Ravindra Patwal हमने तो काजल की कोठरी में जाने कीबात ही नहीं की। निश्चित ही संघर्ष सभी स्तर पर होना चाहिए क्योंकि दमन के हर स्तर पर हो रहा है -- सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक...। लेकिन इन पार्टियों में चुनावी जोड़-तोड़ और कॉरपोरेटी पार्टियों के पिछलग्गूपन के अलावा संघर्ष की संस्कृति ही गायब हो गयी है। संघर्षों की पीठ पर चढ़कर ही पहले संसदीय उपस्थिति भी थी। बताइए सीपीआई-सीपीयम के नेतृत्व में पिछले 40 सालों में कौन जनांदोलन हुआ है? एसईजेड जैसे साम्राज्यवादी विधेयक बिना बहस के पारित हो गए जबकि वाम के 60 के करीब सांसद थे। मैं संसद में जाने का विरोध नहीं कर रहा लेकिन संसदीय मंचों का इस्तेमाल क्रांतिकारी विचारों के प्रसार यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के लिए होना चाहिए जिस तर्क पर चुनाव की रणनीति को मंजूर किया गया था। पॉलिटिक्स से और कितना समझौता करेंगे?
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