Saturday, April 23, 2016

समाजवाद की समस्याएं

समीक्षा-लेख
पुस्तक: समाजवाद की समस्याएं
अरुण माहेश्वरी
अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्युटर्स, नई दिल्ली

समाजवाद की समस्याएं की समीक्षा के बहाने
ईश मिश्र
  पूंजीवाद गहन आर्थिक संकट से गुजर रहा है. भूमंडलीकरण से दुनिया स्वर्ग बनाने के शगूफे की हवा निकल चुकी है. पूरी दुनिया बढ़ती गरीबी, गैरबाबरी, बेरोजगारी से त्राहि-त्राहि कर रही है. जैसा कि विचारार्थ पुस्तक की शुरुआत में ही कहा गया है, सारी दुनिया को बेइंतहां समृद्धि का सपना दिखाने वाले वैश्वीकरण का भ्रम और इससे जुड़ा पश्चिम का मिथ्याचार भी पूरी तरह सामने आ चुका है.[i] विश्वबैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की मार्फत साम्राज्यवादी लूट तथा राजनैतिक वर्चस्व बरकरार रखने तथा बढ़ाने के मकसद से मौजूदा नवउदारवादी पूंजीवाद आर्थिक सुधार यानि उदारीकरण-निजीकरण के लिए सरकारों को बाध्य करता है. निजी मुनाफे तथा संपत्ति के असीमित अधिकार के सिद्धांतो पर आधारित उदारवादी पूंजीवाद का संकट – महामंदी – का कारण था,  अतिरिक्त उत्पादन तथा कम खपत. नवोदित उदारवादी पूंजीवाद के औचित्य उसकी वैधता, वांछनीयता  तथा अपरिहार्यता के अनगिनत नामी-गिरामी जैविक बुद्धिजीवी थे. इतिहास को निजी मुनाफा कमाने की प्रक्रिया का अनचाहा परिणाम मानने वाले तथा पूंजीपतियों की संपत्ति को राष्ट्र की संपत्तिबताने वाले ऐडम स्मिथ एक अहस्तक्षेपीय राज्य के हिमायती थे. उनका मानना था कि राज्य के नियंत्रण से मुक्त बाजार अपने अदृश्य हाथों से राष्ट्र को समृद्ध करेगा और समृद्धि रिस-रिस कर सब तक पहुंचेगी.[ii]
पिछली शताब्दी का तीसरा दशक समाप्त होते-होते रिसने के सिद्धांत कलई खुल गई. पूंजीवाद धराशायी होने के कगार पर पहुंच गया. उत्पादन-खपत के समीकरण की इस विषमता का कारण उत्पादित माल की सामाजिक जरूरत का अभाव नहीं था बल्कि मजदूरों के शोषण से अधिक-से-अधिक मुनाफे के सिद्धांत पर आधारित  अराजक उत्पादन-वितरण के चलते लोगों में क्रय शक्ति का अभाव था. पूंजीवाद के सिद्धांत के संकट की कमी उस समय पूरी की थी अंग्रेजी अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स ने, मिश्रित अर्थव्यवस्था तथा कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत के जरिए. उदारवादी पूंजीवाद का संकट अतिरिक्त (सरप्लस) माल का था तो नवउदारवादी पूंजीवाद का संकट निवेश के नीड़ ढूढ़ती अतिरिक्त पूंजी का है. लेकिन नवउदारवादी पूंजीवाद के पास कोई ऐडम स्मिथ या केन्स नहीं है.   

अर्थशास्त्रियों का एक विश्वबैंक पोषित समूह है जो अपने कामों को नया ऱाजनैतिक अर्थशास्त्र कहता है. इनमें, अपने निजी तथा सामूहिक कामों को राजनैतिक अर्थशास्त्र के रूप में पेश करने वाले स्कॉटिश गुरू-चेलों (डैविड ह्यूम, ऐडम स्मिथ आदि) क्लासिकल राजनैतिक अर्थशास्त्र स्कूल की तरह समरसता नहीं है बल्कि यह एक बहुरंगी समूह है. लेकिन सब प्राकांतर से सामाजिक न्याय तथा सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों के कटु आलोचक, संकीर्णतावादी राजनैतिक चिंतक फ्रेडरिक हायक के पदचिन्हों पर चलते हैं. नया राजनैतिकशास्त्र का सैद्धांतिक आधार हायक कि तर्कसंगति की वह अवधारणा है कि व्यक्तियों या समूहों की पसंद अपने आकलित स्वहित के अनुसार होता है. उदारवादी राजनैतिक अर्थशास्त्री राज्य को प्रतिस्पर्धी हितों के बीच निष्पक्ष निर्णायक की भूमिका में एक तटस्थ जनहितकारी व्यवस्था के रूप मे चित्रित करता है. ये नवउदारवादी नए राजनैतिक अर्थशास्त्री राज्य की तटस्थता का बहाना नहीं करते. इनका मानना है कि हर व्यक्ति या हित समूह नीति-निर्माताओं को अपने पक्ष में प्रभावित करने का प्रयास करता है. इनका मकसद विश्वबैंक की नीतियों को लागू करवाने की बौद्धिक व्याख्या तथा रणनीतिक उपाय सुझाना है. ढांचागत समायोजन विश्वबैंक का प्रमख एजेंडा है, जिसका ठेठ मतलब है, सभी सरकारों, खासकर तीसरी दुनिया की सरकारों को साम-दाम-भेद-दंड से भूमंडलीय पूंजी के हित में नीतियां तथा कानून बनाने को बाध्य करना. इनका मानना है कि निर्वाचित राजनेताओं का कोई ईमान-धरम नहीं होता. उनका मकसद किसी भी तरह सत्ता में बने रहना तथा सार्वजनिक संपत्ति तथा सेवाओं एवं नियंत्रण की सुलभता प्रदान कर दलाली (रेंट) खाऩा है. न तो इनका कोई सिद्धांत होता है, न ही इनके पास किसी भी चीज का कोई ज्ञान होता है. इन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ये राजनेता वही करते हैं जो इन्हें ज्यादा-से-ज्यादा दिन सत्ता में रहने में सहायक हो. इनका यह भी मानना है अब की सरकारें प्लेटो के दार्शनिक संरक्षकों की तरह राष्ट्रीय हित की परवाह नहीं करतीं बल्कि अब उनकी पहचान भ्रष्टाचार, नीतिगत नाकामी, दलाली तथा जहालत आदि अर्थों में होती है. (वैसे इनका यह पर्यवेक्षण काफी हद तक सही लगता है) वे यह तक कहने में नहीं हिचकते किअच्छे लोगोंका कष्ट कम करने के लिए बुरी सरकारें खरीद लो. अमेरिका तो जो बिकते नहीं उन्हें मार ही देता है.
वे स्वीकार करते हैं कि सुधार की प्रक्रिया का शुरुआती दौर बहुत लंबा तथा आमजन के लिए बेइम्तहां कष्टप्रद होगा. लोगों में बढ़ता प्रतिरोध सुधारों के रास्ते में अवरोध खड़ा करेगा जिन्हें कुचले बिना सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. प्रतिरोध कुचलने के लिए निर्मम बल प्रयोग कर सकने वाली अधिनायकवादी सरकारें ज्यादा उपयोगी होती हैं. वे यह भी जानते हैं कि निर्मम बल प्रयोग से शासक दल अलोकप्रिय हो जाएगा तथा अगला चुनाव हार जाएगा. तब अगले चुनावी दल को ले आओ जो सारी दुर्दशा का ठीकरा पिछली सरकार पर फोड़ते हुए निर्ममता से सुधार लागू कर सके.[iii] विश्वबैंक के इन पालतू अर्थशास्त्रियों के तथ्यात्मक सर्वेक्षण तथा अनैतिक कुतर्क नवउदारवादी आर्थिक विकास को वैधता प्रदान करने की बजाय़ भूमंडलीय पूंजी के साम्राज्यवादी मनसूबे का ही पर्दाफाश करते हैं. यहां मकसद विश्वबैंक के पालतू नया राजनैतिक अर्थशास्त्र स्कूल समीक्षा करना नहीं है बल्कि यह बताना कि पूंजीवाद सिद्धांत के संकट से भी जूझ रहा है.   
पूंजीवाद तो संकट के दौर से गुजर रहा है लेकिन उसका विकल्प समाजवाद भी राजनैतिक तथा सांगठनिक ही नहीं सिद्धांत के भी संकट से गुजर रहा है. यहां समाजवाद के संकट से मतलब समाजवाद के लिए संघर्ष की दावेदार शक्तियों से है. कम्युनिस्ट पार्टियां दुनिया के राजनैतिक नक़्शे पर हाशिए पर चली गयी हैं. सिद्धांत आधारित संगठित प्रतिरोध के अभाव में भूणंडलीय कॉरपोरेटी शोषण तथा बढ़ती गैरबराबरी के विरुद्ध जन असंतोष की अभिव्यक्ति ऑकयूपाई या भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे मार्का स्वस्फूर्त आंदोलनों में होती रही है. स्वस्फूर्त आंदोलनों का ऐतिहासिक महत्व तो होता है लेकिन प्रभाव सीमित. मार्क्सवाद क्रांतिकारी परिवर्तन के दो कारक चिन्हित करता है, आंतरिक तथा वाह्य. आंतरिक कारक पूंजीवाद का गहन संकट, वाह्य कारक, क्रांतिकारी चेतना से लैस संगठित कामगर की गैर मौजूदगी में टलता जा रहा है. और कामगर खुद को पार्टी के रूप में ही संगठित कर सकता है. मार्क्सवाद सिद्धांत पर जोर देता है, तथ्परक सिद्धांत. सिद्धांत के इस संकट से निज़ात पाने के लिए जरूरी है कि समाजवाद के इतिहास तथा विभिन्न जनांदोलनों का गंभीर अध्ययन करें. सीपीआई(यम) केंद्रित  अरुण माहेश्वरी की समाजवाद की समस्याएं इस दिशा में एक प्रासंगिक योगदान है.ध्यान से देखें तो वह सारी सामग्री इकट्ठा हो गयी है जिससे इतिहास के ढेर पर पड़े मानव समाज की प्रतिश्रुति के साथ उभरे समाजवादी अध्याय की छान-बीन की जा सके. कोरी निर्गुण और अमूर्त चर्चा की बजाय सगुण और ठोस चर्चा के जरिए इसके उदय और अस्त की पूरी परिघटनाओं की लाक्षणिकताओं को सूत्रबद्ध किया जा सके.”(पृष्ठ 9)
सोवियत संघ के विघटन तथा परिणामस्वरूप शीतयुद्ध के अंत के बाद, अमेरिकी नेतृत्व में उभरे, साम्राज्यवादी, एकध्रुवीय विश्व के बौद्धिक भांटों ने इतिहास के अंत की घोषणा कर दी जो अपने आप में विरोधाभासी तो है ही, हास्यास्पद भी. ऐतिहासिक सत्य यह है कि इतिहास न कभी रुकता है, न खुद को दोहराता है, अविरल गतिमान रहता है. इतिहास के इंजन में रिवर्स गेयर नहीं होता है. यदा-कदा यू टर्न जरूर आते हैं तथा यदा-कदा लंबे, जैसे किसान-मजदूरों, यानि वामपंथ  की दृष्टि दुनिया, खासकर भारत के इतिहास का मौजूदा दौर. लेकिन परिवर्न प्रकृति का अपरिवर्तित नियम है. जिसका भी वजूद है उसका विनाश सुनिश्चित है. भूमंडलीय पूंजी तथा उसकी सेवारत नवउदारवादी साम्राज्यवाद के युद्धोन्मादी राजनैतिक नुमाइंदों का भी. इतिहास का अगला मोड़ यू-टर्न होगा या फिर सम, लघु या दीर्घ कोण, यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन अंतिम मंजिल समाजवाद के रास्ते मानव मुक्ति ही होगी.  सोवियत संघ, चीन जैसे क्रमशः अल्प-विकसित तथा अविकसित देशों में समाजवादी क्रांतियों के बाद इन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में पूंजीवाद की स्थापना तथा समाजवादी चेतना के निर्माण के प्रयोगों ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाया. लेकिन इस ऐतिहासिक भूमिका अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचने में नाकामयाब रही. इसी लिए कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में समाजवादी आंदोलन तथा सरकारों की तथ्य परक समीक्षा ही सिद्धांत के संकट से उबार सकती है तथा एक नये इंतरनेशनल के निर्माण का पथप्रशस्त हो सकता है. जारी छात्र आंदोलन में एक नये सिद्धांत की एक झलक दिख रही है, प्रतीकात्मक ही सही.    
सोवियत संघ के विघटन के बाद, जिस तरह भूमंडलीय पूंजी के उदारवादी तथा दक्षिणपंधी बुद्धिजीवी भोपुओं ने  मार्क्सवाद तथा समाजवाद का मर्सिया पढ़ना शुरू कर दिया था, तथा 1960-80 के दशकों में, शायद फैशन में मार्क्सवादी बने बुद्धिजीवी अपने को पूर्व मार्क्सवादी घोषित करने में गर्व का अनुभव करने लगे[iv], उसी तरह पश्चिम बंगाल तथा केरल में वाम मोर्चे की पराजय के बाद, महज दक्षिणपंथी हिंदुत्व ही नहीं उदारवादी तथा सामाजिक न्यायवादियों ने भी हिंदुस्तान में समाजवादी आंदोलन की संभावनाओं के अंत की घोषणा करना शुरू कर दिया.
मार्क्सवादी चिंतक/लेखक अरुण माहेश्वरी ने सही लिखा है कि वाम मोर्च की पराजय समाजवाद की नहीं बल्कि वाम मोर्चे की अमार्क्सवादी या ज्यादा निर्ममता से कहें कि मार्क्सवाद विरोधी राजनैतिक संस्कृति के शासन की पराजय है. उसी तरह जैसे, जैसा कि प्रोफेसर रंधीर सिंह ने लिखा, सावियत संघ का विघटन, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के मार्क्सवाद विरोधी चरित्र के चलते हुआ.[v] 1977 में वाम मोर्चे की सरकार अन्य संसदीय दलों की सरकारों से गुणात्मक रूप से भिन्न थी क्योंकि इसने भूमि सुधार कार्यक्रम को चुस्ती से लागू किया (ऑपरेन वर्गा) तथा माहेश्वरी जी के शब्दों में मौन क्रांति[vi] के जरिये ग्रामीण इलाकों में वाम दलों, खासकर, सीमीयम ने अपने चुनावी जनाधार का विस्तार किया. राजनैतिक शिक्षा के समुचित कार्यक्रमों के अभाव में इस चुनावी जनाधार को राजनैतिक जनाधार में तब्दील करने में नाकाम रही. संख्याबल को वर्गचेतना से लैस जनबल न बना सकी. धीरे धीरे गुणात्मक फर्क कम होता गया तथा नंदीग्राम-सिंगूर की घटनाओं तक पहुंचते-पहुंचते सीपीआई-सीपीयम तथा शासक वर्ग की अन्य पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया[vii].
निरंतर जनाधार खोती, भारत समेत तमाम देशों की पारंपरिक कम्युनिस्ट पार्टियां, सिद्धांत के संकट  के परिणामस्वरूप राजनैतिक संकट से गुजर रही हैं. जैसा कि सीपीयम के हाल की पार्टी कांग्रेस के दस्तावेजों से स्पष्ट है कि गंभीर आत्मावलोकन तथा आत्मालोचना में अक्षम इन पार्टियों का नेतृत्व सिद्धांत के इस संकट को रणनीतिक नीतियों तथा राजनैतिक दक्षता की समस्या मान रहा है. ऐसे में, लगभग 2 दशकों से अधिक अंतराल के समकालिक लेखों का यह संकलन ससीपीयम केंद्रित होने के बावज़ूद, कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में समाजवादी आंदोलन की दशा तथा दिशा और संभावनाओं का समग्र विश्लेषण तो नहीं करती फिर भी यह कम्युनिस्ट पार्टियों में सिद्धांत के संकट पर विमर्श की एक महत्वपूर्ण पहल है. हाल के अनुभव बताते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों तथा उनके जनसंगठनों के नेतृत्व तक ने मार्क्सवाद पढ़ना बंद कर दिया है, ऐसे में ईपी थॉम्सन तथा ग्राम्सी के हवाले से मार्क्सवाद पढ़ने की सलाह समुचित तथा वांछनीय है[viii].
मूलतः सीपीयम के नेतृत्व, नीतियों, उपलब्धियों तथा चुनावी और वैचारिक क्षतियों पर आधारित यह विश्लेषण मोटे तौर पर दुनिया की सभी संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों पर लागू होता है तथा मार्क्सवादी सिद्धांतों और कम्युनिस्ट पार्टी के व्यवहार के अंतर्विरोधों को रेखांकित करता है. जनतांत्रिक केद्रीयतावाद के व्यवाहारिक भटकाव के चलते ऊपर से थोपी गई, मार्क्सवाद-विरोधी पार्टी लाइन पर पुनर्विचार की जरूरत पर जोर देता है. इस समीक्षा के बहाने यह  लेख भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में समाजवादी आंदोलन के सिंहावलन  का प्रयास है.
कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने 1948 में कम्यनिस्ट घोषणा पत्र में लिखा कि अब तक के समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है जबकि कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन आधुनिक परिघटना है. कहने का मतलब यह कि वर्ग-संघर्ष की किरदार महज कम्युनिस्ट पार्टियां ही नहीं हैं. दूसरी बात यह कि वर्ग वर्चस्व के कई मोर्चे हैं – आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा वैचारिक. यह बहुमुखी सांप है. इसलिए इसके विरुद्ध संघर्ष भी बहुआयामी तथा जटिल है. हर तरह के अन्याय तथा भेदभाव के विरुद्ध हर संघर्ष व्यापक वर्ग-संघर्ष का ही अभिन्न हिस्सा है. वर्ग-वर्चस्व कभी भी विशुद्ध आर्थिक या  “सांस्कृतिक नहीं हो सकता इसका राजनैतिक आयाम गहन तथा व्यापक है. राजनीति ही हर तरह के वर्चस्व को वैधानिक वैधता प्रदान करती है. दरअसल, राजनीति ही वर्ग तथा उत्पादन संबंधों के भीतर तथा बाहर समाज के परस्पर विरोधी वर्गों के यथास्थितिक संबंधों को कानूनी संरक्षण देती है[ix]. इसीलिए मार्क्स ने सर्वहारा के अपने-आप में एक वर्ग”  से अपने-लिए एक वर्ग में तब्दीली में सर्वहारा की राजनैतिक पार्टी के गठन को रेखांकित करते हैं, जो क्रांतिकारी विचारों की हरकारा बन वर्ग संघर्ष को वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ायेगी[x]. इस सिद्धांत के तहत, बोल्शेविक क्रांति के बाद तीसरे इंटरनेशनल (कॉमिंटर्न) के दिशा-निर्देश में विभिन्न देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया. अमेरिका में मार्क्सवादी बने मानवेंद्रनाथ रॉय ने मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना समारोह में शिरकत करने के बाद उसके डेलीगेट के रूप में कॉमिंटर्न की तीसरी कॉंग्रेस में भाग लेने मॉस्को गये. औपनिवेशिक सवाल पर उनकी थेसिस लेनिन की थेसिस की पूरक थेसिस के रूप में स्वीकार की गयी, यद्यपि वह वैकल्पिक थी. उपनिवेश विरोधी आंदोलनों तथा उसके साथ संबंधों के बारे में लेनिन की समझ ज्यादा तथ्यपरक थी. लेनिन रूसी क्रांति के अनुभव को औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य में उपादान के रूप में इस्तेमाल करने के पक्षधर थे तथा रॉय मिशाल के तौर पर. लेनिन राष्ट्रीय आंदोलन को प्रगतिशील मानते थे, रॉय पूंजीवादी विकास के दूसरे चरण में, बुर्जुआ जनतांत्रिक आंदोलन की तर्ज पर राष्ट्रीय आंदोलन को समझौतावादी मानते थे. गौरतलब है कि यूरोप के जिन देशों में पूजीवाद का विलंबित विकास हुआ वहां बुर्जुआ जनतांत्रिक ताकतों ने सामंतवाद के विरुद्ध संघर्ष को तार्किक परिणति तक ले जाने की बजाय मजदूरों के खतरे के डर से सामंतवाद से समझौता कर लिया था[xi]. कॉमिंटर्न की 1928 की कांग्रेस ने रॉय का राष्ट्रीय आंदोलन से दूरी बनाने का प्रस्ताव लागू किया लेकिन रॉय को कॉमिंटर्न से निष्कासित करने के बाद. उससे कम्यनिस्ट पार्टी तथा राष्ट्रीय आंदोलन को हुई अपूरणीय क्षति इतिहास बन चुका है.
1991 में कुछ समकालीन मार्क्सवादियों के संदर्भ में कहा था कि मार्क्स या उनके कामों के उद्धरणों का प्रयोग अमार्क्सवादी कृत्य है. मार्क्सवादी होने का मतलब है, खास हालात में वैसी ही प्रतिक्रिया देना जैसा मार्क्स उन हालात में देते. तमाम अन्य देशों की कम्युनिष्ट पार्टियों की तरह भारत की कम्यनिस्ट पार्टी ने भी मार्क्सवाद को वस्तुगत स्थियों की वैज्ञानिक उपादान की तरह ढालने क  की बजाय मिशाल की तौर पर अपना लिया तथा कॉमिंटर्न की समझ को सत्य. मार्क्सवाद किसी ज्ञान को अंतिम ज्ञान नहीं मानता, ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है. हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को सहेजती और आगे बढ़ाती है. यहीं से शुरू होता है जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के व्यवहार में मेंअधिनायकवादी केंद्रीयतावाद में पतन.   सीपीयम में गुटबाजी का जिक्र करते हुए लिखते हैं, कम्युनिस्ट पार्टी गुटों से मुक्त पार्टी नहीं होती और गुटों में बंटा नेतृत्व समस्त पार्टी का नहीं खास गुटों का प्रतिनिधित्व करता है. (पृ.10) अशोक मित्र के हवाले से लिखते हैं कि लेनिन युग सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी में सभी मतों को सम्मान से सुना जाता था, “’ लेकिन पश्चिम बंग में यह पवित्र नीति बंगालू जमींदारी में बदल गयी है.’” अगर कम्युनिस्ट पार्टी से मानवुक्ती का सपना सच करना है तो उसका चरित्र बदल कर पुनर्गठित करना होगा. लेखक का मानना है कि चरित्र बदलने के लिए जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर पुनर्विचार की जरूरत है. इसे खारिज करके पार्टी सदस्यों की पूर्ण सहभागिता और हर फ्रकार के विचार की समान मर्यादा के आधार पर सके पुनर्विन्यास के किसी नये सिद्धांत में ही इसकी मुक्ति है.” (पृ.15) इस बात पर मैं लेखक से अंशतः असहमत हूं क्योंकि समस्या जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के सिद्धांत से नहीं उसकी व्यावहारिक विकृति से पैदा हुई है. नीचे से ऊपर की प्रक्रिया (प़लिटिक्स फ्रॉम बिलो) की उपर से नीचे की प्रक्रिया में (पॉलिटिक्स फ्रॉम ऍबब) में तब्दीली से जनतांत्रिक केंद्रीयता वाद अधिनायकवादी केंद्रीयतावाद में तब्दील हो गया. इसका मौलिक श्रेय कॉमिंटर्न तथा कॉ. स्टालिन को जाता है. सिद्धांततः प्रत्यक्ष जनतंत्र के  विकल्प के रूप में विचारित जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के सिद्धांत को खारिज करने की नहीं, उसे पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है.
मार्क्स-एंगेल्स जब 1848 में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लिख रहे थे तो यूरोप में, जनतांत्रिक आंदोलनों के परिणामस्वरूप जन्म आधारित सामाजिक विभाजन खत्म हो चुका था और पूंजीवाद ने वर्ग विभाजन को सरलीकृत कर दिया है. समाज को दो विरोधी खेमों में बांट दिया है, पूंजीपति तथा सर्वहारा.भारत में तब क्या आज भी ब्राह्मणवादी जातीय श्रेणीबद्धता आज भी सच्चाई है. जिस तरह रूसी क्रांति के बाद पार्टी की दुहरी जिम्मेदारी थी पूंजीवाद का विकास तथा साम्यवाद में संक्रमण की परिस्थितियों तथा समाजवादी चेतना का निर्माण, उसी तरह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की दोहरी जिम्मेदारी होनी चाहिए थी – जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष तथा समाजवादी चेतना का निर्माण. छात्रों ने खंडित-विखंडित वाम तथा अंबेडकरवादी संगठनों के साथ मिलकर जो फासीवाद विरोधी मोर्चा बनाया है इस एकता को सैद्धांतिक जामा पहनाना है. जरूरत अंबेडकर तथा मार्क्स की शिक्षाओं के आलोचनात्मक संश्लेषण की है.
बीसवीं सदी को क्रांति की सदी के रूप में चित्रित करते हुए क्रांतिकारी आंदोलनों की समीक्षा करता क्रांति का विज्ञान लेख रोचक के साथ ज्ञानवर्धक है. सीपीयम की राजनीति के संदर्भ से अरुण जी सवाल उठाते हैं, क्या भारतीय वामपंथ किसी गली के अंतिम छोर तक आकर थम गया है?” वामपंथ थमता नहीं, बस कर्ता तथा कारक बदल जाते हैं, वामपंथ की समझ बदल जाती है. लेखक की इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि अन्याय तथा गैर-बराबरी या किसी भी तरह के वर्चस्व – सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक -- के विरुद्ध सारे ही संघर्ष 
वर्गसंघर्ष के ही अभिन्न अंग हैं. बदले हुए परिदृश्य में प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर ही नहीं, विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में भी कॉमिंटर्न के दिनों के कमांड ढांचे को त्याग कर विविधताओं से भरी दुनिया के बहुरंगी अनुभवों को समेटकर चलने की बहुलतावादी संस्कृति के पनपने तथा पुष्ट होने की जनतांत्रिक संभावनाएं पहले के किसी भी समय की अपेक्षा कहीं ज्यादा है. लेकिन मुझे लगता है लेखक का इशारा चुनावी ताल-मेल से है, और शासक दलों से चुनावी गठबंधनों का अनुभव उत्साह वर्धक नहीं है. संघर्षों से ही जनतांत्रिक मंच बनाये जा सकते हैं तथा वाममोर्चा की पार्टियां कब से संघर्षों का रास्ता भूल गयी हैं, उन्हें अपने छात्र संगठनों का अनुशरण करना चाहिए. नये सिद्धांतो पर नये समाजवादी संगठन की बात दोहराते हुए यह लेख पुस्तक के इस उद्धरण से साप्त करता हूं.
       ... आज की दुनिया के क्रांतिकारी रूपांतरण के लिए जरूरत जनतंत्र की पताका उठाए हुए मजदूर वर्ग की जन क्रांतिकारी पार्टी के उभार की है. यह संपूर्ण वामपंथी आंदोलन के एक नये आधार पर पुनर्गठन की मांग करता है. मगर इस पुनर्गठन के क्रांतिकारी सैद्धांतिक आधार की जरूरत है. जय-भीम लाल-सलाम के प्रतीक को ठोस सैद्धांत में तब्दील करने की जरूरत है.





[i][i] पेज 9
[ii] Adam Smith, Wealth of Nations
[iii] विस्तृत जानकारी के लिए देखं Biplab Dsgupta, Structural Adjustment Global Trade and the New Political Economy of Development
[iv] राजीव भार्गव आदि. फुकोयामा.... (बाद में)
[v] Randhir Singh
[vi] समाजवाद
[vii] 2007
[viii] समाजवाद....
[ix] राल्फ मिलीबैंड  Marxism and Politic, Oxford University Press, 1976
[x] Marx, Karl, Poverty of Philosophy   
[xi] रॉय-लेनिन डिबेट. ईश मिश्र

No comments:

Post a Comment