जनविद्रोह के चलते श्रीलंका की राजपक्षे सरकार के अवश्यंभावी पतन के संदर्भ में मैंने कर्ज से करकार बनाने-चलाने पर एक टिप्पणी की लेकिन किसी को वह मोदी की आलोचना लगी और प्रकारांतर से वामपंथी दुष्प्रचार का आरोप लगाने लगे। उस परः
आपने या तो पोस्ट ध्यान से पढ़ा नहीं, या समझा नहीं। इसमें न तो मोदी का विरोध है न विजयन का, इसमें श्रीलंका के राजनैतिक घटनाक्रम के संदर्भ में देश के नाम पर कर्ज लेकर लोगों की कमर तोड़ने की राजनीति की समीक्षा है। रिजर्व बैंकि के आंकड़ोॆ के अनुसार जून 2021 में भारत का विदेशी कर्ज बढ़कर 57130 करोड़ डॉलर था जो मार्ट 2021 की तुलना में 160 करोड़ डॉलर अधिक था। यह कर्ज लगातार बढ़ता ही जा रहा है। विदेशी कर्ज का भार शासक या शासक दल पर नहीं, आम जनता पर पड़ता है। बढ़ता विदेशी कर्ज आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध करता है, इससे मंहगाई बढ़ती है और अंतर्राष्यट्रीय बाजार में राष्ट्रीय मुद्रा की औकात घटती है। 1985-86 में मैंने एक अमेरिकी पत्रिका से मिले 100 डॉलर का एक ड्राफ्ट रिजर्व बैंक से लगभग 890 रूपए में भुनाया था। आज एक डॉलर की कीमत 80 रूपए से अधिक है। श्रीलंका में जनविद्रोह का मुख्य कारण विदेशी कर्ज और बड़ती मंहगाई से टूटती कमर है। राजपक्षे की विदाई अवश्यंभावी लग रही है। वे भी लंबे समय तक सांप्रदायिक उंमाद से जनअसंतोष रोकने में कामयाब रहे, लेकिन पेट पर लात की मार असह्य होती है। भारत में जनविद्रोह की संभावनाएं अभी नहीं दिख रही हैं क्योंकि यह भक्तिभाव प्रधान देश है और भक्त पेट पर लात भी प्रसाद समझकर खाता है। कल भिंडी 100/ किलो खरीदा और तोरी 110/किलो।
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