Tuesday, April 19, 2016

जेयनयू तथा संघी राष्ट्रोंमाद

जेयनयू का विचार और संघी राष्ट्रोंमाद
ईश मिश्र
  10 मार्च 2016 को शैक्षणिक परिषद (एसी) की बैठक में शिक्षक-छात्रों के सवालों से घबराकर, बैठक बीच में स्थगित कर, विश्वविद्यालय सुरक्षा कवच में भाग कर जेयनयू के कुलपति ने अभूतपूर्व मिशाल कायम की. जब प्रशासनिक ब्लॉक के अंदर बैठक चल रही थी तो बाहर आज़ादी चौक पर आजादी के गानों की ट्यून पर, जयभीम-लालसलाम के साथ नाचते-गाते हजारों छात्र इंकिलाब ज़िंदाबाद कर रहे थे. वे दिन याद आते हैं जब कोई भी छात्र कुलपति पार्थसारथी या उनकी अनुपस्थिति में कार्यवाहक कुलपति मूनिस रज़ा के दफ्तर में दरवाजा खट-खटा कर घुस सकता था और सहजता से अपनी बात रख सकता था. भारत के पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायनन जब कुलपति थे तो अक्सर किसी-न-किसी हॉस्टल के मेस में अचानक पहुंच जाते थे. छात्रों और कर्मचारियों के आग्रह को विनम्रतापूर्क अस्वीकार कर लाइन में लगकर गेस्ट कूपन लेकर खाना लेकर छात्रों के साथ बैठ जाते थे. सामने तथा अगल-बगल के छात्रों को मलयालम ऐक्सेंट की हिंदी में प्यार से डांटते कि गरम गरम इतना अच्छा खाना है और हम लोग शिकायत करते रहते हैं. खैर यही फर्क होता है विवेकसम्मत, संवेदनशील मानवीयता में तथा भक्तिभाव की असंवेदनशील कुटिलता में. छात्रों की मांगों पर प्रशासन का रुख अड़ियल बना हुआ है. आंदोलनकारी भी अपने संकल्प पर अड़े हुए हैं.
आज लिखे जाने के समय (13 मई, 2016) को भूख हड़ताल का 16वां दिन है. जैसा कि आरयसयस के मुखपत्रों में छपे लेखों तथा 2015 में विश्वविद्यालय प्रशासन में जमा किए गये कुछ देशभक्त शिक्षकों  के शोधपूर्ण डोजियर से स्पष्ट है, जेयनयू पर हमले की तैयारी बहुत पहले से चल रही थी. यह महज संयोग नहीं हो सकता कि पांचजन्य तथा ऑर्गनाइजर में जेयनयू पर लेखों में ही नहीं पुलिस और देशभक्त राजनेताओं वक्तव्यों में यौनाचार एवं देशद्रोह के अड्डे के रूप में जेयनयू का चित्रण डोजियर के बयानों से मेल खाते हैं. विवरणों में एकरूपता है. 9 फरवरी को अफजल गुरू की बरसी पर कार्यक्रम की बरसी पर आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम के हवाले संसद में मानव संसाधन मंत्री ने जिन छात्रों को देशद्रोही करार दिया उन नामों की जानकारी डोजियरकारों को साल भर पहले थी. इस लेख का मकसद अफजल गुरू पर कार्यक्रम की वैधता पर चर्चा नहीं है, इसपर सर्वोच्च न्यायालय के  पूर्व न्यायाधीश, जाने-माने अधिवक्ताओं समेत बहुत लोगों द्वारा बहुत कुछ लिखा जा चुका है तथा अफ़ज़ल गुरू को शहीद मानने वाली पीडीपी के साथ भाजपा सरकार में जूनियर पार्टनर है. इसका मकसद डोजियरकारों द्वारा शराब की बोतलें, सिगरेट के टोटे तथा कंडोम गिनने के गहन शोध से निकले 200 पेज के डोजियर के निष्कर्षों की समीक्षा भी नहीं है. इस पर भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है. लेकिन एक सवाल जरूर उठता है कि इन विद्वानों को यह पुनीत शोध प्रोजेक्ट किसने निर्देश पर किया, केंद्र सरकार शइस पर तीसरी दुनिया के पिछले अंक के लेख में चर्चा कर चुका हूं. इस लेख का मकसद है, आखिर ऐसा क्या है जेयनयू में कि संघ गिरोह इसे नष्ट करना चाहता है, लेकिन जेयनयू तो विचार बन चुका है, फैल रहा है दूसरे परिसरों में. जेयनयू के छात्रों ने नारा दिया, फढ़ने के लड़ो, ज़ुल्म से लड़ने के लिए पढ़ो. पढ़ने के लिए लड़ने का काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों ने आंदोलन का नायाब लहजा ईजाद किया है. 24 घंटे लाइब्रेरी खुलने की मांग को लेकर छात्र रात भर परिसर में प्रशासनिक ब्लॉक के सामने सड़क पर स्ट्रीटलाइट के नीचे पढ़ते हैं. स्वयंसेवक होने में गर्व महसूस करने वाले कुलपति ने उन्हें नोटिस दिया है, पुलिस उन्हें धमका रही है लेकिन छात्र निडर हो डटे हुए हैं. कुलपति महोदय ने बीयचयू को जेयनयू न बनने देने का ऐलान किया है, लेकिन वह तो जेयनयू बनना शुरू हो गया.  
     
       जैसा अब तक सर्वविदित हो चुका है, 11 फरवरी 2016 को कुछ कुख्यात चैनलों पर में तथा-कथित देशद्रोही नारेबाजी के फर्जी वीडियो के प्रसारण के आधार परिसर पर पुलिस कार्रवाई तथा मोदी सरकार के मंत्रियों और संघ गिरोह द्वारा इसे देशद्रोह के अड्डे के रूप में आक्रामक दुष्प्रचार के चलते लंबे  समय से मीडिया तथा सोसल मीडिया की सुर्खियों में रहने से जेयनयू का जातिवाचक संज्ञा संस्था -- से भाववाचक संज्ञा विचार --  में जेएनयू संक्रमण हो गया है. जी हां जेयनयू निश्चित रूप से एक विचार है -- लोकतान्त्रिक शैक्षणिक संस्कृति का विचार -- जो छात्रों को तथ्य-तर्कों के आधार पर यथार्थ की वैज्ञानिक समझ विकसित करने तथा उस समझ की अभिव्यक्ति के साहस निर्माण का समुचित परिवेश प्रदान करता है. वाद-विवाद, विचार-विमर्श की बुनियाद पर खड़ी यह संस्कृति जेयनयू की ऐतिहासिक विरासत है जिसे मौजूदा छात्रों ने गौरवान्वित किया है. जेयनयू का रात्रिकालीन बौद्धिक जीवन ज्ञान-प्रक्रिया का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जितना दिन का. जी हां जेयनयू एक विचार है द्वंद्वात्मक सवाल-दर-सवाल, अपनी सोच के संस्कार से शुरू कर हर बात पर सवाल की निरंतरता की प्रगतिशील ज्ञान-मीमांसा का विचार. जेयनयू एक विचार है जो मानता है कि किसी भी ज्ञान की कुंजी सवाल है, इसलिए कुछ भी सवाल से परे नहीं है न भगवान, न मार्क्स न मोदी सरकार और न ही देशभक्ति के आवरण में ब्राह्मणवाद. जेयनयू एक विचार है मिथ के अनावरण से इतिहासबोध का. फासीवादी निरंकुशता की विचारधारा के पोषक संघ संप्रदाय को सवाल-दर-सवाल की समस्कृति सदा से ही असह्य रही है. जब इसने विकास के नाम पर ब्राह्मणवादीं, संघी मनसूबों के आवरण में भूमंडलीय पूंजी के हाथों मुल्क गिरवी रखने के सरकारी मंसूबों पर सवाल उठाना शुरू किया तो सरकार और संघ गिरोह ने जेयनयू धावा बोल कर अपने अंत की शुरुआत कर दी.  जनतांत्रिक शैक्षणिक संस्कृति का निर्माण सार्वजनिक सभाओं, फिल्म प्रदर्शन तथा अन्य सांस्कृतिक कार्क्रमों के आयोजन, 24 घंटे खुले रहने वाले पुस्तकालय का सामाजाकरण, ढाबों की अड्डेबाजी की सर्जनात्मक बहसों की अनवरत श्रृंखलाओं का परिणाम है.
       इस विचार की जमीन आरयसयस जैसे पुराणपंथी संगठनों की जीवन रेखा, भक्तिभाव तथा अंध अनुशरण की प्रवृत्ति के प्रजनन के प्रतिकूल है. इसलिए शुरू से ही यह आरएसएस जैसे दक्षिणपंथी उग्रवादी संगठनों की आंख की किरकिरी बना रहा है. केंद्र सरकार की शह पर ब्राह्मणवादी ताकतों द्वारा रोहित वेमुला की संस्थानात्मक हत्या के विरोध का अड्डा बनते ही दक्षिणपंथी उग्रवाद के संचित रोष का घढ़ा फूट गया. अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध के इस अड्डे को सरकार ने देशद्रोह का अड्डा घोषित कर धावा बोल दिया तथा संघी भोंपू आक्रामक दुष्रचार में जुट गये. हमले के तुरंत बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह तथा रोहित वेमुला की संस्थानात्मक हत्या की प्रमुख किरदार, मानव संसाधन मंत्री के बयानों की बौखलाहट से स्पष्ट है  यह हमला पूर्वनियोजित था. जैसे गोधरा के प्रायोजन से गुजरात में कोहराम मचाकर समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से मोदी ने सत्ता हासिल की थी वही प्रयोग जेयनयू पर दोहराने की कोशिस की. गुजरात में हिंदुत्व पर खतरे का हौव्वा खड़ा किया था तो जेयनयू में राष्ट्रवाद का. अजीब बात है, पतनशील ब्राह्मणवाद जब खतरे में होता है तो कभी हिंदुत्व बन जाता है तो कभी राष्ट्रवाद. लेकिन जेयनयू तो विचार है, विचार दबता नहीं, मरता नहीं, इतिहास रचता है. जैसा कि जगजाहिर हो चुका है, एबीवीपी, आईबी तथा सरकारी रखैल, अफवाहबाज चैनलों की मदद से 9 फरवरी 2016 को कश्मीर पर एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में देशद्रोही नारों के फर्जी वीडिओ के इस्तेमाल से जेयनयू के क्रांतिकारी विद्यार्थियों पर देशद्रोह का ठप्पा मढ़ दिया. फिर भी प्रधानमंत्री समेत संघ परिवार के सभी प्रवक्ता गोबेल्स की तर्ज़ पर, जेएनयू के छात्रों द्वारा  भारत की बरबादी की नारेबाजी का झूठ लगातार दोहरा रहे हैं. संविधान के प्रति निष्ठावान ये युवा भारत के संविधान की दक्षिणपंथी, उग्रवादी हमले से रक्षा के लिए, जनता पर ज़ुल्म से लड़ने के लिए, मुल्क की बेहतरी के लिए कुर्बानी देने वाले हैं न कि भारत की बरबादी चाहने वाले.
        बचपन से ही वंदे मातरम् तथा भारत माता की जय के कंठस्थ नारे अचानक  भयावह लगने लगे हैं. एबीवीपी तथा आरएसएस के अन्य धड़ों ने इसे अल्पसंख्यकों, दलितों, तर्कवादियों और अब छात्रों पर आक्रमण का युद्धघोष बना दिया है. अल्पसंख्यकों तथा तर्कशील बुद्धिजीवियों पर हमले में “धार्मिक भावना के आहत” होने के कुतर्क की जगह परिसरों पर हमले में “राष्ट्रवादी भावना आहत” होने के कुतर्क ने ले ली है. भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने जेएनयू के संदर्भ में घोषणा की कि राष्ट्रवाद से समझौता नहीं किया जा सकता. और प्रकारांतर से यह भी कहा कि भारत माता कि जय बोलना ही राष्ट्रवाद है. गौरतलब है कि इनकी भारत माता की अवधारणा आम जन के अर्थ में दी गई नेहरू कि अवधारणा के विपरीत, सिंह पर सवार देवी है जिसके एक हाथ में त्रिशूल है और दूसरे में भगवा झण्डा. उनके अनुसार, इस नारे का उच्चारण न करना संविधान की अवहेलना है. गौरतलब है कि संविधान में कहीं भी राष्ट्रवाद अथवा भारत माता के संबंध में कुछ नहीं लिखा है.  किसी पर विशेष नारे के उच्चारण के लिए दबाव डालना उसके विचार, अन्तःकरण, आस्था तथा विश्वास के संवैधानिक मौलिक अधिकार का अतिक्रमण है. प्रधानमंत्री समेत तमाम भाजपा नेताओं द्वारा हिन्दू राष्ट्रवादी होने का दावा संविधान के प्राक्कथन की भावना का अपमान है जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक राज्य के रूप में चित्रित करता है. मोदी जी को यदि संवैधानिक जनतंत्र के इतिहास की जानकारी होती तो जानते, जैसा कि प्रसिद्ध इतिहासकार एरिक हाब्सबॉम ने कहा है, “संवैधानिक लोकतंत्र में संविधान के प्रति निष्ठा ही राष्ट्रवाद है.” भारत माता कि जयकार करते हुए अभिव्यक्ति और सभा करने के संवैधानिक अधिकारों पर हमला राष्ट्रवाद नहीं हुड़दंग है तथा संविधान का अपमान, अतः देशद्रोह.  जेएनयू एबीवीपी हुड़दंग का जवाब तर्क से देता है.
     हाल में अरुण जेटली  ने दावा किया कि एबीवीपी ने जेएनयू में वैचारिक जंग फतह कर लिया है. जेएनयू पर हमले तथा संघ के निराधार दुषप्रचार की विश्वव्यापी भर्त्सना तथा छात्रों के प्रतिरोध कि व्यापकता को देखते हुए, जेटली का हास्यास्पद दावा खिसियानी बिल्ली के खभा नोचने जैसा है. जेएनयू मुद्दे पर, मोदी समेत भाजपा के तमाम नेताओं के वक्तव्यों को पढ़-सुन कर लगता है कि भाजपा नेतृत्व में सारे के सारे झूठे और विदूषक हैं क्या? यह बात बहुत पहले ही स्थापित हो गई है कि तथाकथित राष्ट्रवादी चैनलों ने नारेबाजी के फर्जी वीडिओ प्रसारित किये. झूठी खबर फैलाकर समाज में अशांति फैलाने वाले चैनलों पर कार्रवाई करने की बजाय ये अनवरत रूप से वही चैनली झूठ अलापते जा रहे हैं. मोदी को देश के लिए भगवान का उपहार बताने वाले वेंकइया नायडू को जेएनयू का प्रतिरोध चंद अतिवामपंथी-माओवादियों की कार्रवाई लगती है जबकि हजारों-हजार छात्र जेएनयू के फ्रीडम स्कायर पर रोज राष्ट्रवाद की कक्षाएं कर रहे थे. सरकारी हुक्म का गुलाम जब एसी की बैठक से भागा तो वहां हजारों छात्रों का हुजूम ब्राह्मणवाद से आजादी के नारे लगा रहा था. जैसाकि मैंने अपने पिछले लेख में कहा है, यह एक बौद्धिक गृहयुद्ध, एक सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत है. रोहित वेमुला ब्राह्मणवाद के विरुद्ध इस निर्णायक सांस्कृतिक युद्ध का प्रतीक है तथा जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया नायक. संघ के मुख्यालय नागपुर में विशाल जनसमुदाय को संबोधित करते हुए जब वह संघिस्तान को ललकार रहा था तब खिसियाहट में एबीवीपी वालों ने उसपर हमला किया और जूता फेंका. कन्हैया ने जवाब में जोड़ी का दूसरा जूता भी फेंकने को कहा जिससे वे किसी के काम आ सकें. जेएनयू के विचार और संघी राष्ट्रोंमाद मे यही फर्क है.
भाजपा की उपरोक्त राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कार्यकर्ताओं से जेएनयू में विचारधारात्मक युद्ध पर ध्यान केन्द्रित करने को कहा. लगता है विचारधारात्मक युद्ध की संघी परिभाषा गुंडागर्दी, गाली-गलौज तथा वैचारिक विरोधियों के कार्यक्रमों में हिंसक हुड़दंग है. फासीवादी दमन, विद्यार्थी परिषद की गुंडागर्दी व संघी भोपुओं द्वारा देश द्रोह के कुप्रचार के बावजूद जेएनयू समुदाय - छात्र,शिक्षक तथा जेएनयू के पुराने छात्र -- रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या तथा जेएनयू पर हमले के विरुद्ध जारी संघर्ष को जनतंत्र तथा संविधान पर फासीवादी आक्रमण के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी संघर्ष में तब्दील करने को कटिबद्ध हैं.  
      जी हाँ, माननीय मोदी जी या जेटली जी या इनके नागपुरिया आक़ाजी, आप ठीक कह रहे हैं कि यह एक वैचारिक युद्ध है, विचारों की विचारधारा व फर्जी वीडियो व पूर्वनियोजित दुष्प्रचार की विचारधारा के बीच; विवेक की विचारधारा एवं हुड़दंग की विचारधारा के बीच; जेएनयू के विचार तथा दक्षिणपंथी हिन्दुत्व उग्रवाद के राष्ट्रोंमाद के बीच. जेएनयू एक विचार है जिसे दमन से न डराया जा सकता है न ही दबाया जा सकता है. दमन तथा जेल से जेयनयू डरा नहीं बल्कि इसका संघर्षशील संकल्प और मजबूत हुआ है. जैसा कि देशद्रोह के आरोप में जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद, उदीयमान इतिहासकार उमर ने कहा कि जेयनयू डरना जानता ही नहीं. जेटली के जेएनयू में विचारधारात्मक युद्ध में विजय की घोषणा हास्यास्पद लगती है. जमानत पर रिहा होने के बाद, 3 मार्च का कन्हैया का भाषण ऐतिहासिक हो गया. कन्हैया के ही नहीं, सभी छात्रों छात्रसंघ की उपाध्यक्ष शहला राशिद, संसद में संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए स्मृति इरानी द्वारा देशद्रोही घोषित अनिर्बन, उमर, अनंत, आशुतोष, अपराजिता आदि सभी के  भाषणों-लेखों में अद्भुत परिपक्वता, सुस्पष्टता तथा फासीवादी हमले से संविधान की रक्षा के संघर्ष की अडिग प्रतिबद्धता है. बीबीसी समाचार के अनुसार, कन्हैया के भाषण को लगभग 30 लाख लोगों के मध्य फेसबुक पर साझा किया गया तथा लाखों लोगों द्वारा पसंद किया गया.
        संघीय राष्ट्रोंमाद  जेएनयू को डराकार विद्रोह की आवाज को दबाना चाहता है, परंतु  जैसा उमर ने कहा कि, भय में जीना जेएनयू के स्वभाव में ही नहीं है. वैचारिक जड़ता के चलते नए नारे गढ़ने में असमर्थ दक्षिपंथी, उग्रवादी,  राष्ट्रोन्माद अपने घिसे-पिटे आदिम नारों का शोर मचाते हैं. जेयनयू एक विचार है तथा विचार गतिशील होता है तथा अपने गति के नियमों का निर्माण नए नारों से करता है. जी हाँ जेटली जी, संवैधानिक राष्ट्रवाद के विचार व दक्षिणपंथी राष्ट्रोंमाद के बीच, ब्राह्मणवादी रूढ़िवाद तथा मार्क्स व अंबेडकर के स्वप्नों के समानतावाद के बीच यह एक सांस्कृतिक तथा बौद्धिक युद्ध है. तथा जेएनयू के विचार तथा आरएसएस के राष्ट्रोंमाद के बीच इस युद्ध में विजय अंततः विचार की होगी.

जेएनयूः एक विचार
      जेएनयू वाकई एक विचार है -- अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का विचार. इस विचार के वाहक भावी इतिहास के नए सूत्रधार, देश के युवा है. आज हम इतिहास के एक ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जब जंतांत्रिक विचारों और संस्थाओं पर नाजी जर्मनी के पैटर्न पर फासीवादी हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। जेएनयू के विरुद्ध सोसल मीडिया पर जारी कई वीडियो में कुछ संघी भारत माता की जय के नारों साथ कन्हैया तथा उमर की मां-बहन को अश्लील भाषा में गालियां दे रहे हैं. यह है अमित शाह तथा अरुण जेटली का वैचाक युद्ध. वास्तव में, भक्ति भाव का शाखा प्रशिक्षण विद्रोह तथा विवेक की प्रवृत्तियों को कुंद बना देता है. इस हमले का जेएनयू का जवाब राष्ट्रवाद पर वैकल्पिक कक्षाएं तथा कल्पनाशील सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं. यह जेएनयू का विचार है.
       सारे संघी कुतर्कों तथा गोयबल्सी झूठ के जवाब में जेएनयू की एमफिल की एक छात्रा, अपराजिता राजा का एक लेख, जहां दीवारें भी बोलती हैं (इंडियन एक्सप्रेस,9 मार्च 2016) ही बहुत भारी पड़ता है. यदि सवाल की इज़ाजत न हो, आलोचनात्मकता तथा तार्किकता पर रोक हो तो कोई भी विश्वविद्यालय ज्ञान का केंद्र नहीं हो सकता. जेएनयू की पहचान भवनों, प्रयोगशालाओं और कम्प्यूटरों से नहीं है. यह यहाँ के विद्यार्थियों, शिक्षकों तथा कर्मचारियों से है, उनके बीच संवाद से है, उनके द्वारा विकसित ज्ञानमीमांसा के अभ्यास से है. हमारे प्रगतिशील वाद-विवाद तथा चर्चा-परिचर्चा से उभरी समझ पर अमल की प3वृत्ति है जिसने एक हद तक समता मूलक जेंडर संबंधों तथा सामाजिक न्याय को संस्थागत बना दिया है. इस प्रकरण के शुरू से ही संघी प्रवक्ता जेएनयू के 9 फ़रवरी के सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन को सियाचीन में भूस्खलन से हुई सैनिक की मौत से जोड़ रहे है. जैसे कि हिमालय मे भूस्खलन जेएनयू में नारेबाजी से हुआ हो! जेएनयू का जवाब तथ्यपरक व्याख्या तथा तार्किक विश्लेषण है. इसीलिए जेएनयू एक विचार है.
         हम जेएनयू के पहले दशक के छात्रों को इस विचार के निर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी का फक्र है तथा हम इसके साथ खड़े रहने को दृढ़ संकल्प हैं.  फर्स्ट डेकेड ऑफ जेयनयूआइट्स  नामक फेसबुक समूह के सारे सदस्य संघर्ष के साथ एकजुट हैं. जेएनयू के दिनों में हम सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे के विरुद्ध उग्र बहसें करते थे लेकिन शाम को गंगा ढाबे पर एक साथ अड्डेबाजी करते थे. हमारी लड़ाई विचारों की थी न कि वैयक्तिक. मतभेदों का ससम्मान खंडन जेएनयू की विरासत है, दक्षिणपंथी उग्रवादी इस विचार का गुरुत्व नहीं समझ सकते. इसीलिए वे इस महान विरासत को बर्बाद करना चाहते हैं. परंतु विचारों की विरासत मरती नहीं बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती है. दमन-उत्पीड़न तथा राष्ट्रोंमादी दुष्प्रचार का  जेएनयू का जवाब 15 फरवरी को 3.5 किमी लंबी मानव क्षृंखला थी. 18 फरवरी अभिनव नारे तथा गीतों के साथ जेएनयू की कई पीढ़ियों की तरफ से 15,000 लोगों का अहिंसक संसद मार्च दिल्ली के इतिहास में अभूतपूर्व था. राष्ट्रोंमादी हमले का यह जेयनयू का जवाब है. फ्रीडम स्क्वायर पर 4,000-5,000 छात्रों की राष्ट्रवाद पर रोजाना की  कक्षा जेयनयू का जवाब है. एक जेएनयू का छात्र कभी भी भूतपूर्व जेएनयूआइट नहीं होता बल्कि अजीवन जेयनयूआइट ही रहता है. यह है जेएनयू का विचार.
       जेयनयू के विचार तथा दक्षिणपंथी उग्रवादी राष्ट्रोंमाद के बीच जारी युद्ध में तब से बहुत कुछ हो गया. पूरे विश्व से लोग जेयनयू के पक्ष में प्रदर्शन कर रहे हैं, लिख रहे हैं, बात कर रहे हैं. मोदी सरकार तथा संघपरिवार द्वारा कैम्पसों पर भगवा हमले की चहुंओर भर्त्सना हो  रही है. नाजी तूफानी दस्तों (एसए) के ढर्रे पर एबीवीपी इस सरकार की परा-सैन्य बल की भांति कार्य कर रही है, जिसका प्रमुख कार्य विरोधी दलों की सभाओं को तोड़ना था।  साम्यवादी तथा अल्पसंख्यक इसके मुख्य निशाने थे. 15 मार्च को उमर खालिद और आनिर्बान की रिहाई की मांग को लेकर संसद तक विरोध मार्च के  समापन पर सभा में संघी गुंडों ने पुनः जेएनएसयू के अध्यक्ष कन्हैया को गाली दी तथा उसपर हमले की कोशिश की. कन्हैया ने इसका जवाब संविधान के प्रति निष्ठा के साथ फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष को तार्किक परिणति तक ले जाने के संघर्ष की प्रतिबद्धता के ऐलान के साथ दिया. कन्हैया तथा अन्य छात्र नेताओं के तार्किक दलीलों के साथ तथ्यपरक भाषण उनकी क्रांतिकारी प्रतिबद्धता तथा देशभक्ति के परिचायक हैं. लेकिन उनकी देशभक्ति भारत के लोगों के प्रति सरोकार की है मोदी भक्ति की नहीं. बाहुबल के विरुद्ध तार्किक विमर्श जेएनयू का जवाब है. इसीलिए जेएनयू एक विचार है.
         15 फ़रवरी 2016 हमारे जीवन तथा जेएनयू के इतिहास का एक यादगार दिन था। नए तथा पुराने कामरेडों के साथ 3.5 किमी लंबी मानव श्रृंखला में भागीदारी का राजनीतिक तथा नैतिक आनंद अवर्णनीय है. उत्तरी गेट से प्रशासनिकक  ब्लॉक तक  अभिनव बैनर-पोस्टरों के साथ नवीन गीत गाते हुए, नए-नए नारे लगाते हुए हजारों विद्यार्थियों, शिक्षकों, जेएनयू के पुराने छात्रों के अनुशासित जुलूस ने, 70 के दशक को मुक्ति का दशक बनाने का सपना देखने वाले, हम लोगों के अंदर अनूठी आशावादिता का संचार कर दिया. जुलूस के बाद छात्र नेताओं द्वारा  लगभग 7,000-8,000 की शांतिपूर्ण लोगों की सभा को परिपक्वता, समझ, वैज्ञानिकता, प्रतिबद्धता एवं स्पष्टता के साथ सम्बोधन ने हमें अभिभूत कर दिया. फक्र है हमे जेएनयू के विरासत पर. दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के विरोध में नागरिक मार्च के बाद 19 फ़रवरी को जेएनयू के समर्थन में संसद मार्च सबसे बड़ी रैली थी. इसने मुझे अपने इस कथन की प्रामाणिकता की आश्वस्ति दी कि इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गियर नहीं होता, कुछ अल्पकालिक यू-टर्न आ सकते हैं  तथा यह कि हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है जो जल्द ही इस यू टर्न को उलट देती है और नई दिशा प्रदान करती है. यही जेएनयू का विचार है.
        शिक्षा के व्यावसायीकरण के सरकारी मंसूबों के विरुद्ध महीनों से चले ऑक्युपाई यूजीसी आंदोलन में जेएनयू के छात्रों की अग्रणी भूमिका रही. ब्राह्मणवादी उत्पीड़न से हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की शहादत के बाद जेएनयू  रोहित के न्याय के संघर्ष का केंद्र  बन गया. जय भीम-लाल सलाम के नारे एक ही मंच से लगने लगे. यह संघर्ष के एक बहुप्रतीक्षित नए आयाम का आगाज है. यह सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की नई एकता की शुरुआत है. जेएनयू के विद्यार्थी तथा शिक्षक अपने सरोकारों को केवल कैंपस प्रकरणों तक सीमित नहीं करते बल्कि उनका सरोकार विश्व तथा देश के सभी अन्य प्रमुख मुद्दों तक व्याप्त होता है. इस आंदोलन ने मुझे 1970 के दशक के उत्तरार्ध में जनता पार्टी के शाशन काल के एक आंदोलन की याद दिला दी. जेएनयू  के छात्रों ने जेएनयू छात्रसंघ के नेतृत्व में डीटीसी किराये वृद्धि के विरोध में सफल संघर्ष किया. डीटीसी की बसें परिवहन का प्रमुख साधन होती थीं. आंदोलन के दौरान हमें आंसूगैस, लाठीचार्ज तथा गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा.  राज्य के सभी अवरोधों तथा दमन के बावजूद हम शांतिपूर्ण तथा दृढ़ बने रहे. कई छात्रों के हाथ-पैर भी टूटे. ऋतु जयरथ-(वर्तमान में जेएनयू के रूसी अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर) के पैर में लगे प्लास्टर के बारे में चुटकुला था कि बहुत सारा साहित्य खो जाएगा इस प्लास्टर के हटने के बाद. अंततः हम किराया वृद्धि वापस कराने में सफल रहे. किराये में वृद्धि की  पूरी वापसी का यह शायद एकमात्र उदाहरण है। आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्र को लगा हम जब 12.50 रुपये के डीटीसी पास में पूरी दिल्ली की यात्रा कर सकते थे तो आंदोलन कि मूर्खता क्यों कर रहे थे?  हमारा जवाब था कि हमारे लिए दुनिया कि आबादी एक ही नहीं है क्योंकि व्यक्ति का वजूद महज आत्मकेंद्रित व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि समाज की सामूहिकता के अंग के रूप में है. हम सिर्फ अपनी मेस बिल के लिए नहीं लड़ते, हम सिर्फ अपनी हॉस्टल की समस्याओं के लिए नहीं लड़ते बल्कि ईरान में शाह के दमन के खिलाफ भी प्रदर्शन करते हैं.   हम सिर्फ फैलोशिप के लिए नहीं लड़ते बल्कि अफगानिस्तान में सोवियत फौज के खिलाफ भी प्रदर्शन करते हैं. इसीलिए जेएनयू दक्षिणपंथियों की आँख की किरकिरी बना रहा है. यही जेएनयू का विचार है.
          आंदोलन का यह सुखद अनुभव इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आंदोलनों के अनुभवों से अलग था. वहां छात्रों की विरोध रैली का अर्थ था पत्थरबाजी , तोड़-फोड़ , दुकानों की लूट तथा अन्य सार्वजनिक या निजी संपत्ति को क्षति पहुंचाना. हमने डीटीसी की बसें अगवा की तथा कुछ वरिष्ठ छात्रों ने  बसों की रखवाली की ज़िम्मेदारी ली ताकि उनकी बाहरी शरारती तत्वों तथा घुसपैठियों से सुरक्षा की जा सके. बड़े आदर तथा सम्मान के साथ कंडक्टरों तथा चालकों को कैंटीन ले जाया गया और समोसे, चाय, सिगरेट तथा बातचीत से उनका स्वागत किया गया. यह जेएनयू का व्यवहार है.
      अब पुरानी यादों कि चर्चा यहीं बंद करता हूँ वरना सालों में आत्मसात यादों का सिलसिला खत्म ही नहीं होगा. इस भाग का समापन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ(जेएनयूएसयू) के अनूठे चरित्र की चर्चा के साथ करना चाहूंगा. 1970 के उत्तरार्ध में लखनऊ विश्वविद्यालय का एक छात्र  चुनाव के समय जेएनयू आया था.  चुनाव की प्रक्रिया तथा चुनाव सभाएं देख चकित रह गया. एक चुनावी सभा के बाद उसने मज़ाक में कहा कि जेएनयू में कोई भी छात्र चुनाव लड़ सकता है, क्योंकि हारने व जीतने के अलावा यहाँ जान का खतरा नहीं होता. चुनावों में जन बल और धन बल का प्रयोग एक स्थापित जंतांत्रिक वर्जना है. यहाँ विवादों का निपटारा बाहुबल से नहीं बलकि छात्रों की आम सभा (जीबीएम) में व्यापक विचार-विमर्श द्वारा किया जाता है. जेएनएसयू का संविधान एक अनूठा दस्तावेज़ है. यह संविधान 1978 में छात्रों की संविधान सभा में पारित हुआ था. जीबीयम संविधान सभा में तब्दील हो गयी थी. संप्रभु राष्ट्र-राज्यों के संविधानों के प्राक्कथनों की ही तरह इसका भी प्राक्कथन, "हम जेएनयू के छात्र......." से शुरू होता है. इस संविधान के निर्माण कि प्रक्रिया काफी लंबी चली। काफी अध्ययन, विचार-विमर्श के बाद प्रारूप समिति द्वारा निर्मित दस्तावेज़ पर प्रत्येक सेंटर तथा बाद प्रत्येक स्कूल की ता प्रत्येक छात्रावास के जीबीएम में  व्यापक विचार-विमर्श हुआ. इसके बाद प्रारूप समिति ने  मान्य संशोधनों को समाहित करके अंतिम प्रारूप(ड्राफ्ट) तैयार किया. संविधान सभा में तब्दील यूजीबीएम में व्यापक चर्चा के बाद इसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया. यह एक ऐतिहासिक जीबीएम थी. इस संविधान के अनुसार, जेएनयूएसयू के चुनाव एवं अन्य क्रियाकलापों में राज्य अथवा विश्वविद्यालय प्रशाशन की कोई  भूमिका या नियंत्रण नहीं है. यह संविधान छात्रों के विरुद्ध प्रशासन की कार्रवाइयों को मान्यता नहीं देता. निष्कासन के बावजूद कोई भी छात्र न महज छात्रसंघ का हिस्सा बना रहता है बल्कि चुनाव भी लड़ सकता है. यह है जेएनयू का विचार.
       छात्रसंघ का चुनाव एक निर्वाचित चुनाव आयोग करवाता है. सबसे पहले हर स्कूल के छात्र चुनाव आयुक्तों का चुनाव करते हैं. फिर निर्वाचित चुनाव आयुक्त आपस में से एक मुख्य चुनाव आयुक्त चुनते हैं. सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया का संचालन चुनाव आयोग करता है. किसी भी उम्मीदवार के विरुद्ध बाहुबल या धनबल के प्रयोग के किसी भी सबूत से नामांकन खारिज हो जाता है. चुनाव प्रचार में हाथ से लिखे पोस्टरों तथा पर्चों एवं चुनावी सभाओं से किया जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में पुलिस और प्रशाशन की कोई भूमिका नहीं होती. हाल के वर्षों में एबीवीपी के हुड़दंग के कुछ अपवादों को छोड़कर विश्वविद्यालय के पिछले साढ़े चार दशक के इतिहास में कोई हिंसक वारदात नहीं हुई. जेएनयू मे चुनाव का मौसम लोकतान्त्रिक उत्सव सा होता है। चुनाव की रात सारा जेएनयू रतजगा करता है. मतगदना के हर चरण के परिणाम की सब गाते गप्पियाते इंतज़ार करते हैं. जेयनयू छूटने के कई साल बाद तक हम इस लोकतांत्रिक उत्सव में शरीक होते रहे. सारे संगठनों के लोग आपस में अलग-अलग समूहों में मिलकर चाय-सिगरेट के साथ बिना किसी दुराग्रह के चुट्कुले सुनते सुनाते गप्पे करते अगले चरण के मतदान का इंतज़ार करते. हारने या जीतने वाले उम्मेदवारों में कोई कटुता नहीं होती. राजनैतिक मतभेद कभी निजी विरोध में नहीं बदलते. सामाजिक सहानुभूति का माहौल जेएनयू की खास खासियत रही है. इसीलिए जेएनयू एक विचार है.

आरएसएस का राष्ट्रोंमाद
    यहाँ का सवाल करने और वाद-संवाद का द्वन्द्वात्मक जंतान्त्रिक परिवेश भक्ति-भाव, अंध आस्था और अशनुरण भाव के प्रजनन के प्रतिकूल है जो कि दक्षिणपंथी उग्रवाद के स्तंभ हैं. जेएनयू की मिट्टी ब्राह्मणवादी पोंगापंथ तथा साम्राज्यवादी व्यवसायीकरण के भी प्रतिकूल है. (जब ब्राह्मणवादी विचारधारा अपने अस्तित्व के खतरे का सामना करती है, तो खुद को वह हिन्दुत्व या देशभक्ति के आवरण में छुपा लेती है, रोहित बेमुला मामले में हिंदुत्व कार्ड की गुंजाइश न देख, इसने राष्ट्रवाद का तुर्फ चल दिया.) इसलिए यह आरएसएस से लेकर जमात-ए-इस्लामी सभी दक्षिणपंथी उग्रवादियों की आँख की किरकिरी बना रहा है. हिन्दुत्व गिरोहों द्वारा आक्रामक कुप्रचार तथा राज्य के दमन की जेएनयू की प्रतिक्रिया शांतिपूर्ण प्रतिरोध है.
        जेएनयू के विचार के विपरीत, दक्षिणपंथी उग्रवादी राष्ट्रोंमाद की अभिव्यक्ति एबीवीपी के जरिये गुंडागर्दी, हुड़दंग तथा विरोधियों के कार्यक्रमों के हिंसक विरोध में होती रही है. ऐसा प्रतीत होता है कि विचारों और कल्पनशीलता के अभाव में अपने कार्यक्रम के आयोजन में अक्षम इसने दूसरे के कार्यक्रमों को हिंसा और गाली-गलौज से बाधित करने को ही अपना एकमात्र कार्यक्रम बना लिया है. इस ऋंखला में नागपुर की एक  विशाल सभा में जेएनएसयू अध्यक्ष कन्हैया के भाषण को बाधित करने का मामला सबसे ताजा है जहां उसने संघ मुख्यालय के थोड़ी ही दूरी से संघिस्तान के विरुद्ध जंग का ऐलान किया.
दिल्ली विश्वविद्यालय में ''भगत सिंह का जीवन व कार्य" विषय पर जेयनयू  के भूतपूर्व प्रोफेसर चमनलाल के लेक्चर का आयोजन था. एबीवीपी के 20-25 रणबाकुरे भारतमाता की जय के नारों के साथ हुड़दंग मचाना शुरू कर दिया. आयोजन तब भी चला. पटियाला हाऊस में जेएनएसयू के अध्यक्ष, छात्र व प्रोफेसर पर केसरिया गुंडों द्वारा आक्रमण के दौरान जिस प्रकार पुलिस मौन दर्शक बनकर खड़ी रही उसी प्रकार उपर्युक्त कार्यक्रम में हुड़दंग के जौरान भी. इन सब घटनाओं में एक पैटर्न दिखता है. 20-25 एबीवीपी के लोग प्रतिरोध के कार्यक्रमों में हिंसक हुड़दंग करेंगे. उनको रोकने की बजाय पुलिस आयोजकों को कार्यक्रम रोकने को कहती है। यह नाजी तूफानी दस्ते(यसए) की याद दिलाता है जो कि विरोधियों विशेषकर साम्यवादियों के कार्यक्रमों को हुड़दंग से बाधित करते थे तथा अल्पसंख्यकों की बस्तियों पर हमला बोलते थे और पुलिस अपनी आखों पर पट्टी बांध लेती थी.
       13 मार्च को एक पुराने जेयनयूआइट विजय शंकर चौधरी के नेतृत्व में नागरिक समाज  नामक संगठन ने जेयनयू स्पीक्स  विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया. नगरनिगम सभागार आम्रपाली की बुकिंग को आखिरी समय पर एक स्थानीय भाजपा नेता की शिकायत पर रद्द कर दिया गया। वक्ताओं में थे सुपरिचित वैज्ञानिक, प्रबीर पुरकायस्थ; जेएनयू के प्रोफेसर एसएन मलकर; महिला संगठन ऐडवा की जनरल सेक्रेटरी, कविता कृष्णन; विख्यात लेखक तथा कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तथा पूर्व जेएनएसयू अध्यक्ष जगदीश्वर चतुर्वेदी, तथा स्मृति इरानी द्वारा देशद्रोही करार, पिछली साल के जेयनयूयसयू अध्यक्ष आशुतोष और यह लेखक. जब आयोजकों ने सभागार परिसर के बाहर एक स्थान पर कार्यक्रम आयोजित करने का निर्णय किया तो अपने नियत पैटर्न का अनुशरण करते हुए 20-25 एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने आयोजन शुरू होते ही, “भारत माता की जय” तथा “बंदेमतरम्” के भयावह बन चुके नालों के उद्घोष के साथ हम पर लाठियों तथा पत्थरो से हमला शुरू कर दिया. पुलिस मूक दर्शक बनी रही. नीतीश कुमार के सुशासन के 200-2500 पुलिस वाले तथा 20-25 एबीवीपी के दंगाई. हिंसक लंपटों पर काबू पाने की बजाय पुलिस अधीक्षक ने आयोजकों को कार्यक्रम बंद करने का सुझाव दिया. इस दृश्य को बताने का मेरा उद्देश्य जेएनयू के विचार तथा दक्षिणपंथी उग्रवादियों के राष्ट्रोंमाद के बीच के अंतर दर्शाना ही नहीं है बल्कि पुलिस के सांप्रदायिककरण पर चिंता भी जाहिर करना  है.
      प्रख्यात कलाकार यमयफ हुसैन की प्रताड़ना सुविदित है। एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं के स्वघोषित प्रवक्ता बन उनकी प्रदर्शनी मे तोड़-फोड़ किया. उनके ऊपर धार्मिक भावनाओं के आहती के अनगिनत मुकदमें दायर कर दिये. उन्हे अपने प्यारे वतन को छोड़ने को मजबूर कर दिया गया. बहादुर शाह जफर की तरह हुसैन को भी दो गज जमीन न मिली अपने कूचे यार में. धार्मिक भावनाएं न हुईं मोम की गुड़िय हो गयीं हैं जो किसी भी आंच से पिघल जाती हैं. देश की जनतांत्रिक ताकतों को धर्म पर स्पष्ट स्टैंड लेने की जरूरत है. 
       2008 में, 25-30 एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग मे तोड़-फोड़ किया तथा एक इतिहासकर प्रोफेसर के साथ बदतमीजी तथा गाली-गलौच किया. वे दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में प्रख्यात इतिहासकर एके रामानुजन के निबंध थ्री हंड्रेड रामायनाज़, फाइव एक्ज़ाम्पल्स एंड थ्री ट्रांसलेसन्स  को शामिल करने का विरोध कर रहे थे. गौरतलब है कि यह पाठ्यक्रम 2 साल पहले से ही पढ़ाया जा रहा था. यहां भी मामला धार्मिक भावनाओं के आहत होने का था. सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश में बनी समीक्षा समिति के 4 में से 3 सदस्यों की अनुशंसा तथा शिक्षकों, छात्रों एवं प्रमुख इकिहासकारों के विरोध प्रदर्शनों को दर किनार कर, 20-25 लमपटों को भारत मान, दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने 2011 में पाठ्यक्रम से निकाल दिया.
         दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज के रंगमंच समूह अंकुर द्वारा सांप्रदायिक दंगों पर एक नाटक का मंचन एबीवीपी द्वारा बाधित कर दिया गया तथा एबीवीपी द्वारा संचालित डीयूएसयू द्वारा इस नाटक पर रोक लगा दी गई. प्रशासन ने हुड़दंगियों पर कार्ऱवाई करने की बजाय शांतिभंग की आशंका में नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
         2013 में मुजफ्फर नगर सांप्रदायिक हिंसा के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स के समाजशास्त्र विभाग में इसपर एक संगोष्ठी आयोजित की. संगोष्टी शुरू होने के पहले ही कुछ एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने “वंदे मातरम” चिल्लाना शुरू कर दिया। उनका विरोध इस बात पर नहीं था की "क्या कहा गया" बल्कि इस बात पर था की "क्यों कहा गया"?
         किरोड़ीमल कॉलेज मे "मुजफ्फरनगर बाकी है" के प्रदर्शन को भी इसी प्रकार एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने हुड़दंग मचाकर रोक दिया. एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने अंग्रेजी साहित्य के एक सीनियर प्रोफेसर तथा जाने माने नाटककार, केवल वर्मा को गाली-गलौच के साथ धमकियां दीं. प्रशाशन द्वारा इन हुड़दंगियों को पुलिस में देने की बजाय प्रदर्शन को ही रुकवा दिया गया.
       ब्राह्मणवादी गिरोहों द्वारा रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या पर बहुत कुछ लिखा-कहा जा चुका है, यहां सिर्फ दक्षिणपंथी उग्रवादियों द्वारा विश्वविद्यालय परिसरों में वफादार, संघी कुलपतियों की मदद से असहमति की अभिव्यक्ति पर हमले के पैटर्न की तरफ इशारा करना है. रोहित के मामले में धार्मिक भावनाओं के आहत होने की चाल न चलती देख देशद्रोह का शगूफा छोड़ दिया. रोहित अंबेडकर स्टूडेंट्स असोसिएसन(एयसए) का सक्रिय कार्यकर्ता था. एयसए ने हैदराबाद में मुज़फ्फरनगर बाकी है के प्रदर्शन को रोकने के लिए एबीवीपी के हुड़दंग का विरोध किया. जैसा कि सुविदित है कि एबीवीपी की शिकायत तथा स्मृति इरानी के निर्देश से एयसए के 5 सदस्यों को हॉस्टल से निष्कासन, छात्रवृत्ति पर रोक तथा सांस्थानिक पाबंदियों का दंड दिया. भविष्य के रोहितों के लिए एक भावी लेखक ने एक खत लिख कर शहादत दे दी. कई मामले में रोहित की शहादत भगत सिंह सी लगती है.
      जब जेयनयू रोहित की शहादत के प्रतिरोध का गढ़ बन गया तो गृहमंत्री ने उसे देशद्रोह का अड्डा घोषित कर दिया तथा मानव संसाधन मंत्री ने परिसर को देशद्रोहियों से मुक्त कराने का ऐलान कर दिया. छात्रों की गिरफ्तारी तथा आक्रामक दुष्प्रचार अब इतिहास बन चुका है. जेयनयू में भी वही पैटर्न, जैसे 1933 नाज़ी तूफानी दस्तों ने राइशटाग(संसद) में आग लगाकर इल्ज़ाम सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी पर लगाकर रोष्ट्रोंमादी दुष्प्रचार के साथ कम्युनिस्टों तथा अल्पसंख्यकों पर हमला शुरू कर दिया. लेकिन 2016 का भारत 1933 का जर्मनी नहीं है. जेयनयू प्रशासन ने 9 फरवरी को एबीवीपी की शिकायत पर कुछ मिनट पहले कश्मीर समस्या पर सांस्कृतिक कार्यक्रम ए सिटी विदाउट पोस्टऑफिस की अनुमति रद्द कर दी. कार्यक्रम का एबीवीपी ने हुड़दंगी विरोध शुरू कर दिया. तथाकथित राष्ट्रवादी चैनलों ने भारत की बर्बादी के नारेबाजी के फर्जी वीडियो टेलीकास्ट किया जिसे बहाना बनाकर सरकार ने हमला कर दिया.
  आज हम इतिहास के एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं. यह, एक सांस्कृतिक-बौद्धिक गृहयुद्ध की  शुरुआत है: जेएनयू के विचार तथा संघी राष्ट्रोंमाद के बीच; असहमति के साहस  तथा हुडदंगी उत्पात के बीच; विचार की खूबसूरती तथा दमन की क्रूरता के बीच. एक तरफ विश्वविख्यात बुद्धिजीवी नोम चोम्स्की व उदीयमान बुद्धिजीवी अपराजिता राजा सरीखे लोग हैं, दूसरी तरफ सुब्रमण्यम स्वामी व वैंकिया नायडू सरीखे विदूषक. एक तरफ प्रतिरोध का प्रतीक बन चुका कन्हैया कुमार है, दूसरी तरफ उसपर आक्रमण करने वाले संघी गुंडे; एक तरफ कन्हैया पर हमला करने वाले दक्षिणपंथी उग्रवादी गुंडे हैं, दूसरी तरफ जेएनयू के छात्र जो गुंडे को चाय पिलाकर गेट तक सुरक्षित पहुंचाते हैं; एक तरफ उमर खालिद, अनिर्बन सरीखे तर्कशील छात्र हैं, दूसरी तरफ हिंसक धमकी के वीडिओ प्रसारित करने वाले एबीवीपी के लंपट; संक्षेप में एक तरफ विचार की स्वतन्त्रता के समर्थक तथा दूसरी तरफ स्वतन्त्रता के दमन के समर्थक. आज के अखबार, पत्रिकाओं, वेब पोर्टल्स के क्लिपिंग कल के इतिहासकारों की शोध सामाग्री हैं. 

जेएनयू तथा दक्षिणपंथी राष्ट्रोंमाद
       इस प्रकरण से राष्ट्रवाद तथा देशभक्ति पर; अभिव्यक्ति स्वतंत्रता तथा उसके दमन पर; सांस्कृतिक उत्सवों की आजादी तथा सास्कृतितिक पहरेदारी पर एक व्यापक बहस छिड़ गयी है. हर प्रतिकूलता में कुछ अनुकूलताएं छिपी होती हैं. विकासवाद के फूट चुके गुब्बारे, विश्व बैंक को राष्ट्रीय संप्रभुता समर्पित करने के मंसूबों, गरीबों की सब्सिडी खत्म कर कॉर्पोरेट को बैंकों का खजाना लुटाने, शिक्षा को गैट्स में शामिल करने के मंसूबों से ध्यान हटाने के लिए तथा परिसरों के भगवाकरण के मकसद से सरकार तथा संघ के संगठनों ने देशद्रोह का हव्वा खड़ाकर उन पर पर धावा बोल दिया. रोहित की शहादत ने जय भीम तथा लाल सलाम के नारों की एकता स्थापित की. यह एकता वक़्त की जरूरत है. यह प्रतीकात्मक एकता मार्क्सवाद तथा अंबेडकरवाद की बहुप्रतीक्षित एकता के पथप्रशस्तक संभावनाओं की द्योतक है. सामाजिक न्याय तथा आर्थिक न्याय की लड़ाई मिलकर ही लड़ी जा सकती है. 18 फरवरी के विशाल प्रदर्शन में भाग लेने आए जाने-माने कवि मनमोहन ने सही कहा था कि रोहित की शहादत ने सोते शेरों को जगा दिया.
      भाजपा नेताओं तथा सोसल मीडिया के मोदी भक्तों को पढ़-सुन कर देश की किस्मत पर रोना आता है तथा इनकी विवेकहीनता पर हंसी. भाजपा सांसद, सुब्रह्मण्यम स्वामी ने मांग की है कि विश्वविद्यालय के नाम से जवाहरलाल नेहरू का नाम हटा देना चाहिए क्योंकि वे विद्वान नहीं थे और विश्वविद्यालय को 4 महीने बंद कर देशद्रोहियों का सफाया करना चाहिए. जाहिर है जिनके शीर्ष विद्वान माधवराव सदाशिव गोल्वकर तथा दीनदयाल उपाध्याय हों वे भारत के एक मात्र बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री को कैसे विद्वान मान सकते हैं? भारत की खोज(डिस्कवरी ऑफ इंडिया) तथा दुनिया की झलकियां(ग्लिम्पेसेज़ ऑफ द वर्ल्ड)  की बात न  भी करें तो उनकी एक आत्मकथा (ऐन ऑटोवायोग्राफी) जॉन स्टुअर्ट मिल की द ऑटोबायोग्राफी के समकक्ष एक क्लासिक आत्मकथा के दर्जे में आती है. गोलवल्कर ने अपनी चर्चित पुस्तक वि ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड  में मौलिक भूविज्ञान का नमूना पेश करते हुए उत्तरी ध्रुव को बिहार-उड़ीसा में प्रतिस्थापित कर हिंदुओं को अंग्रेजी राज के विरोध में ऊर्जा न व्यय कर हिटलर का अनुशरण की हिदायत देते हैं. दीनदयाल उपाध्याय भी गोलवल्कर के पद-चिन्हों पर चलते हुए मनुस्मृति को दुनिया की सबसे अच्छी तथा न्यायपूर्ण कानून की किताब मानते हैं. बौद्ध दर्शन पर मातृधर्म के साथ गद्दारी का आरोप लगाते हैं तथा धर्म पर आधारित राज्य की हिमायत करते हैं. उ.प्र. में भाजपा शासन में गोरखपुर विवि का नाम दीनदयाल के नाम कर दिया गया. यहां संघ के ग्रंथों की समीक्षा करना मकसद नहीं है सिर्फ संघ के विचारकों की बौद्धिक विसंगतियों की तरफ इशारा करना है जिससे उनके अनुयायियों के बौद्धिक स्तर पर आश्चर्य न हो.
      व्यवस्था की विसंगतियों पर सवाल करने के साहस तथा निर्भीक हो असहमति की अभिव्यक्ति को अंजाम देने तथा एक शोषण एवं अंधविश्वास से मुक्त खुशहाल भारत का सपना देखने वाले जेएनयू के छात्रों पर देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया जाता है. औपनिवेशिक शासन के इस काले कानून को रद्दी की टोकरी में डालने की बजाय सरकारें इसका उपयोग विरोधियों के दमन के लिए करती रही हैं. गौरतलब है कि अंग्रेजी हुक्मरानों ने इसी कानून के तहत तिलक, गांधी तथा भगत सिंह जैसे स्वतन्त्रता सेनानियों को बंद किया था. ये छात्र कामगारों, कृषकों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं एवं गरीबों के संगठनों के साथ मिलकर भावी क्रांति के सूत्रधार हैं। मैं देशद्रोही करार सभी छात्रों को जानता हूं, कुछ को बहुत करीब से तथा गारंटी के साथ कह सकता हूं कि ये क्रांतिकारी छात्र भारत को दुख-दारुण, शोषण-दमन, असमानता तथा नफरत से मुक्त एक खूबसूरत देश बनाने के लिए खुद को न्योछावर कर देंगे, मुल्क की बर्बादी की बात सोचना तो दूर, ऐसा मंसूबा रखने वालों को मुहतोड़ जवाब देंगे. इसीलिए तो वे शिक्षा पर साम्राज्यवादी तथा भगवावादी हमलों के विरुद्ध निरंतर अलख जगाए हुए हैं.

       तब से यमुना में बहुत गंदा पानी बह चुका है. मीडिया के सभी प्रारूपों में राष्ट्रवाद, देशद्रोह तथा स्वतन्त्रता की हदों पर रोचक बहस छिड़ गयी है. एक तरफ तथ्यपरत तार्किक विश्लेषण है तो दूसरी तरफ झूठ तथा निराधार चरित्रहनन.  जेएनयू के साथ एकजुटता में देश-दुनिया के कई विद्वानों ने  शानदार, ज्ञानवर्धक लेख लिखे तथा लिख रहे हैं। जेएनयू-विरोधी लेख नीरस हैं, जो भारत कि बरबादी के नारे के उसी झूठ का गोयबेल्सियन आलाप कर रहे हैं.

वस्तुस्थिति
        मनुवाद (ब्राह्मणवाद) के हिन्दुत्ववादी लंबरदार भली-भांति जानते हैं कि ब्राह्मणवाद का विचारधारा के रूप में हजारों वर्ष के ऐतिहासिक वर्चस्व का आधार शिक्षा पर एकाधिकार के जरिए “ज्ञान” की परिभाषा तथा उस एकाधिकार रहा है. कानूनी रूप से शिक्षा की सार्वभौमिक सुलभता तथा आरक्षण नीति के चलते पिछली 2-3 दशाब्दियों में उच्च शिक्षा के परिसरों की संरचना में आमूल परिवर्तन आ रहा है. इससे ब्राह्मणवाद पर खतरा आ गया. अतः इसने आरक्षण को अप्रासंगिक बनाने के लिए शिक्षा संस्थाओं के निजीकरण और व्यावसायीकरण का रास्ता अपनाया तथा सरकारी वित्तपोषित संस्थाओं पर एबीवीपी के माध्यम से धावा बोल दिया. उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमले की शुरुआत मद्रास आईआईटी के पर अंबेडकर पेरियार अध्ययन सर्कल पर प्रतिबंध से हुई. उनपर आरोप था कि वे प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध असंतोष फैला रहे थे तथा जाति मुद्दा उठा रहे थे.
परिसरों के भगवाकरण की दिशा में सरकार ने संदिग्ध शैक्षणिक योग्यता वाले आरएसएस से जुड़े लोगों को उच्च शिक्षा संस्थानों में डायरेक्टर/कुलपति बनाया. प्रशासन ने एबीवीपी की मिलीभगत से असहमति तथा प्रतिरोध की आवाजों के दबाना शुरू किया. मद्रास के बाद हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय को निशाना बनाया. एफ़टीआईआई का प्रतिरोध पहले से ही अदम्य बना हुआ है.रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या ने सभी परिसरों में हड़कंप मचा दिया तथा जेयनयू इसका केंद्र बन गया. जेयनयू में प्रायोजित नारेबाजी गोधरा के प्रायोजन की याद दिलाता है जिसके बहाने गुजरात में प्रलय मचाकर मोदी ने सत्ता हासिल की.
रोहित की संस्थागत हत्या तथा देशद्रोह का शगूफा छोड़कर जेएनयू पर आक्रमण मोदी सरकार के लिए मंहगा साबित हो रहा है. इससे विश्व स्तर पर एक बौद्धिक युद्ध छिड़ गया है --  विवेक तथा राष्ट्रोंमाद के बीच. उच्चतर अकादमिक संस्थाओं के लोकतांत्रिक मूल्यों पर जारी आक्रमण ने बिखरे वाम छात्र संगठनों को एक मंच पर ला दिया उससे भी बड़ी बात वामपंथी संगटनों के साथ प्रगतिशील अम्बेडकरवादी संगठन भी जुड़ गय़े. बीएचयू के कुलपति ने जो आरएसएस से अपने संबंध पर गर्व का दावा करते हैं, कार्यभार संभालते ही मेगासेसे  पुरस्कार पाने वाले प्रोफेसर संदीप पाण्डेय की सेवा को समाप्त कर दिया, जिन्हें उच्च न्यायालय ने बहाल कर दिया. उन पर नक्सल होने तथा राष्ट्रविरोधी विचारों के प्रसार का आरोप था. जैसे मोदी जी बिना पढ़े-लिखे, सोचे-समझे कुछ भी बोल देते हैं, कभी केरल को कुपोषण में सोमालिया से बदतर बता देते हैं तो कभी भगत सिंह को काला पानी भेज देते हैं. अपने स्वयंसेवकत्व पर गर्व करने वाले ये कुलपति महोदय कुछ पढ़े-लिखे होते तो जानते कि संदीप पांडेय गांधीवादी हैं, नक्सल नहीं. भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलित 6 छात्रों को निकालते वक्त उन्होंने घोषणा की कि वे बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने देंगे. रोहित की संस्थागत हत्या के मुख्य अपराधी अप्पा राव की वापसी तथा छात्रों के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर पुलिस के नृशंस हमले से स्पष्ट है कि मोदी सरकार ढीली नहीं पड़ने वाली है. दमन के बावजूद छात्रों का प्रतिरोध जारी है. फासीवादी दमन की सीमा नहीं होती न ही क्रांतिकारी प्रतिरोध की. अतः यह एक लंबा संघर्ष होने जा रहा है. दमन का प्रतिरोध, प्रतिरोध का दमन; दमन का प्रतिरोध..... लंबी लड़ाई के लिए कमर कसनी है.

प्रतिरोध की शक्तियां
      यूरोपीय नवजागगरण तथा प्रबोधन आंदोलनों ने जन्मजात सामाजिक भेद को समाप्त कर दिया था.  19वीं शताब्दी में जब मार्क्स पूंजीवाद के राजनैतिक अर्थशास्त्र के गतिविज्ञान के नियमों का अन्वेषण कर रहे थे तब सामाजिक विभाजन का आधार केवल आर्थिक था. इसी लिए कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में मार्क्स-एंगेल्स लिखते हैं कि पूंजीवाद ने अंतरविरोधों को सरलीकृत कर समाज को 2 परस्पर विरोधी वर्गों पूंजीपति और सर्वहारा में बांट दिया. भारत में पारंपरिक-धार्मिक मूल्यों के निषेध के साथ नवजागरण के समतुल्य सामाजिक तथा साहित्यिक आंदोलन कबीर से शुरू हुआ था जिसका केंद्रेयीय विषयवस्तु थी सामाजिक तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता. यही नवजागरण का भी मूलमंत्र था. यह आंदोलन ब्राह्मणवाद तथा कठमुल्लेपन के अंत की तार्किक परिणति तक क्यों नहीं जा पाया वह अलग चर्चा का विषय है. मार्क्स की अपेक्षा के प्रतिकूल उपनिवेशवादी शासन एसिआटिक (वर्णाश्रमी) उत्पादन पद्धति को  तोड़ने की बजाय, औपनिवेशिक लूट के हित में इसके साथ मिली-भगत कर ली. भारतीय कम्युनिस्टों ने मार्क्सवाद को वस्तुगत परिस्थितियों को समझने की विधि के रूप में अपनाने की बजाय इसे एक मॉडेल के रूप में अपनाया. यद्यपि जातिवादी उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्षों की अग्रिम पंक्तियों में वामपंथी ही रहे क्योंकि शोषित जातियाँ ही शोषित वर्ग भी रही हैं.  तथापि मेरी राय में, अलग से जाति एजेण्डा को संबोधित न करना रणनीतिक ही नहीं सैद्धांतिक गलती थी. जाति अभी भी समाज की जीवंत वास्तविकता है. मंडल-विरोधी उंमाद के दौरान विपक्ष में वामपंथी ही थे. दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के वामपंथी अध्यक्ष एमएमपी सिंह को पद से स्तीफा देना पड़ा था क्योंकि आरक्षण समर्थन का प्रस्ताव जीबीयम ने निरस्त कर दिया था. जेएनएसयू के वामपंथी अध्यक्ष अमित सेनगुप्ता को भा उन्ही कारणों से इस्तीफा देना पड़ा था. अंबेडकर तथा उनके अनुयायियों ने ब्राह्मणवाद के मुद्दे को प्रमुख मुद्दा बनाया. सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक न्याय के समेकित संघर्ष के लिए अंबेडकरवादियों तथा वामपंथियों के बीच संवाद समन्वय एवं एकता की जरूरत लंबे समय से विलंबित थी. रोहित की शहादत ने संघर्ष में एकता का अवसर प्रदान किया है जिसे जेयनयू प्रकरण ने पुख्ता किया है. संघर्षों की एकता की परिणति सैद्धान्तिक एकता में होनी चाहिए. सिर्फ पूंजीवाद ही नहीं सिद्धांत के संकट से जूझ रहा है, समाजवाद भी. जय भीम व लाल सलाम के नारों की एकता की निरंतरता बनी रहनी चाहिए.जैसा कि जेयनयू तथा यचसीयू पर हमलों से स्पष्ट है कि शिक्षा तथा जनतंत्र पर हमला दुहरा है सांस्कृतिक और आर्थिक. संघर्ष भी दोनों मोर्चों पर हो रहा है. ब्राह्मणवाद द्वारा परिसरों के भगवाकरण के विरुद्ध तथा भूमंडलीय पूंजी के साम्राज्यवादी मंसूबों के विरुद्ध जो शिक्षा को व्यापारिक सेवा की भांति गैट्स में शामिल कर पूर्णरूप से एक उपभोक्ता सामग्री बना देना चाहता है.

       पिछले 25-30 सालों में परिसरों की संरचना के जातीय तथा लिंग समीकरणों में जबरदस्त बदलाव आया है. मनुवाद के तहत  शिक्षा से वंचित तपके दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियां तथा महिलाएं यानि, बहुजन -- का परिसरों में बहुमत है. इसका प्रमुख कारण दलित दावेदारी तथा प्रज्ञा एवं नारी दावेदारी तथा प्रज्ञा में आया अभूतपूर्व उफान है. जेएनयू में लगभग 60% महिला छात्र हैं. हर तरह के मार्क्सवादी और अंबेडकरवादी साथ मिलकर फासीवाद के विरुद्ध बहुत ही मजबूत ताकत हैं लेकिन अलग-अलग रहकर एक- एक करके कुचले जाने के लिए अभिशप्त, जैसा कि नाज़ी जर्मनी में हुआ था. आज फासीवाद महज कल्पना नहीं है, वास्तविकता है. एबीवीपी के सदस्य पुलिस की मौजूदगी में विरोधियों की सभाओं में हुड़दंग मचा रहे हैं और सिर पैर तोड़ रहे हैं, जैसा ऊपर कहा जा चुका है नाजी तूफानी दस्ते की तर्ज पर. इतिहास से सीखने की जरूरत है.

समय की मांग
     जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस अघोषित आपातकाल का फासीवाद 1975 में घोषित आपातकाल के फासीवाद से दो कारणों से अधिक खतरनाक है। पहला, इंदिरा गांधी ने अपनी जनपक्षीय छवि तथा सोवियत संघ के समर्थन का औचित्य साबित करने के लिए संघ के नेताओं समेत कई मध्यवर्गीय दक्षिणीपंथियों को भी बंद कर दिया था, जिससे मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा कुपित था. यह  फासीवाद अल्पसंख्यको गरीबों, दलितों आदिवासियों एवं उनके समर्थकों को निशाना बना रहा है. दूसरे, घोषित आपातकाल में दमन के लिए इंदिरा गांधी के पास राज्य का ही दमनतंत्र था, मोदी के पास एबीवीपी, बजरंगदल, विहिप जैसे अतिरिक्त दमन तंत्र हैं तथा अफवाह फैलाने के लिए ज़रखरीद चैनल. इसीलिए प्रतिरोध भी मजबूत तथा एकीकृत होना चाहिए. हमारे युवा साथियों ने मिशाल पेश की है जिसका अनुशरण होना चाहिए.
      ऐतिहासिक रूप से युवा ही क्रांतिकारी आंदोलनों के वाहक रहे हैं. यह मेरी सदिक्षापूर्ण फंतासी भले हो लेकिन मुझे यह यह सांस्कृतिक क्रान्ति की शुरुआत लगती हैनवीनताओं के साथ  भारतीय प्रबोधनकाल, एक नए जोश, नई अंतर्दृष्टि तथा शक्तियों के नए समायोजन का प्रबोधनकाल जो ब्राह्मणवाद के साथ भूमंडलीय साम्राज्यवाद का भी मर्शिया लिखेगा.  फासीवादी दमन  तथा जय भीम-लाल सलाम के दो जुड़वा नारों के साथ छात्रों के संयुक्त प्रतिरोध ने नई एकता का मंच प्रदान किया है. इस मंच में संघर्षों की एकता को सैद्धांतिक एकता में तब्दीली की प्रबल संभावनाएं हैं, मगर तभी जब इन संगठनों की पार्टियों के हाई कमान निर्देश न दें तथा युवाओं की पहल को सम्मान दें. फौरी मकसद है ब्राह्मणवाद पर पर निर्भर संघी फासीवाद तथा साम्राज्यवादी कॉरपोरेटवाद के खतरे से निजाद. इस मंच में मार्क्सवाद तथा अंबेडकवाद के संश्लेषण से जय भीम-लाल सलाम नारों को सैद्धांतिक रूप देने की प्रबल संभावनाएं हैं. संभावनाओं को वास्तविकता बनाने की जरूरत है. यह मुश्किल है लेकिन संभव. रोहित की शहादत प्रेरणा है. उसको इसी से सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है.
       आखिरी परंतु महत्वपूर्ण बात है, निर्दल वामपंथियों की बात जो मजबूती से जेयनयू के साथ खड़े है लेकिन जो इस तरह के संकटों में ही सक्रिय होते हैं. वे जानते हैं कि कोई भी सार्थक आंदोलन संगठन के बिना नहीं हो सकता उन्हें छात्र आंदोलन को बल देने के लिए संगठित होने की जरूरत है. 

ईश मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली 110007
9811146846











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