मैं, 21 साल की उम्र में, 1976 में, आपातकाल में भूमिगत रिहाइश की संभावनाएं तलाशते इलाहाबाद से दिल्ली आया और इलाहाबाद के एक सीनियर और ज्एनयू छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष डीपी त्रिपाठी (अब दिवंगत) को खोजते जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे, इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर, रमाशंकर सिंह से मुलाकात हो गयी, जिन्हें मैं इलाहाबाद में नहीं जानता था। उनके कमरे में रहने की जुगाड़ हो गयी। इस तरह मैं जेएनयू ज्वाइन करने के पहले ही जेएनयूआइट हो गया। रहने की जुगाड़ के बाद खाने (आजीीविका) की जुगाड़ करनी थी। कैंपस में स्कूल में पढ़ने वाले प्रोफेसरों के कुछ बच्चों से दोस्ती हो गयी, जिन्हें कभी कभी गणित पढ़ा देता था। प्रो. परिमल कुमार दास का बेटा पल्लव मेरा अच्छा दोस्त बन गया। वह उस समय कक्षा 10 में पढ़ता था। उसकी मां बहुत ही अच्छी व उसूलों वाली इंसान थीं। सरदार पटेल विद्यालय में पढ़ाती थीं। उन्हें मैं चाची जी कहता था तथा उनसे मिले स्नेह के लिए सदा आभारी रहूंगा। उनके बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा। खैर पल्लव को औपचारिक रूप से ट्यूसन पढ़ाने लगा तथा गणित के ट्यूसन से आजीविका चलाने का फैसला किया।
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