Monday, May 8, 2017

नक्सलबाड़ी और हिंदी साहित्य

नक्सलबाड़ी और हिंदी साहित्य
ईश मिश्र
किसी भी समाज का साहित्य न सिर्फ उसके गतिविज्ञान को चित्रित करता है, बल्कि उससे रचनात्मक ऊर्जा के आदान-प्रदान के रिश्ते से भी जुड़ा होता है। नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के पचासवें साल में हिंदी साहित्य पर इसके प्रभाव की पड़ताल प्रासंगिक है। साहित्य न्याय-अन्याय रचता नहीं, बल्कि समाज में पहले से ही मौजूद न्याय-अन्याय और सामाजिक संघर्षों का एक विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में चित्रण और विवेचन करता है; कुछ को चुनौती देता है और कुछ के साथ एकजुटता प्रदर्शित करता है। तेलंगाना किसान क्रांति के सरकारी दमन और कम्युनिस्ट पार्टी की समझौतापरस्ती के बाद कम्युनिस्ट पार्टी/पार्टियों के नेतृत्व में किसान क्रांति का मुद्दा लंबे अवकाश पर चला गया और पार्टी सरकार के साथ समर्थन-प्रतिरोध की दुविधा के विमर्श में फंसी रही। 10 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के सीमांत दार्जलिंग जिले के किसानों ने सामंती जमींदारों की लूट और अत्याचार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह कर दिया, और जैसा कि अब इतिहास बन चुका है, इसने देश के राजनैतिक-बौद्धिक विमर्श का परिदृश्य ही बदल दिया। नक्सलबाड़ी विद्रोह ने भारत के वाम परिदृश्य में एक नई विचारधारा –- नक्सलवाद — को जन्म दिया जिसका भूत शासकवर्गों के सिर पर लगातार सवार रहता है, जो हर जनवादी प्रतिवाद पर नक्सल-नक्सल अभुआने लगते हैं।

नक्सलबाड़ी की आहटें बंगला साहित्य में बहुत पहले सुनाई देने लगी। महाश्वेता देवी का कालजयी उपन्यास, हजार चौरासीवें की मां एक ऐसी ही दमदार आहट है। नक्सलबाड़ी से उठी ज्वाला की लपटें जैसे-जैसे फैलती गई, अन्य भाषाओं के साहित्य में भी उसकी आहटें सुनाई देने लगी और हिंदी साहित्य इससे अछूता कैसे रह सकता था। हिंदी कविता में अराजक विद्रोह व्यवस्थित विद्रोह में तब्दील हो गया और हिंदी कविता, ‘सड़क से संसद’ (धूमिल) घेरने लगी। नक्सलबाड़ी से शुरू हुए आंदोलन का संदेश साफ था – संशोधऩवाद और संसदीयता का निषेध तथा सशस्त्र किसान क्रांति से चीनी अनुभव की तर्ज पर गांव से शहर घेर कर राज्य सत्ता पर कब्जा करना। यह संदेश 1970 के दशक से बहुत से हिंदी कवि-कथाकार की रचनाओं में परिलक्षित होने लगा। तेलंगाना के बाद पिछले 50 सालों में नक्सबाड़ी से शुरू हुए क्रांतकारी आंदोलन के खंडन-विखंडन और नक्सलबाड़ी की विरासत के विभिन्न दावेदारों के मतभेदों तथा संशोधनवाद के परस्पर आरोपों-प्रत्यारोपों की समीक्षा की न तो यहां गुंजाइश है और न ही जरूरत। तेभागा और तेलंगाना क्रांतिकारी किसान आंदोलनों के बाद वाम राजनीति में आई किंकर्व्यविमूढ़ता को, नक्सलबाड़ी विद्रोह – वसंत की गर्जना के विचार ने तोड़ा और जनवादी विमर्श को एक नया आयाम प्रदान किया तथा अकविता एवं असाहित्य की अराजकता के दलदल में फंसी हिंदी वाम साहित्यिक चेतना को एक नई दिशा। इस लेख का मकसद इस नई दिशा की संक्षिप्त समीक्षा है।

मुक्तिबोध की 1964 में प्रकाशित एक कविता की अंतिम पंक्तियां हैं:

हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा
संकल्पधर्मा चेतना का रक्त प्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विराट हो जायेगा।

और दुनिया बदलने की नई विश्वदृष्टि, संकल्प-धर्मा चेतना और हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर नक्सलबाड़ी विद्रोह से नक्सलवाद की विचारधारा के रूप में प्रकट हुआ जिसने अन्य भाषाओं की तरह हिंदी साहित्य के क्षितिज का परिदृश्य ही बदल दिया। हिंदी कविता मांग करने लगी,

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसलसल फन का दम घुँटता है इन अदबी इदारों में। (अदम गोंडवी)

आत्म-प्रलाप; वैचारिक विभ्रम और शब्दाडंबर के मकड़जाल को काटकर, जन सरोकारों और जन-संघर्षों के साथ जनवादी चेतना की द्वदंद्वात्मक एकता को पहली सामूहिक, मुखर अभिव्यक्ति मिली माहेश्वर के संपादन में, 1970 में कलकत्ता से प्रकाशित, चार कवियों के संग्रह, 'शुरुआत' में। ये चार कवि हैं: तड़ित कुमार; हरेंद्र द्विवेदी; उग्रसेन और माहेश्वर। इसकी भूमिका जानेमाने जनवादी लेखक-आलोचक, हंसराज रहबर ने लिखी थी। यह एक नई जनवादी चेतना की सुस्पष्ट, धारदार भाषा में अभिव्यक्ति की शुरुआत थी। इस संकलन की हरेंद्र द्विवेदी की एक कविता की निम्न पंक्तियां उन दिनों काफी लोकप्रिय एवं चर्चित हुईं।

तुम्हें दो चार की खुशी के लिए
प्यारा है हजारों की मौत का कानून
और हमें लाखों-करोड़ों की खुशी के लिए
प्यारा है दो-चार का खून।

नक्सलबाड़ी विद्रोह की कोख से जन्मे विचारों के शुरुआती दौर में ही इन कवियों ने वामपंथ में मौजूद सुधारवादी प्रवृत्ति की दुविधा को तोड़ते हुए कविता को एक सुस्पष्ट, जनवादी स्वर दिया। इसी संकलन की उग्रसेन की कविता है:

नहीं, अब जरूरी हो गया है
ले लेना निर्णय
कि सांस लेने भर की राहत के लिए भी
हमें यह सारी सख्त चट्टानें तोड़नी होंगी।

ये कविताएं कड़वी सच्चाई की कड़वाहट मनोरम शब्दों में छिपाने की बजाय शोषण-दमन की सच्चाई का अनावरण करती हैं और से चुनौती देती हैं। 1973-74 में बीबीसी से प्रसारित अदम गोंडवी की कालजयी कविता चमारों की गली सारे सफेदपोश तपकों को हक़ीकत जानने के लिए अपने गांव आमंत्रित करती है:

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए

1970 के दशक के पूर्वार्ध में 'शुरुआत' में संकलित कविताओं के अलावा इस नई जनवादी धारा की शुरुआत में आलोक धन्वा की दो कविताएं, गोली मारो पोस्टर और जनता का आदमी और अदम की चमारों की गली काफी चर्चित कविताएं हैं। इसी दौर में हरेंद्र द्विवेदी का लघु उपन्यास, धन्नो रानी कितना पानी प्रकाशित हुआ। कंचन कुमार द्वारा संपादित आमुख में प्रकाशित विष्णुचंद्र शर्मा की 'सर्वनाम' और उग्रसेन की 'दस्ता' इस धारा की चर्चित कहानियां थीं। आपातकाल के आसपास की धूमिल और नागार्जुन की कुछ कविताएं इसी श्रेणी में गिनी जाती हैं। नागार्जुन ने तो एक कविता में इस विद्रोह से निकली साहित्यिक धारा का अभिनंदन तक किया है,

प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का।

उनकी कविता, 'भोजपुर' एक तरह से नक्सल विचारधारा का अनुमोदन करती है तो 'बारूदी छर्रे' और 'यही धुंवा' क्रांतिकारी युवा उमंगों को प्रोत्साहन प्रदान करती हैं। नक्सलबाड़ी विद्रोह के प्रभाव में बने नए साहित्यिक माहौल से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लोहियावादी कवि भी अछूते न रहे। जब गोरख पांडेय ने किसान क्रांतिकारियों, किष्टा गौड़ा और भूमैया की फांसी पर, 'उसको फांसी दे दो... उसको सचमुच की आजादी चाहिए, उसको फांसी दे दो' लिखा लगभग उसी समय सर्वेश्वर जी ने भी इन क्रांतिकारियों की फांसी पर सवाल उठाते हुए लिखा, 'चाक कर जो अजदहों के पेट बाहर आ गये, ऐसे दीवाने वतन यूं ही गंवाए जायेंगे!' यह विद्रोही तेवर उनके संकलन, कुआनो नदी की ज्यादातर कविताओं में दिखता है।

आपात काल में भी दूर-दराज के इलाकों में जनवादी साहित्य रचा जाता रहा लेकिन आपातकाल के बाद तो जनवादी लेखन में उफान सा आ गया। इस दौर में कविता का तेवर भी बदला। अब लाखों-करोड़ों की खुशी के लिए, दो-चार का खून की बजाय लाखों करोड़ों की सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की बात होने लगी। वर्गचेतना से लैस जनता खुद क्रांति करेगी। जोर सशस्त्रविद्रोह से हटकर सामाजिक चेतना के जनवादीकरण पर दिया जाने लगा। दुनिया हिलाने के लिए गोरख का मशहूर भोजपुरी गीत सशस्त्र दस्ते से नहीं, 'जनता की पलटनिया' पर भरोसै जताता है। 'जनता के आवे पलटनिया, हिलेले झकझोर दुनिया'। आपातकाल के पहले की कविताओं में सशस्त्र क्रांति का संदेश था तो बाद की रचनाओं में सामाजिक चेतना के जनवादीकरण का, दुष्यंत कुमार की गज़लें जिसका पूर्वाभास हैं:

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
......................
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

1981 में पंकज सिंह का पहला संकलन, 'आहटें आसपास' और 1982 में गोरख पांडेय का पहला संकलन, 'जागते रहो सोने वालों' के प्रकाशन, इस काव्यधारा की यात्रा में मील के महत्वपूर्ण पत्थर हैं। इन संकलनों की कविताओं ने दोनों ही कवियों के लिए जनकवि का विशेषण अर्जित किया। गोरख पांडेय के हिंदी और भोजपुरी गीत जनवादी सांस्कृतिक संगठनों में शीघ्र ही बहुत लोकप्रिय हुए। सीपीआई और सीपीयम की संसदीयता का असर उनसे संबद्ध क्रमश: प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)) और जनवादी लेखक संघ (जलेस) पर भी पड़ा तथा एक वैकल्पिक सांस्कृतिक मंच की जरूरत महशूस हुई। इस निर्वात को भरने के लिए 1985 में दिल्ली में जन संस्कृति मंच की स्थापना हुई, संस्थापक अध्यक्ष प्रसिद्ध नाट्यकर्मी गुरुशरण सिंह चुने गए और गोरख पांडेय सचिव। वैसे तो जन संस्कृति मंच (जसम) की अवधारणा सभी जनवादी संस्कृतिकर्मियों के साझा मंच के रूप में हुई थी, लेकिन कालांतर में यह सीपीआई (माले) लिबरेसन का सांस्कृतिक मंच बन गया तथा लिबरेसन द्वारा संशोधनवादी नीतियां अपनाने के बाद जसम में भी प्रलेस; जलेस की तरह क्रांतिकारी उद्गार औपचारिक हो गये।

गोरख पांडेय के कई भोजपुरी गीत, जैसे 'समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई'; 'जनता की आवे पलटनिया'; 'गुलमिया अब हम नाहीं बजइबे, अजदिया हमरा के भावेल' आदि इतने लोकप्रिय हुए कि जगह जगह स्तानीय लोग कवि का नाम जाने बिना गाने लगे और आज भी जनांदोलनों से जुड़े लोगों की जबान पर रहते हैं। 'समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई ...' शासकवर्गों के खोखले आश्वासनों का भंडाफोड़ करते हुए बढ़ती गैरबराबरी का सत्य उद्घाटित करती है। गोरख की कविताओं में धारदार व्यंग्य का भी तड़का देखने को मिलता है। 'बड़हन के बड़का, छोटहन के छोटका, हिस्सा बराबर लगाई, समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई'। गोरख की हिंदी कविताओं में भी वही धार और पैनापन है। मध्यवर्गीय बुद्धिजीविता पर उनकी कालजयी कविता, 'समझदारों का गीत' जैसी सटीक और मारक चोट पाकिस्तान में लगभग उसी समय की इब्ने इंशां की कविता, 'कुछ कहने का भी वक़्त नहीं है, कुछ न कहो खामोश रहो' में ही मिलती है। गोरख के ही गीतों की तरह शलभ श्रीराम सिंह का कालजयी गीत, 'नफस-नफस कदम कदम, बस एक फिक्र दम ब दम, घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए' भी कई सांस्कृतिक समूह कवि का नाम जाने बिना गाते हैं।

इस धारा के अन्य साहित्यकारों में मंगलेश डबराल, विष्णुचंद्र शर्मा, आलोक धन्वा, वेणु गोपाल, कुमार विकल, महेश्वर, शिवमंगल सिद्धांतकर, वीरेन डंगवाल, नीलाभ, कुमारेद्र पारसनाथ सिंह, ज्ञानेद्रपति, त्रिनेत्र जोशी, राजेश जोशी आदि नाम प्रमुख हैं। बल्ली सिंह चीमा 2013 में आम आदमी पार्टी में शामिल हो गये थे लेकिन, उनके कालजयी गीत, 'ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के' की जिक्र के बिना फेहरिश्त अधूरी रह जाएगी। अजय सिंह की हाल में बहुत चर्चा में रही लंबी कविता, 'राष्ट्रपति भवन में सूअर' तथा नवीन, पाणिनि आनंद तथा अभिषेक श्रीवास्तव की कई कविताएं उसी धारा की वर्तमान कड़ियां हैं। अदम तो साफ साफ कहते हैं, 'ग़र खुदसरी की राह पर चलते हों रहनुमा........ जनता को हक़ है हाथ में हथियार उठा ले' और 'जनता के पास एक ही रास्ता है बगावत, कह रहा हूं यह बात होशो हवास में'। अगली पीढ़ियों की क्रांतिकारी चेतना पर भरोसे के साथ कहते हैं, 'अगली पीढ़ी पर निर्भर है, वही जजमेंट दे, फलसफा गांघी को मौजूं है कि नक्सलवाद है'। उपरोक्त सभी कवियों की कई खूबसूरत कविताओं से उद्धरण देने की लालच रोकते हुए इतना ही कहूंगा कि इस धारा के ज्यादातर कवियों ने मध्यवर्गीय सीमाएं लांघकर सर्वहारा दृष्टि विकसित किया और उनके आंदोलनों से जुड़कर रचनाएं रचीं।

जैसा कि ऊपर हरेंद्र द्विवेदी के उपन्यास और विष्णुकांत शर्मा और उग्रसेन की कहानियों के जिक्र से साफ है कि इस धारा की परिधि में महज कविताएं ही नहीं लिखी गयीं, कथा साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। इसकी की छाप विजेंद्र अनिल और मधुकर सिंह की कई कहानियों में देखी जा सकती है। इस संदर्भ में सृंजय की कहानी 'कॉमरेड का कोट', संजीव का उपन्यास 'आकाशचंपा' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

अंत में निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि यह जनवादी धारा हिंदी साहित्य में शब्दाडंबर, दिगभ्र और गोल-मटोल भाषा के मोह से मुक्त होकर, बल्कि उन्हें खारिज कर जनता के साथ क्रांतिकारी सरोकारों की अभिव्यक्ति, जनता के संघर्षों के संदर्भ में जनता की भाषा में करती है। इस लेख का अंत गोरख के समझदारों का गीत के एक अंश से करना अनुचित न होगा।

यहां विरोध ही सही कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौता करते हैं
हर समझौते के लिए नया तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क को गोल-मटोल भाषा में पेश करते हैं
गोलमटोल भाषा का तर्क भी हम समझते हैं।

ईश मिश्र
17 बी विश्वविद्यालय मार्ग, दिल्ली 110007

2 comments:

  1. शुक्रिया मित्रों. मित्र अनिल जनविजय और युवा साथी अशोक पांडेय का विशेष शुक्रिया बेबाक, उपयोगी आलोचना के लिए। दरअसल यह एक पुस्तक/पुस्तिका का विषय है। शोध का समय और लेख की शब्द सीमा के चलते काफी कुछ छूट गया। दूसरी बार संपादित करने की कोशिस करता हूं। दूसरी बड़ी कमी इस लेख में यह है कि यह कविता केंद्रित हो गया, कथा साहित्य और नाटक की पुकार भर लग कर रह गयी। इस लेख को तो बहुत सामासिक नहीं बना पाऊंगा। तीसरी कमी है कि कविताओं की आलोचनात्मक समीक्षा नहीं की गयी है। फिर कभी इस विषय पर लिखा तो ये सब ध्यान में रखूंगा।

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  2. शुक्रिया, अशोक. सहमत हूं. राजेश जोशी क्या, आलोक धन्वा समेत उनमें से कइयों ने तो सार्जनिक वक्तव्य देकर इस धारा से खुद को अलग किया है। मैंने उस दौर की बात की है। जल्दबाजी की बात सही है, यह भी सही है कि इस पर संपूर्णता में समीक्षात्मक लेख के लिए जितने शोध का समय चाहिए, उसका अभाव था. तमाम चीजें छूटने और समीक्षात्मक की बजाय सूचनात्मक होने के बावजूद, लेख अपने आप में पूरा है। आज कुछ और लिखना था लेकिन सोच रहा हूं इसको ही एक बार पुनर्लिखित करूं। विस्तृत परामर्श मेल कर दो तो आभार होगा. mishraish@gmail.com

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