हरयाणा चिच न्यायालय के एक आदेशानुसार, आबंटन के 3 साल के अंदर अगर मकान न बने तो पंचायत जमीन वापस ले लेगी. लेकिन 4 साल पहले तक उन्हें इसकी सूचना ही नहीं थी. गांव के कुछ पढ़ने वाले लड़कों ने जब जानकारी हासिल की तो सरपंच तथा प्रशासनिक अधिकारियों ने यह कह कर टालने की कोशिस की कि मियाद खत्म हो चुकी है. लेकिन बालद कलां और अन्य गांवों के आंदोलनों से प्रेरित, खेड़ी के दलितों ने जेडपीयससी के नेतृत्व में अपनी जमीन को लाल झंडे से घेर कर वहीं डेरा डाल दिया है. धनी किसानों तथा पुलिस के उत्पीड़न तथा धमकियों की परवाह न कर वे अपनी जमीन पर डटे हैं तथा सामूहिक खेती का मामला तो नहीं है लेकिन साझा रसोई का प्रयोग वे कर रहे हैं. धनी किसानों, पुलिस तथा प्रशासन के दमन-उत्पीड़नों को धता बताते हुए, आंधी-बारिस से लड़ते हुए वे अब अपनी जमीन से हटने के लिए तैयार नहीं हैं, कुछ भी हो जाये. इन्होंने तो सामूहिक रसोई में सारे परिवार मिल बांट कर बनाते-खाते हैं.    
इनकी जमीन छीनने के लिए धनी किसान पुलिस-प्रशासन की मदद से फर्जीवाड़े की कोशिस में लगे हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर आखिरी सांस तक कब्जा न छोड़ने के लिए दृढ़ संकल्प हैं. सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपमान झेलते हुए बड़ी जातियों के किसानों के खेतों में बुआई-कडाई करने वाले इन दलितों के लिए अपनी जमीन का विचार ही किसी सपने सा है. ज़ेडपीयससी के 54 साल के एक प्रमुख कार्यकर्ता, जिनका नाम जानबूझकर नहीं लिख रहा हूं, बात करते करते 2 साल पहले की नुभूतियों में खो गये जब ज़िंदगी में पहली बार ‘अपने’ खेत में फावड़ा चलाया था. वे उन 700-800 के आंदोलनकारियों में थे जिन्होने नीलामी में दलितों की सामूहिक बोली के लिए 2014 में चले लंबे संघर्ष के हिस्सा थे. उस समय भी पुलिस ने ऐसी ही बर्बरता दिखाई थी. वे इतनी बुरी तरह घायल हुए थे कि जटिल सर्जरी करनी पड़ी थी. टांगों में पड़ी स्टील अब भी दर्द करती है. न्होंने बताया, चोट का दर्द काफी था लेकिन अपने खेत के विचार की मन की खुशी से दब गया था. भूमिका अंग्रेजी राज के ही दिनों से आंदोलन तोड़ने, कमजोर करने का शासन की पुरानी रणनीति है आंदोलन क् प्रमुख कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमें. लेकिन पंजाब के दलितों ने मुकदमों से डरना बंद कर दिया है.   इस पूरे आंदोलन में पुलिस-प्रशासन की भूमिका दलित विरोधी रही है.
निष्कर्ष
ये आंदोलन इस धारणा के खंडित करते हैं कि पंजाब के खेतिहर संबंध सामंती की बजाय पूंजीवादी हैं क्योंकि जैसा कि स्पष्ट है कि ऊंची जातियों तथा प्रशासन में दलितों के प्रति भेदभाव आज भी एक सच्चाई है. राज्य की नीति निर्देशक सिद्धांत के संवैधानिक प्रावधान के तहत दलितों के लिए 1961 में जमीन आरक्षण का कानून पास हुआ लेकिन अब तक वह कागजों पर ही रहा. वैसे तो सरकार को चाहिए कि पंचायती जमीन की हर साल नीलामी के बजाय सामूहिक को लंबी अवधि के लिए पट्टे पर दे दे. जनेड़ी गांव में दलित सामूहिक को 23 हजार प्रति एकड़ की बोली पर पट्टा मिला वहीं गोशाला के लिए 7000 की दर पर 30 साल का पट्टा  दे दिया. दलितों की मांग है कि उन्हें भी उसी दर पर बोली  की छूट होनी चाहिए. छात्रों की पहल पर दलितों ने जमीन के हक़ की जो लड़ाई शुरू की है उसमें व्यापक जनांदोलन की संभावनाएं छिपी है. दलित प्रज्ञा और दावेदारी के प्रसार के साथ दलितों ने अपने हक़ के लिए लड़ना तो शुरू ही किया है साथ साथ सामूहिकता की मिशाल पेश की है जिसे ग्रामीण कम्यून निर्माण के लिए सैद्धांतिक बुनियाद के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.
ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली 11007
     







       
  

   
     


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