Wednesday, April 13, 2016

क्षणिकाएं 55 (761-70)

761
आज का फैसला
दोस्तों!
 आज मैंने एक ऐतिहासिक फैसला लिया है
मानने की हिदायतें उम्र का खयाल करने की
और नसीहतें करने का बुज़ुर्गियत का लिहाज
तथा छोड़ने की अक्सर भूल जाने की आदत
कि बीस साल का मैं चालिस साल पहले था
क्योंकि अब जब भी कुछ भी कहता हूं
इन नसीहत-हिदायतों की भरमार हो जाती है
 नसीहत-हिदायतें तब भी मिलती थीं
था जब दाढ़ी पर काला खिजाब
कहा जाता था तब करने को औरों की बुज़ुर्गी का लिहाज
चढ़ना शुरू हुई दाढ़ी पर जब से सफेद रंग की खिजाब
उलट गई नसीहत-हिदायतों की धार
नहीं मानता था इन्हें तब
जैसे नहीं माना अबतक अब
लेकिन दोस्तों!
 आज मैंने ऐतिहासिक फैसला लिया है
मानने की ये नसीहत-हिदायतें
अब की तुरंत प्रभाव से और तब की बैक-डेट से
बुरा को बुरा न कहूंगा न ही अच्छे को अच्छा
अच्छे को अच्छा कहना भी तो
किसी को बुरा लग सकता है
कोई बात नहीं कहूंगा जो किसी को बुरी लगे
अच्छी लगने वाली बात के साथ भी नहीं करूंगा पक्षपात
वह भी तो किसी बुरी लग सकती है
आज मैँ सिर्फ वही कहूंगा
जिससे किसी को कोई फर्क नह पड़े
न ही जिसका कोई मतलब हो
आज मैंने फैसला लिया है
करने का ख्याल उम्र का
और रखने का बुज़ुर्गियत का लिहाज
लेकिन यह फैसला आज का है
कल की कोई गारंटी नहीं
क्योंकि परिवर्तन के सिवा नहीं होता कोई साश्वत सत्य
हो सकता है कल को मुझे फिर से लगने लगे
कि उम्र के चालिस साल के फर्क को भूल जाना
वक्त से पीछे नहीं बल्कि आगे होना हो
और मैं रद्द कर दूं यह फैसला
(बस ऐसे ही एक और बौद्धिक आवारागर्दी)
(ईमिः02.12.2015)
762
आग लगाना ही जिस मजहब का उसूल है
वह मजहब इंसानियत के लिए नामाकूल है
एक क्या सब मजहबों का यही है रंग-ढंग 
रहने नहीं देते इंसानों को एक दूजे के संग
सिखाता है मजहब आपस में बैर करना
मारकर एक दूजे को श्मसान की सैर करना
हुए हैं दुनिया में जितने भी रक्तपात 
सभी में रहा है मजहबी बैर का हाथ 
पड़ती है शोषित पर जब भूख की मार
मजहब में ढूंड़ता राहत का आधार
रहा है हर  युग में जो शासकीय हथियार
होने नहीं देता  जो मानवता का उजियार 
 देता धर्म गरीब को खुशी की खुशफहमी
बरकरार रहती अज्ञान से यह गलतफहमी
मिलेगी इंसान जब खुशी सचमुच की 
खत्म हो जायेगी जरूरत खुशफहमी की
साथ खड़ी होगी जब मेहनतकशों की कतार
खत्म हो जायेगी ईश्वर के सहारे की दरकार
खुद बंद हो जायेंगी मजहबों की दुकानें सारी
बेरोजगार हो जायेंगे सब मुल्ले पंडे और पुजारी
न बचेंगी दिगर खुदाओं की दिगर विरासतें
ख़ाक़ हो जायेंगी नफरत की मजहबी सियासतें
आयेगा दुनिया में तब अमन-चैन का बिहान
धरती बन जायेगी मानव मुक्ति का उद्यान 
(बस यों ही)
(ईमिः 08.12.2015)
763
जब वह कॉरपोरेटी विमान से उतरता है
कहता है श्रमेव जयते
छीन लेता है सदियों के संघर्ष से अर्जित
 मजदूरों के कानूनी अधिकार
जब भी कहता है सत्यमेव जयते
खोल देता है पिटारा झूठी लफ्फाजी का
जब बोता है भाइयों में नफरत के बीज
लगाता है बसुधैव कुटुम्बकम् का नारा 
मंत्र जपता है तब तमसो मा सत गमय
करता है जब शिक्षा का पूर्ण बाजारीकरण
इसलिए ऐ मेरे मुल्क के लोगों
उल्टा करके समझा करो इसके कहने का मतलब
समझ लेते थे जैसे हम उल्टा करके असली अर्थ
बचपन में विलोमों के खेल में
(शुक्रिया  सरला जी, इस कमेंट की प्रेरणा के लिए)
(ईमिः 11.12.2015)
764

लाल सलाम साथी रमाशंकर विद्रोही
मिलने पर भले ही न किया हो कभी सलाम
नेकिन हम कॉमरेड लोग
विद्रोहियों का इतना तो सम्मान करते हैं
मरने के बाद लाल सलाम देते हैं
इसलिए भी लाल सलाम
कि तुम अपनी जिद पर अड़े रहे
भारत भाग्यविधाता को मार कर ही मरे
बनाकर कविता को लाठी
तान दिया भगवान-ओ-धनवान पर
दलते हुए दाल भगवान के सीने पर
जमाया तुमने आसमान धान
तथा उखाड़ दिया धरती से भगवान
तुम अपनी जिद पर अड़े रहे
भारत भाग्यविधाता को मार कर ही मरे
लाल सलाम विद्रोही
मरने के बाद ही सही
याद है काशीराम ढाबे की पहली मुलाकात
जब तुम्हारा अवधी गीत सुनने के बाद कहा था
वाह विद्रोहीजी
तुम चौंके थे
कि बिन बताये कैसे जान गया तुम्हारा नाम
लाल सलाम विद्रोही
मरने के बाद ही सही
अब एक बात
जेयनयू के तुम्हारे सहपाठियों की तरफ से
वह यह कि हम न बन सके विद्रोही तुम्हारी तरह
साहसी तो हम भी कम नहीं
लेकिन नहीं बन सके दुस्साहसी तुम्हारी तरह
साहस से विरोध किया
संस्था द्वारा अपने ही नियमों के उल्लंघन का
तुमने दुस्साहस किया संस्था के खंडन का
पूंजीवाद टिका है श्रम की खरीद-फरोख्त का
हम साहस से श्रम का सम्मान करते हैं
नहीं कर पाये दुस्साहस
करने का श्रम बेचने से इंकार तुम्हारी तरह
ऐसा नहीं है विद्रोही कि हम तुम्हारे में सोचते ही नहीं थे
मिलने पर तुम्हारे साथ चाय तो पीते ही थे
आपस में मिलने पर भी
यह कह कर अपना फर्ज अदा करते थे
कि अच्छी कविताएं लिख रहा है विद्रोही
लेकिन जो भी हो तुम अपनी जिद पर अड़े रहे
भारत भाग्यविधाता को मार कर ही मरे
तुम्हारे मरने के बाद भी
हम तुम्हें याद करेंगे
जेयनयू में एक शोक सभा करेंगे
तुम्हारी कविताओं का उसमें पाठ होगा
तुम्हारी अछपी कविताओं के
संकलन की घोषणा भी की जायेगी
उसी तरह
जैसे गोरख की शोकसभा में की गयी थी
हम संपन्न श्रमिक
एक कोश के गठन की भी घोषणा करेंगे
जैसे अदम की शोकसभा मेँ किया था
कविता को ही श्रम समझने वाले
भविष्य के विद्रोहियों के लिए
यही सब हम
उनकी शोकसभाओं में भी करेंगे
लाल सलाम विद्रोही
तुम अपनी जिद पर अड़े रहे
भारत भाग्यविधाता को मार कर ही मरे
जब भी कोई विद्रोही अभावों से मरेगा
हम अपना फर्ज़ निभाते रहेंगे
शोकसभा में घोषणाओं का
लेकिन तुम आखिर तक अपनी जिद पर अड़े रहे
भारत भाग्यविधाता को मार कर ही मरे
लाल सलाम विद्रोही
मरने के बाद ही सही
(ईमिः11.12.2015)
765
सुन रहे हो मर्दवादी जहालत के रोगी जजों
बलात्कार को 
सांस्कृतिक संत्रास का फल बताने वाले मनोरोगियों
इस कविता की औरत की गर्जना
जिसकी आज़ादी को तुम बदचलनी कहते हो
और खड़े हो जाते हो संस्कृति के पहरेदारों के साथ
जो कायर कुत्तों की तरह टूट पड़ते हैं 
आजादी की मतवाली अकेली लड़की पर 
जो जताती है रातों सड़कों पर अपने हिस्से की दावेदारी
जिसे देख गुस्से में तुम करवा देते हो सामूहिक बलात्कार
सुनो सांस्कृतिक जहालत के जजों
अब इस औरत को भी गुस्सा आने लगा है
नहीं मातुम कि तुम जानते हो कि नहीं 
प्रलयंकारी होता है उत्पीड़ित का गुस्सा
जो दे रहा है तुम्हें सांस्कृतिक संत्रास 
जिसकी निरंतरता से ही तुम मर जाओगे
सुन रहे हो सजा-ए-मौत देने वाले मर्दवादी जजों
अब यह औरत जो मर्दों की ही तरह सिगरेट शराब पीती है
आधी रात को सड़कों पर अकेली घूमती थी
अब कतारों में घूमने लगी हैं 
जला रहीं हैं सारी लक्ष्मणरेखाएं और अशोक वाटिकाएं 
फेंककर समुद्र मेें सारी अग्नि परीक्षाएं
लगाते हुए नारे 
आज़ादी गर बदचलनी है तो हम सब बदचलन हैं
वैसे ही जैसे हम लगाते हैं नारे
सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम सब बागी हैं
बिलों में घुस गए तुम्हारे सांस्कृतिक रणबांकुरे
नोचते थे अकेली लड़की की आज़ादी बदचलनी की सजा कहकर 
झुंड में कायर कुत्तों की तरह
अंधे न्याय की खिड़की के बाहर झांको धर्मांधो 
और देखो बाहर लक्ष्मणरेखा खींचने वाले तुलसीदासों 
बलात्कार को बदचलनी की प्रतिक्रिया बताने वाले 
बदचलन की पट्टी पहने दुनिया  की सारी औरतों का हुजूम
और आत्मघात कर लोगे चीखते हुए
बाप रे बाप क्या हो गया है इन औरतों को
कब तक नहीं निकलोगे अंधी तराजू के दुर्ग से 
सुनो संस्कारी जजों
चुपचाप स्वर्ग चले जाओ
इसी में तुम्हारी भलाई है
क्योंकि सारी औरतें बदचलन हो गयी हैं. 
(सरला माहेश्वरी की कलकत्ता की पार्टस्ट्रीट सामूहिक बलात्कापर न्यायालय के मर्दवादी फैसले पर सुंदर कविता पर टिप्पणी)
(ईमिः 12.12.2015)
 766
लंबी कविता.

भूमिका
घर के एकांतवास की जड़ता तोड़ने के लिए कल बहुत दिन बाद तीनमूर्ति लाइब्रेरी चला गया, एत लंबित लेख की शुरुआत करके 500-600 शब्द लिख कर इतना खुश हुआ कि लंच के लिए कैंटीन लैपटॉप के साथ चला गया तथा खाने के बाद चाय लेकर उद्यान की कुहासी धूप में बैठने का मन हुआ. सोचा किताब तो कन्सल्ट नहीं करना है तो जब तक लैपटॉप की बैटरी है वहीं काम कर लूं, जो एक गलत फैसला था. कलम का मन बदल गया. मुझे लगा 2015 के अवसान पर 21वीं सदी के इस कालखंड पर एक संक्षिप्त टिप्पणी करना चाहता है, लेकिन यह तो अराजकता की हद तक मनमाना हो गया है, मैं भी नियंत्रण में ढील देता रहता हूं. जिस तरह यूरोप के प्रबोधन काल(1650s-1810s)  को लंबी 18वीं सदी कहा जाता है वैसे ही कलम के दिमाग में लंबी 20वीं सदी की बात कलम को सूझी लेकिन शीर्षक 21वीं सदी ही रहने दिया. मार्क्स ने कहा है कि अर्थ ही मूल है. जब से कलम पर आर्थिक दबाव हटा है, वेतन से महीना निकल जाता है, तबसे इसका मनमानापन बढ गया है तथा मेरे नियंत्रण की ढील भी. मार्क्स ने यह भी कहा है कि अन्य जीवों की रचनाशीलता पेट भरने के उपक्रम पर खत्म होती है मनुष्य की पेट भरने के बाद शुरू होती है. कलम की इस मनमानी आवारागर्दी ने कल सारा पूर्वान्ह तथा आज की पूरी सुबह लील लिया. तुकबंदी से मुक्त मेरी कविताएं मुझे बेहतर लगती हैं. सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है. मैं बहुत असवाधान व्यक्ति हूं. जब ध्यान जाता है तब तक कलम तुकबंदी शुरू कर चुका होता है. शुरू कर दिया तो पूरा भी करना पड़ता है. लिखने के तुरंत बाद इतनी लंबी कविता पढ़ने धैर्य नहीं बचा है. जो भी मित्र धैर्य दिखाएं, उनकी टिप्पणी के लिए आभारी रहूंगा.
इक्कीसवीं सदी

कैलेंडर करता जिसका इक्कीसवीं सदी कह प्रचार
हकीक़त में है लंबी बीसवीं सदी का विस्तार
यो जो देख रहे हैं लहलहाती सियासी फसल
बीसवीं सदी के शुरू में हो गया था
उसकी जमीन का अधिग्रहण
दंगों की धरती की अदृश्य़ तख्ती के साथ
फिरंगियों की शह पर बंटा था जब
संघर्षरत भारत का राष्ट्रवाद
जाते जाते हुए फिरंगी
अपने मकसद में कामयाब
फिरकापरस्त सियासत के शस्त्र से
बांट दिया भूगोल मुल्क का
बांट दिया इतिहास
बन गयीं उर्वर जमानें खून की दरिया के आर-पार
उगने लगी दोनों तरफ नफरत की फसल जोरदार
बढ़ने लगे दोनों तरफ नफरत खलिहान
शुरू किया जब हुक्मरानों ने बीजों का आदान-प्रदान
इस पार के बंटे मुल्क में
बहुत दिनों तक मुल्क पर भारत राष्ट्र का खुमार था
पेशोपश में दंगो की धरती का ज़मींदार था
उसने फिर चतुराई से बदला चोला
हिंदु राष्ट्रवाद की जगह गांधीवाद को बनाया मौला
हिली जब धरती बड़े पेड़ के गिरने से
सींचा उसने भाई की जमीन पूरे मन से
कुछ सरदार मार देने से मिला जनादेश बंपर
खलिहान तो लगा मगर उसके खेत से थोड़ा हटकर
उतार फेंका चोला गांधी वाद का चोला
फिर से घोषित कर दिया हिंदु-राष्ट्र को मौला
बिसरे राम की फिर से याद आई
मंदिर बनाने की तब कसम खाई
गोमांस की अफवाह का भी था इनपर उर्वरक
मंदिर का मामला था मगर ज्यादा उर्वरक
गया नहीं मंदिर की श्रद्धा का उपक्रम व्यर्थ
राम ने बना दिया इन्हें बाबरी मस्जिद तोडने में समर्थ
बनी जब उत्तरप्रदेश में राष्ट्रवादी सरकार
हुई नफरत के उन्नतिशील बीज की दरकार
जमींदार ने दिया काजी-ए-मुल्क ने हलफनामा
मस्जिद के बाहर है उसे भजन-कीर्तन करना
हो गया उसके मस्जिद-प्रेम से प्रभावित क़ाजी
दिल्ली की गद्दी पर बैठा था उसका मौसेरा भाई
तोड़ दी जब मस्जिद कार सेवा के हथियार से
रक्षा में जिसकी पुलिस-सैनिक तैनात थे
हो गया रक्तरंजित सारा देश
तैर गया हवा में नफरत का संदेश
फिर भी कई खेतों में फीकी थी नफरत की फसल
जमींदार ने सोचा करने को एडॉल्फ हिटलर की नकल
उसी तरह जैसे छिप कर लगाई थी
नाज़ी तूफानी दस्तों ने जर्मन संसद में आग
और क्रिया-प्रतिक्रिया में लगा दी यहूदी बस्तियों में आग
लगाई बजरंगियों ने छिपकर एक रेल डब्बे का आग
क्रिया-प्रतिक्रिया में लगा दी मुल्क की सामासिक संस्कृति में दाग
रक्त रंजित कर दिया धरती इंसानों के खून से
कसूर सिर्फ इतना कि वे जन्म से मुलमान थे
नफरत की सियासी फसल के लिए कत्लेआम नाकाफी था
सामूहिक बलात्कारों से बढ़ती है दंगे की धरती की उर्वरता
बिन बोये उगती रही नफरत की  फसल बार बार
सोचा उसने बढ़ाने का रकबा इस बार
खाप पंचायत को अपना हथियार बनाया
तमाम बाबा माइयों को नोटों से नहलाया
गोमाता के वंश पर पाकिस्तानी खतरा बताया
बहू बेटियों की इज्जत को मुद्दा बनाया
बचाते जो खाप का सम्मान अपनी ही बहू-बेटी मारकर
लव-जेहाद का बदला लिया सामूहिक बलात्कार कर
खत्म कर दिया सदियों से चला आ रहा भाईचारा
करते हुए बलात्कार लगाया बंदेमातरम् का नारा
हर कत्ल के साथ चिल्लाता जयश्रीराम
आगजनी करते लेता महादेव का नाम
मुजफ्फरनगर से उठा धुआं नफरत का
मुल्क बन गया मंच फिरकापरस्त सियासत का
क्या कहूं इस मुल्क के पढ़े-लिखे जनमानस को
आराध्य माना जिसने एक नरभक्षी अमानुष को
खत्म हो गये हैं इसकी क्रिया-प्रतिक्रिया के सारे तीर
बना रहा है मंदिर को फिर से फ़िरकापरस्ती का समसीर
किया था जिस अय़ोध्या से नफरत की खेती की शुरुआत
चुना है उसी जगह को उसने करने को आत्मघात
भक्तों में भी आती दिख रही है अब तो कुछ अकल
बेनकाब हो रही है जैसे-जैसे हत्यारे की शकल
उतरेगा अब लोगों की भक्तिभाव का खुमार
जनवादीकरण होगा सामाजिक चेतना के स्वभाव का
होगा तब लंबी क्रूर बीसवी सदी का खात्मा
शुरू होगी तब एक नई इक्कीसवीं सदी की शुरुआत
अमन-ओ-चैन की आग भस्म कर देगी नफरत की खुराफात
ऐसा नहीं है कि क्रूरता से ही भरी है लंबी बीसवीं सदी
देखा है इसने इंक़िलाबी उत्थान-पतनों की भी त्रासदी
दुनिया में दिखी इक उम्मीद समाजवाद की
हो गया मगर उस पर राष्ट्रवाद का भूत हावी
राष्ट्रवाद है विचारधारा पुरातन पूंजीवाद की
करना था दुनिया के मजदूरों की एकता का प्रसार
अंतरराट्रीय जनवादी सामाजिक चेतना का प्रचार
समझ सके मजदूर जिससे पूंजी के अंतरविरोधों का सार
कर खुद को वर्ग चेतना से लैस हो सके क्रांति के लिए तैयार
मजदूर जो वर्ग है अपने आप में परिभाषा से
बन सके जो अपने लिए वर्ग वैज्ञानिक जिज्ञासा से
पार्टी लाइन के नाम पर लगाया मतभेदों पर रोक
करे सवाल जो पार्टी लाइन पर उसको दिया ठोंक
सर्वहारा तानशाही को बनाया अधिनायकवाद लालफीताशाही की
बुनियाद डाला इससे मार्क्सवाद के वैज्ञानिक सिद्धांत की तबाही की
साम्राज्यवादी गुटबाजी के विरुद्ध बन गया यह भी गुटबाज
वर्चस्व की लड़ाई में बन गया सामाजिक साम्राज्यवाद
इस बार उठेगी जब जनवाद की लहर
खत्म कर देगी हर वर्चस्व का जहर
सोचा था लिखने को कुछ पंक्तियां
इक्कीसवीं सदी की अमानवीय शुरुआत पर
भावी इंक़िलाब के आगाज पर
पर लगा खत्म नहीं हुआ अभी पिछली सदी का सिलसिला
जुट रहा है धीरे धीरे मानवता का एक नई सदी काफिला
लिखूंगा तब मर्शिया लंबी बीसवीं सदी का
और लंबा अफ्साना सुंदर इक्कीसवीं सदी का
(ईमिः 23.12.2015)
767
दिव्यदिमाग

दिव्यदिमाग हैं आप महमहिम
उसी तरह जैसे दिव्यांग दिखता है
साहस से तकलीफों समंदर पार करता विकलांग
सहते हुए
अवमानना, प्रवंचना तथा तिरस्कार
स्वीकार करते हुए
अंधे, लूजे, लंगड़े, गूंगे, बहरे के विशेषणों को
व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में
इतिहास बोध की वंचना ने बनाया तुम्हें
मानव पालक धनपशुओं का प्रिय पाल्य
फोड़ लो तुम अपनी कम-से-कम एक या दोनों आंखें
बन जाओ काने या सूरदास
अद्भुत होगा दिव्यांग तथा दिब्य दिमाग का मेल
दिव्यचक्षु से दिव्य दिखेगा
भूख-प्यास से तड़पता यह दिव्य देश
करते हैं प्रभु कृपा जिस पर बदल बदल कर भेष
कभी अंबानी तो कभी अडानी बनकर
बाकी बनकर वालमार्ट बचती जो शेष
धन्य हैं दिव्यदिमाग महामहिम आप
खत्म कर देते हैं जो दिव्यशक्ति से
अमन-चैन का अदिव्य अभिशाप
तथा तर्क, विवेक के पाप
धन्य हैं दिव्यदिमाग महामहिम आप
(ढंग की बनी नहीं, फिर भी)
(ईमिः 29.12.2015)
768
डा.संदीप पांडे के काहिवि से निष्कासन पर

करना  इंकार ध्वज प्रणाम करने से
नहीं सहेगा हिंदू विश्वविद्यालय का निज़ाम 
प्रोफेसर का है केवल कोर्स पढ़ाना
अटूट आस्था के वृक्ष लगाना
नमस्ते सदा वत्सले के गीत सिखाना
पढ़ाना ही है कोर्स के बाहर की ग़र कोई बात
तो बताय़े पूर्वजों की गौरवशाली उपलब्धियां 
 वेद-पुराणों के दैविक ज्ञान-विज्ञान
गणेश की शल्य-चिकित्सा 
तथा रावण का पुष्पक विमान   
दें नवनिहालों को मुसलमानों की क्रूरता का ज्ञान  
लिया नहीं जिनने शूरवीर पूर्वजों की 
सहनशीलता का संज्ञान 
वे जंग-ए-शमशीर फतह करते रहे
हमारे शूरवीर बहादुरी से हारते रहे
पढ़ाना ही है कोर्स के बाहर की बाते 
ग़र किसी प्रोफेसर को
पढ़ाये वह सब बढ़ाये जो राष्ट्रवादी असर को
राष्ट्रद्रोही है प्रोफेसर संदीप पांडे जैसे लोग
फैलाते जो विद्यार्थियों में तर्कशीलता का रोग
आस्था की बातों पर करते ये संदेह
भक्ति भाव को बताते ये बुद्धिजीवी भदेश
विवेक को कहते आस्था से श्रेष्ठ
विज्ञान को बताते वेद से भी श्रेष्ठ
विद्रोह को बताते विकास की बुनियाद
है जो राष्ट्रद्रोह की असली पहचान 
बनाना है इनको कॉरपोरेटी मशीन
बनाते हैं ये इंसान चिंतनशील
पैदा होता इससे राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा
जारी रहता इनका ग़र सेकुलरी मिसरा 
कर नहीं सकता बर्दास्त हिंदू विश्वविद्यालय का निजाम
देता हो जो चिंतनशीलता से कुकर्म को अंजाम 
नहीं है निज़ाम को संदीप पांडे से निजी अदावत
संदेश है उन सबको देते हैं जो नशीहत-ए बगावत
जानता नहीं इतिहास का नियम किरदार-ए-ध्वजप्रणाम 
धूल में मिल जाते हैं सारे हिटलर, हलाकू, चंगेज खान
कलम तोड़ने का इनका एक-एक काम
देता है आवाज़ को बुलंदी का अंजाम
(आज ही तय किया था, कुछ दिन कविता न लिखने का, संदीप पांडे के काहिवि से निष्कासन पर गद्य में एक वक्तव्य देना चाहता था कलम का पद्य में वक्तब्य का मन हो गया)
(ईमिः 08.01.2015) 
769

An ode to Modi ji for complenting the handicapped as Divyang (blessed with divine organs)

You are blessed with divine mind your highness!
In the same way as the handicapped is seen blessed with divine organs in your divine eyes
Who is asserting the claim of right to human dignity
Sailing courageously the surging sea of pain
Enduring patiently the disdainful
Contempt, discrimination, deprivation and social indifference
Accepting helplessly the adjectives of limp, blind, deaf and dump, as proper nouns.
Your deprivation of sense of history turned into blessing in disguise your highness
That made you the darling of the moneybags of the earth
Pierce yours at least one or both the eyes
And get blesssed with with divine organs also
The combination of the two deadly blessings shall be divine your highness!
Your divine eyes would see divinity into hunger and starvation deaths in the contry
That is blessed by Gods in various incarnations
Of Ambanis, Adanis and the Wall marts
You are great your highness blessed with divine mind
As the handicapped is blessed with divine organs in your divine eyes
Your greatness also lies in freeing the country from the vices like peace and harmony
And the sins like reason and rationality with your divine power
(Ish Mishra, 29.12.2015)

the translation seems better than the original
770
भगवान का अपमान

जब भी देता हूं
वर्तमान के किसी सच पर एक तार्किक बयान
वे कहते हैं
है यह अतीत के किसी भगवान का अपमान
जब भी करता हूं
तथ्यपरक समीक्षा इतिहास की
वे कहते हैं
इसे निंदा किसी गौरवशाली पूर्वज की
लेता हूं जब
पूर्वाग्रहों की तर्कपूर्ण परीक्षा
मानते हैं वे
इसे देशद्रोह की दीक्षा

मोम से भी नाज़ुक उनके धर्म की भावनाएं
आहत हो जाती हैं
तर्क की किसी बात से
जवाब देते हैं वे इसका
कुतर्कपूर्ण उत्पात से
लेकिन मेरा क्या
मैं तो नास्तिक हूं
जो डरता नहीं
किसी भूत या भगवान से
न ही
फिरकापरस्ती के शैतान से
सुनो मजहबी शियात के सुल्तानों
नफरत की विरासत के आकाओं
बात बात पर
आहत होने वाली भावनाओं
करते रहेंगे हम
हकीकत का तार्किक बयान
आहत हों उससे जिसके भी भगवान.
(अरुण माहेश्वरी की वाल पर सरला जी की आहत होती भावनाओं पर सटीक काव्यात्मक टिप्पणी पर टिप्पणी. ढंग से नहीं हो पाई)

(ईमिः 16.01.2016)

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