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बाकी सभी धर्मों में समानता की कम- से सैद्धांतिक संभावना है कि ईश्वर के समक्ष सब समान है, यहां (हिंदू धर्म में) तो ईश्वर ही असमानपैदा करता है।
डॉ. नित्यानन्द श्रीवास्तव इसी लिए सभी धर्म अधोगामी हैं, धर्म आस्था की वेदी पर विवेक (मनुष्यता) की बलि चढ़ाता है। हिंदू धर्म सर्वाधिक अधोगामी है क्योंकि बाकी धर्मों में समानता की सैद्धांतिक संभावना रहती है, हिंदू धर्म में समानता की सैद्धांतिक संभावना भी नहीं होती, सब पैदा ही असमान होते हैं। अब ब्रह्मा का क्या किया जा सकता है?
डॉ. नित्यानन्द श्रीवास्तव ईश्वर को नकारने (नास्तिकता) की सुविधा किसी धर्म में नहीं है, हर धर्म के साहसी औक विवेकशील लोग ईश्वर को नकारते हैं। हिंदू तो एक काल्पनिक इकाई है, न बाभन चमार होता है न चमार बाभन। मेरा तो बचपन में ही मेरे दादा कीउमर के लाला और ठाकुर पैर छूते थे। हिंदू जातियों के समुच्चय का एक नकली पिरामिड है। हर धर्मांधी अपने धर्म में सहनशीलता तथा और धर्म में कट्टरता ढूंढ लेता है, सब अपने अपने कुंएं के मेढक हैं। ऐसे मेढकों में अपढ़ों की तुलना में पढ़े-लिखों का अनुपात ज्यादा है। और विश्वविद्यालयों में हम ऐसी शिक्षा देते हैं कि पीयचडी के बाद भी लोग बाभन (या लाला) से इंसान नहीं बन पाते। जब हम खुद बाभन से इंसान नहीं बन पाते तो अपने छात्रों को क्या बनाएंगे? हम धर्म के अंधे कुएं में रह कर कहां से विवेक और तर्क की ज्योति जलाएंगे?
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