Saturday, March 19, 2016

कम्युनिस्ट तथा जातिः


दिल्ली 110007

कम्युनिस्ट तथा जातिः कांति विश्वास की जीवनी की समीक्षा पर टिप्पणी
ईश मिश्र
 26 दिसंबर 2016 की अंग्रेजी की साप्ताहिक पत्रिका, मेनस्ट्रीम के 26 दिसंबर 2016 अंक में एके विश्वास द्वारा कांति विश्वास की जीवनी आमार जीवनः किछु कथा  के समीक्षात्मक लेख पढ़ना खत्म करते-करते जातिवादी सोच की व्यापकता से मन अवसादित हो गया. कम्युनिस्ट पार्टी में भी ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति चिंता की बात है. वह भी इतिहास के इस दौर में जब सामाजिक चेतना पर दक्षिणपंथी कट्टरवादी शक्तियों की मुखरता आक्रामक हो. मैंने 1985 में एक लेख में यह तो लिखा कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी जाति-धर्म के समीकरणों का चुनावी इस्तेमाल अन्य पार्टियों की ही तरह करती हैं, लेकिन किसी कम्युनिस्ट की चेतन-अवचेतन सोच में ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों की कल्पना भी नहीं किया था. इस लेख का शीर्षक, एक कम्यनिस्ट की बातः एक नामसूद्र के संस्मरण (“A Communist Speaks: Memoirs of a Namasudra”)   बहुत कुछ कह देता है. वर्गविहीन समाज के निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध किसी कम्युनिस्ट पार्टी में किसी दलित सदस्य को दलित होने की अवमानना या अवहेलना की अनुभूति भारत में वामपंथी आंदोलन के लिए एक अशुभ संदेश है. ब्राह्मण कम्युनिस्ट या दलित कम्युनिस्ट अपने आप में अंतरविरोधी अवधारणाएं हैं. लेकिन जैसा कि इस लेख में कांति विश्वास की जीवनी के उद्धरणों से स्पष्ट है कि कम्युनिस्ट पार्टी में ऐसे भी मार्क्सवादी हैं जो ब्राह्मणवादी तर्ज़ पर ज्ञानार्जन की प्रतिभा को जन्मना मानते हैं. कम्युनिस्ट पार्टी अन्य पार्टियों से इस मायने में अलग होती है कि वह सिद्धांत पर जोर देती है तथा सिद्धांत और व्यवहार की द्वंद्वात्तमक एकता यानि सिद्धांत को व्यवहार में लागू करने को ही सुविचारित क्रांतिकारी कार्य मानती है. लेकिन जैसा कि अरुण माहेश्वरी  की हाल में प्रकाशित पुस्तक समाजवाद की समस्याएं में सीपीयम के अनुभवजन्य विश्लेषण से स्पष्ट है कि सिद्धांत तथा व्यवहार का अंतर्विरोध तथा अधिनायकवादी सांगठनिक कार्यपद्धति पर शासकवर्ग की पार्टियों का एकाधिकार नहीं हैकम्युनिस्ट पार्टियां भी उनसे उन्नीस नहीं है. जनतांत्रिक केंद्रीयता के सिद्धांत के मूलभूत सिधांतों की धज्जियां उड़ाते हुए, सांगठनिक अधिनायकवाद, सीपीयम की ही नहीं बल्कि दुनिया की सभी पारंपरिक पार्टियों की विशिष्टता है. हमारे छात्र जीवन में एक चुटकुला प्रचलित था. 1956 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस में (1953 में स्टालिन के मृत्यु के बाद पहली) जब ख्रुश्चेव ने स्टालिन पर हमला बोला तो प्रतिनिधियों में से किसी ने फुसफुसा कर कहा कि सेंट्रल कमेटी में वे क्या कर रहे थे. ख्रुश्चेव ने कड़क कर पूछने वाले का नाम जानना चाहा. सब चुप. ख्रुश्चेव ने कहा कि वह भी यही कर रहे थे.

इस समीक्षात्मक लेख में, आमार जीवनः किछु कथा की समीक्षा के पहले लेखक ने भारत के पूर्व राषट्रपति, के आर नारायनन तथा अन्य दलित लेखकों के आत्मकथात्मक लेखों उद्धरणों से समाज में व्याप्त जातीय पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से ग्रस्त मानसिकता के चलते इनके दिलों पर लगी चोटों के कभी न मिटने वाले निशानों की चर्चा करते हैं. इसके बाद कांति विश्वास की इस आत्मकथात्मक पुस्तक तथा वाममोर्चा के मंत्रिमंडल की संरचना के आंकड़ों आधार पर दर्शाते हैं कि किस तरह वाम पाटर्टियों का नेतृत्व भी, कर्म या विचार की बजाय जन्म के आधार पर व्यक्तित्व के आंकलन के ब्राह्मणवादी मूलमंत्र की गिरफ्त से मुक्त नहीं हो पाया है.  

मुझसे जब सामाजिक न्यायवादी दलित साथी पूछते थे कि ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता ब्राह्मण क्यों हैंमुझे ईमानदारी से लगता था कि इतिहास की वैज्ञानिक समझ के लिए आवश्यक बौद्धिक संसाधनों की सुलभता ही इसका प्रमुख कारण है. जैसे-जैसे यह सुलभता सार्वभौमिक होगीयह सवाल अप्रासंगिक हो जायेगा. लेकिन इस लेख ने मुझे गलत साबित कर दिया.  मुझे लगता है कि मार्क्स की तरह कम्युनिस्ट नास्तिक तो होगा ही तथा उसके पहले जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग के परिणामस्वरूप जातीय पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से मुक्त हो चुका होगा. यह कैसी शिक्षा तथा कम्युनिस्ट प्रशिक्षण हैजो जन्म की जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता से मुक्ति नहीं देतीमार्क्सवाद कम-से-कम इतनी बुनियादी समझ तो पैदा करता ही है कि चेतना का स्तर तथा विद्वता या अज्ञानता जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति न होकर भौतिक परिस्थितियों (समाजीकरण) तथा सचेतन निजी प्रयास का परिणाम है.

1977 में कांति विश्वास सीमीयम के टिकट से बंगाल में यमयलए चुने गये. ज्योति बसु की सरकार में किसी भी अनुसूचित जाति के मंत्री की अनुपस्थिति कॉ. विश्वास को असहज लगी. उन्होने ज्योति बसु का इस तरफ ध्यानाकर्षण किया तो सर्वहारा के अधिनायक का हास्यास्पद जवाब थामानता हूं कि अनुसूचित जाति के लोग सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े हैं लेकिन उनमें से किसी को मंत्रिमंडल में शामिल करने का क्या औचित्य है.  जातीय पूर्वाग्रह-दुराग्रह में यह बयान किसी भी ब्राह्णवादी दकियानूसी से कम नहीं है. इसका निहितार्थ यह है कि प्लेटो के दार्शनिक राजा की ही तरह भद्रलोक बंगाली क्रांतिकारी सभी तपकों – दलितआदिवासीअल्पसंख्यक – की समस्याओं को समझने तथा उनकी भागीदारी के बिना उन्हें सुलझाने में सक्षम हैं. मार्क्स ने कहा है कि जनता के मुद्दे के अलावा कम्युनिस्ट का कोई अपना मुद्दा नहीं होता. कॉ. विश्वास को बिना मंत्रालय के मंत्री बना दिया गया. छीछालेदर होने पर उन्हें युवा मामलों तथा गृह (पारपत्र) विभाग दिये गये. उनके काम की सभी हल्कों में प्रशंसा हुई.
1982 में वाम मोर्चे की सरकार की सत्ता में वापसी हुई. वे शिक्षामंत्री (स्कूल) बने. भद्रलोक का ब्रहमांड ऐसा डामाडोल हुआ जैसा रामायण में संबूक की तपस्या से वर्णाश्रमी ब्रह्मांड हुआ था और जिसका बध करने राम को स्वयं जाना पड़ा था. लेख में उद्धृत किया गया है कि सीपीयम के स्टेट सेक्रेटरीप्रमोद दासगुप्त ने उन्हें उनके बारे में मिले लगभग 400 पत्र थमाया. 24-परगना के किसी भट्टाचार्य के पत्र में लिखा थाइससे क्या हुआ कि कांति विश्वास युवा मामलों के सफल मंत्री रहे हैंहैं तो वे चांडाल ही. चांडाल के हाथों शिक्षा पाकर बंगाल नापाक हो जायेगा....... . . एक चांडाल को चाहे तो इससे महत्वपूर्ण कोई और जिम्मेदारी भले दे दी जायलेकिन भगवान के लिए एक चांडाल मंत्री को शिक्षा की बागडोर सौंपने से बंगाल को अपूरणीय क्षति पहुंचेगी.

 चलिए ये भट्टाचार्य जी तो जो हैं सो हैं. 1985 में जब उन्हें म़ॉस्को की पौट्रिस लुमाम्बा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के क्षात्रोंशोधार्थियों तथा शिक्षकों को लेक्चर देने के लिय़े आमंत्रण मिला. उनकी विद्वता तथा वाक्पटुता की प्रशंसा से प्रभावित होकर सोवियत संघ सरकार ने उनका आमंत्रण 10 दिन बढ़ा दिया. कई विश्वविद्यालयों में उन्होंने शिक्षाविदों तथा शिक्षार्थियों को उन्होंने संबोधित किया. लेकिन पार्टी में कुछ लोगों ने क्रांति की काशी’ के एक प्रमुख विश्वविद्यालय में छात्रोंशोधार्थियों तथा शिक्षकों को संबोधित करने की उनकी योग्यता पर प्रश्न-चिन्ह लगाया था. नेताओं का नाम न जाहिर करते हुए कांति विश्वास ने अपनी जीवनी में लिखा है कि सीपीयम के नेताओं का एक प्रतिनिधि ने ज्योति बसु से शिकायत में एक स्कूल शिक्षक की इतने बड़े विश्वविद्यालय में भाषण देने की योग्यता पर सवालिया निशान लगाया. उनके सवालिया निशान में लेखक को बंगाली भद्रलोक की चेतन-अवचेतन जातीय पूर्वाग्रह दिखते हैं.

हमारे सारे शास्त्र-पुराण, गीता-समायण चांडालों के बारे में दुर्भावनाग्रस्त अपशब्दों से भरे पड़े हैं तथा हमारे संस्कारों में घुस जाते हैं. यूरोप में नवजागरण तथा प्रबोधनकाल के बौद्धिक आंदोलनों ने जन्मजात कुलीनता-अकुलीनता का भेद समाप्त कर दिया था. 19वीं शदी तक वहां सामाजिक विभाजन का आधार प्रमुखतः आर्थिक था. इसीलिए मार्क्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में लिखा है कि पूंजीवाद ने समाज को दो परस्पर विरोधी वर्गों – पूंजीपति वर्ग तथा सर्वहारा वर्ग — में बांट कर वर्गविभाजन को आसान कर दिया. भारत में जन्मजात जातीय आधार पर सामाजिक विभाजन के विरुद्ध इस तरह को कोई बौद्धिक आंदोलन नहीं हुआ. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने मार्क्सवाद को समाज को समझने बदलने की पद्धति की बजाय मिशाल के तौर पर अपनाया. सामाजिक (जातीय) अन्याय का मुद्दा इसके कार्यक्रम में नहीं जगह बना सका, जो अंबेडकर के कार्यक्रम का मुख्य मुद्दा बना.  






एक कम्युनिस्ट पार्टी के भद्रलोक नेताओं में जातीय पूर्वाग्रह को देखते हुए मनुस्मृति को सर्वश्रेष्ठ कानून की किताब मानने वाले आरआरयस के स्वयंसेवक रहे डॉ. मुरली मनोहर जोशी के जातीय पूर्वाग्रह पर शायद इतना आश्चर्य नहीं होना चाहिए. सन् 2000 में, यनडीए सरकार में मानवसंसाधनमंत्री थे. राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के एक सम्मेलन में किसी मुद्दे पर भाजपा तथा कांग्रेस शासित प्रदेशों के शिक्षामंत्रियों के बीच परस्पर अड़ियल रुख के चलते गतिरोध बन गया था. कांति विश्वास ने अपनी अंतःदृष्टि तथा तर्कशीलता से वह गतिरोध तोड़ा. जोशी जी ने उनकी विश्वदृष्टि, अद्वितीय मेधा तथा शिक्षा की समझ की भूरि भूरि प्रशंसा की. लेकिन उनका मनुवादी मन यह नहीं कबूल सका कि कोई अनुसूचित जाति का वह भी चांडाल इतना ज्ञानी हो सकता है. उन पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने बंगाली ब्राह्मण होकर राजनैतिक फायदे के लिए अनुसूचित जाति की फर्जी सर्टिफिकेट बनवा लिया. वर्णाश्रमी सामंती संस्कृति में पले-बढ़ेशाखा में प्रशिक्षित इस ब्राह्मण की कूपमंडूकता मान ही नहीं सकती कि अकथनीय सामाजिक भेद-भावअवमानना तथा प्रवंचना के बावजूद कोई दलितों-में-भी-दलित शिक्षाविद बन सकता है. जोशीजी भौतिकशास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं तथा आजीवन शाखा-भक्त. भौतिकी एक ऐसा विषय है जो प्रमाणिक भौतिक को ही सत्य मानता है. जैसा इस लेख में है कि सीपीयम के बड़े नेताओं(मंत्री-विधायक-पार्टी पदाधिकारी) में अल्पसंख्यक भद्रलोक (6.1%) का ही वर्चस्व रहा है. जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है. फर्जी सर्टिफिकेट ही बनवाना होता तो ब्राह्मण का बनवाते. कॉम. कांति विश्वास ने का जवाब दिया, तमाचा है. आपको ऐसा क्यों लगता है कि किसी छोटी जाति का आदमी ज्ञान प्राप्त कर शिक्षाविद नहीं बन सकता? यह मानना कि शिक्षा ब्राह्मणों की बपौती हैआपकी भयानक भूल है. मैं अनुसूचित जाति का हूं तथा पूर्वाग्रहो तथा पोंगापंथी से भरपूर आपकी इस बचकाने बयान की स्पष्ट शब्दों में निंदा करता हूं. 

भारत जैसे देश में जहां समाजविभाजन में प्रभुत्व का प्रमुख आधार मध्यकालीन जातीय हो वहां कम्युनिस्ट पार्टियों का जाति के मुद्दे को समता के सार्वभौमिक संघर्ष में समाहित माऩ लेऩा एक ऐतिहासिक भूल थी. उसी तरह जिस तरह जातिवाद विरोधी पार्टियों द्वारा इस तथ्य को नज़र-अंदाज करना कि शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं. सामाजिक वर्ग-विभाजन तथा जातीय दमन को नजर-अंदाज कर बॉलसेविज्म को मिशाल की बजाय मॉडल मानकर नीति-निर्धारण से कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवादी सिद्धांतों को लागू करने में देश-काल की ठोसवस्तुगत परिस्थितियों के विश्लेषण की जहमत नहीं उठाया. कम्युनिस्टों को मार्क्स को फिर से पढ़ने की जरूरत है तथा मार्क्स के उदारवादी पूंजीवाद की समीक्षा के तरीके को नवउदारवादी पूंजीवाद की समीक्षा के तरीके में ढालने की. सामाजिक संघर्ष के निर्वात को भरने का अवसर सामाजिक-न्याय के नेताओं को मिला. सामाजिक न्याय की पार्टियां आर्थिक वर्ग-विभाजन को नज़रअंदाज कर शासकवर्ग की अन्य पार्टियों के क्लब में शामिल हो गयीं.

पश्चिम बंगाल में सीपीयम नेतृत्व की सरकार के 3 दशक पूरा होते होतेक्रांतिकारी विचारों के व्यापक प्रसार की जगह वाम दलों तथा शासकवर्ग की पार्टियों में गुणात्मक फर्क़ खत्म हो गया. कांग्रेस तथा भाजपा की ही तरहकम्युनिस्ट पार्टियों में हाईकमान बन गया. जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के सिद्धांत के तहत विचारित सामूहिक नेतृत्व की अवधारणा की जगह केंद्रीकृत जनतंत्र के तहत व्यक्तिवादी नेतृत्व ने ले लिया. सीपीयम के पास सशस्त्र दस्ता तो नहीं थालेकिन सलवाजुडूम या बजरंगदल की तर्ज पर हरमद नाम की प्रशिक्षित बाहुबलियों की निजीअवैध सेना थीजिसकी उत्पात रोंगटे खड़े कर देती है.  

आज जब जनतांत्रिक संस्थाओं पर फासीवादी हमला तेज हो चला है, विश्वविद्यालयों को निशाना बनाया जा रहा है,रों को अप्रासंगिक बना दिया है और वामपंथ की फौरी जिम्मेदारी संवैधानिक जनतांत्रिक संस्थाओं की सुरक्षा तथा जनवादी चेतना का प्रसार है. रोहित वेमुला की शहादत ने सभी वामपंथी तथा अंबेडकरवादी संगठनों को एक साथ ला दिया है. जयभीम लाल सलाम नारों की एकता संघर्षों के इतिहास को नया मोड़ देगी. संघ परिवार तथा सरकार के जेयनयू पर साझे हमले ने इस इस एकजुटता को पुख्ता कर दिया है. उम्मीद की जानी चाहिए संघर्षों की एकता सैद्धांतिक एकता में तब्दील हो, जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के सिद्धांत को सही सही लागू करते हुए, समाज में जनवादी ताकतों के नये समीकरण का दबाव ऊपर से नीचे की बजाय  नीचे से ऊपर जाये तथा हाईकमान की अवधारणा को अप्रासंगिक बना दे. सभी वामपंथी व्यक्तियों तथा संगठनों का नैतिक दायित्व बनता है कि छात्रों पर लादे गये इस सांस्कृतिक-बौद्धिक आंदोलन को व्यापक जनांदोलन में तब्दील करें. कम्युनिस्टों को मार्क्स के पुनर्पाठ की इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम की सलाह उपयोगी होगी. भारत जैसे अर्धसामंती, नवउपनिवेशवादी समाज में क्रांति का पथ प्रशस्त करने के लिए सामाजिक न्याय तथा आर्थिक न्याय के संघर्षों के सम्मिलन की आवश्यकता है, अंबेडकर तथा मार्क्स के विचारों के समन्यव तथा जयभीम-लालसलाम नारों की एकता की निरंतरता की जरूरत है.

ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग


हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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