Tuesday, June 28, 2016

दलित सामूहिक

दलित सामूहिकता: पंजाब में दलितों का भूमि आंदोलन
25 मई 2016 के पंजाब के अखबारों में प्रदेश के संगरूर जिले की भवानीगढ़ तहसील के बालद कलां गांव के जमीन के अधिकार के लिए आंदोलत दलितों पर पुलिस की बर्बर कार्रवाई की खबर छपी. जनहस्तक्षेप के साथियों ने वहां जाकर सच्चाई जानने का फैसला किया 28-29 मई को हमारी टीम ने आंदोलन के कुछ गांवो का दौरा किया. बालद कलां के दलित अनसूचित जाति समुदाय के लिए आरक्षित पंचायती जमीन की नीलामी में ‘फर्जीवाड़ा’ का विरोध कर रहे थे.
पंजाब की ग्रामीण संरचना में जातीय वर्चस्व का आधार आर्थिक संसाधनों, मुख्यतः खेती की जमीन पर मिलकियत में गैरबरारी है. इसीलिए जमीन कि यह लड़ाई जातिवादी दमन तथा जातिवाद के विरुद्ध भी है, क्योंकि भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रहे हैं. जमींदार या बड़े-छोटे-मझले किसान ज्यादातर ऊंची जातियों (प्रमुखतः जाट) के हैं, दलित ज्यादातर भूमिहीन. गांवों में दो तरह की शलमात (सामूहिक) जमीनें हैं, नजूल और पंचायती. नजूल  जमीन ज्यादातर ऐसी जमीनें हैं, जिनके मालिक बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गये और जो पंजाब के उस तरफ से आये लोगों को आबंटित करने के बाद बच गयी तथा जिन जमीनों के मालिक बिना उत्तराधिकारी या विरासत के मर गये. हर ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र में कुछ सार्वजनिक जमीन पंचायत के आधीन होती है. पंजाब विलेज कॉमन लैंड रेगुलेसन ऐक्ट, 1961 के तहत खेती की सार्वजनिक जमीन में एक-तिहाई पर अनुसूचित जातियों के आरक्षण का प्रावधान है. आंदोलन से जुड़े पंजाबी कवि तथा नवजवान भारत सभा के कार्यकर्ता सुखविंदर सिंह पप्पी ने बताया कि कागजों पर 56,000 एकड़ जमीन दलितों को आबंटित थी, लेकिन जमीन पर एक इंच भी नहीं. पंचायती जमीन की सालाना नीलामी होती है. धनी किसान किसी डमी दलित किसान के नाम से बोली लगाकर जमीन पर काबिज रहते रहे हैं. शिक्षा के प्रसार के साथ आई दलित चेतना में उभार से दलित अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए.
पंजाब में किसान आंदोलनों का लंबा इतिहास है. लेकिन ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (ज़ेडपीयससी) के तत्वाधान में पंजाब के मालवा क्षेत्र के बहुत से गांवों में चल रहा भूमि आंदोलन कई मायनों में पहले के आंदोलनों से अलग है. यह एक नये किस्म का जातीय/वर्ग संघर्ष है. एक तरफ पंचायती ज़मीन की एक-तिहाई के असली हक़दार गांव के दलित हैं, दूसरी तरफ फर्जीवाड़े से उस पर, प्रशासन की मिलीभगत से काबिज रहे ऊंची जातियां. इस आंदोलन एक  खास बात है सामूहिकता. संघर्ष की सामूहिकता की बुनियाद पर जिन गांवों के दलितों ने खेती की जमीन हासिल की है वहां उन्होंने सामूहिक खेती के प्रयोग से, सामूहिक श्रम तथा उत्पादों के जनतांत्रिक वितरण की प्रणाली के सिद्धांतों पर ज़ेडपीयससी के परचम तले दलित सामूहिक की नींव डाली. यहां कुछ आंदोलनों के मार्फत दलित सामूहिक (दलित कलेक्टिव) की व्याख्या की कोशिस करेंगें.    
बनरा संघर्ष: एक नई शुरुआत
धोखा-धड़ी तथा प्रशासन की मिलीभगत के फर्जीवाड़े से दलितों के लिए आरक्षित पंचायती जमीन पर ऊंची जातियों के धनी किसानों का नियंत्रण बना रहा. 2008 में बरनाला जिले के बनरा गांव के बहाल सिंह ने क्रांतिकारी पेंदू मजदूर यूनियन के परचम तले गांव के 250 दलित परिवारों को लामबंद किया. आंदोलित लामबंदी ने ऐसा माहौल खड़ा कर दिया कि जाट जमींदारों तथा धनी किसानों के लिए कोई बिकाऊ डमी दलित मिलना असंभव हो गया. आंदोलन से सामूहिकता की विचारधारा ने जन्म लिया. सामूहिक बोली से बनरा के दलितों ने गांव की 33% पंचायती जमीन (9 एकड़) का सामूहिक पट्टा करवा. आत्मसम्मान तथा मानवीय प्रतिष्ठा की दृष्टि से यह 9 एकड़ जमीन बनरा के दलितों के लिए संजीवनी साबित हुई. उत्पीड़न की साझी यादों तथा साझे संघर्ष के उत्पन्न हुई सामूहिकता की समझ. खाद्यान्न उत्पादन के लिए जमीन बहुत कम है, प्रति परिवार 10 बिस्सा. सोची-समझी योजना के तहत वे धान-गेहूं की पारम्परिक फसल चक्र की बजाय सामूहिक जमीन पर चरी और बरसीम जैसी चारे की खेती का बारहमासी फसलचक्र अपनाया. 11 लोगों की निर्वाचित समिति उत्पादन तथा समुचित वितरण की देख-रेख करती है. वितरण अगले साल की बोली की रकम की बचत के बाद होता है. मवेशियों के चारे के लिए गांव की महिलाओं को दूर दूर जाना पड़ता था या जमींदारों के खेतों में जहां उन्हें अपमानित होना पड़ता था. जमीन का यह संघर्ष जातीय वर्चस्व के विरुद्ध आर्थिक संघर्ष है.
बनरा प्रयोग का प्रसार 5 साल से अधिक समय तक स्थिर रहा, लेकिन दलित सामूहिकता का विचार पूरे मालवा में फैल गया. .

शेखा: सामूहिकता का अगला चरण
बनरा दलित सामूहिकता के प्रयोग से उत्साहित पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन (पीयसयू) के छात्रों ने सरकारी दस्तावेजों की छान-बीन से बनरा गांव की पंचायती जमीन में दलितों का हिस्सा मालुम किया तथा गांव के दलित परिवारों को लामबंद किया.  छात्रों के नेतृत्व में दलित लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप सामूहिक बोली से दलितों के लिए आरक्षित जमीन हासिल करने में सफल रहे. इन्होंने भी प्राप्त जमीन पर साझा खेती की प्रणाली को ठोस रूप दिया. शेखा के दलितों ने भी पारंपरिक फसलचक्र से हट कर चारे की सामूहिक खेती शुरू की. महिलाओं को चारे के लिए घास की तलाश में के लिए दूर-दूर जाना होता था या जमींदारों की जमीन में. जमींदारों के खेतों से घास काटने की अवमानना से मुक्ति मिल गयी. बनरा की सफलता से उत्साहित पूरे राज्य में आंदोलन के विस्तार, संघर्ष को सांगठनिक आयाम देने तथा विभिन्न आंदोलनों के समन्वय के उद्देश्य से जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी(ज़ेडपीयससी) का गठन किया गया. आज मालवा के सैकड़ों गांवों में ज़ेडपीयससी के नेतृत्व में आंदोलन चल रहे हैं.
बालद कलां: आंदोलन का समेकीकरण
. इन आंदोलनों में मौजूदा विवाद का कारण, बालद कलां का आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है. यहां कुल शालमात जमीन का रकबा काफी है – 375 एकड़ जिसमें दलितों के लिए आरक्षित जमीन का रकबा 125 एकड़ है. पंचायती जमीन की नीलामी में पुलिस-प्रशासन तथा ऊंची जातियों की मिलीभगत से फर्जीवाड़े के विरुद्ध 24 मई 2016 को संगरूर जिले की भवानीगढ़ के बालद कलां के दलितों के सड़क-रोको आंदोलन पर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया. महिलाओं समेत कई आंदोलनकारी बुरी तरह घायल हो गये और कई गिरफ्तार. दो लड़कियां कोचिंग सेंटर जा रही थीं उन्हें भी पुलिस ने घसीट-घसीट कर पीटा. 28 मई को जब जनहस्तक्षेप की टीम  संगरूर जिले के कुछ आंदोलित गांवों के दौरे पर उन महिलाओं से मिली तो पैरों पर 4 दिन पुरानी चोट के ताजे नीले घाव दिखाते हुए उनके चेहरे पर खौफ नहीं, आत्मविश्वास और संघर्ष के दृढ़ संकल्प के भाव थे. उनके लिए भी वयह सिर्फ आर्थिक मुद्दा नहीं है. यह इज्जत का  मामला है. पंजाब में खेती के मशीनीकरण तथा कीटनाशकों के प्रयोग से पशुओं के चारे के लिए घास की संभावनाएं कम होकर नहरों के तटों तथा खेतों की मेड़ों तक सिमट गयी हैं. दलितों के पास खेत नहीं थे. महिलाएं जब ऊंची जातियों के किसानों के खेतों से घास काटने जातीं तो उन्हें जमीन वालों के हाथों काफी अपमान एवं दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता था. अब उन्हें यह अपमान बर्दाश्त करने की बाध्यता नहीं है.
1961 में कानून बनने के बावजूद गांव के दलित अपने हिस्से की जमीन से वंचित थे तथा धनी किसान डमी दलित की बोली के आधार पर दलितों के हिस्से की जमीन हड़पते रहे. अपने अधिकार तथा सामूहिकता की ताकत की चेतना से लैस दलितों ने खुद को ज़ेडपीयससी की इकाई के रूप में संगठित कर अप्रेल 2014 में संघर्ष छेड़ दिया. सामूहिक बोली से नीलामी में पट्टा हासिल कर साझा खेती शुरू कर दिया. यहां भी 11 लोगों की निर्वाचित कमेटी सामूहिक उत्पादन-वितरण की देखरेख करती है. अगली बोली के लिए आमदनी बचाकर उत्पाद सब परिवारों में बंट जाता है. थोड़ी जमीन में चारे की फसलें, चरी व वर्सीम, बाकी ज़मीन पर खाद्यान्न उपजाते हैं. कल तक जमींदार जिन्हें पैर की जूती समझते थे आज उनका सम्मान से जीना उन्हें रास नहीं आ रहा है. वे प्रशासन की मिलीभगत से इस बार फिर दलितों के हिस्से की जमीन हड़पने के चक्कर में हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर डटे हैं, कुछ भी हो जाये वे जमीन न छोड़ने को कटिबद्ध.  
 2014 के आंदोलन में पुलिस की बर्बर मार से हफ्तों  कोमा(बेहोशी) में रही गांव की 40 वर्षीय परमजीत कौर पुलिस की बर्बरता की याद कर रो पड़ीं, लेकिन उन्होंने बताया कि अपनी जमीन के चलते जमींदारों के अपमान से मुक्ति की खुशी में पुलिस की यातना की पीड़ा छोटी दिखती है. बालद कलां की सफलता के बाद संगरूर और बरनाला जिलों के लगभग 20 गांवों में दलित सामूहिक (दलित कलेक्टिव) बन चुके हैं, बाकी गांवों में भी दलित लामबंद हो रहे हैं. छोटी जमीनों पर सांझा खेती के बाद इतनी बड़ी जमीन पर साझा खेती एक चुनौती थी जिसे दलितों ने स्वीकार किया तथा साझा खेती के फायदे को चिन्हित. यहां भी सामूहिकता का सैद्धांतिक आधार सामूहिक स्वामित्व, सामूहिक श्रम प्रक्रिया तथा जनतांत्रिक वितरण है.  
दलित महा पंचायत
मई में पंचायती जमीन की नीलामी से पहले अप्रैल 2015 में जेडपीयससी ने भवानीगढ़ में दलित महापंचायत का आयोजन किया जिसमें मालवा के 5 जिलों के लगभग 100 गांवों से हजारों लोगों ने भागीदारी की. पंचायत ने जिन गांवों में दलित सामूहिकता बन चुकी है उन्हें और सुदृढ़ करने तथा अन्य गांवों में इसके विस्तार पर विचार-विमर्श किया. 20 मार्च को ग्राचों गांव में एक और दलित पंचायत हुई. इस गांव के दलितों ने भी जमीन हासिल कर सामूहिकता का निर्माण कर लिया है. 102 गांवों के लगभग 400 दलितों ने इस सम्मेलन में भागीदारी की.
मतोई: महिला सशक्तीकरण की मिशाल
वैसे तो कई गांवों में दलितों के संघर्ष जारी हैं लेकिन मतोई का संघर्ष गौरतलब इसलिए है कि इस गांव के आंदोलन की शुरुआत और नेतृत्व छात्राओं ने किया. शहर में पढ़ने वाली संदीप कौर के नेतृत्व में कॉलेज में की छात्राओं ने दलित परिवारों को लामबंद किया तथा लंबे संघर्ष के बाद जमीन हासिल कर साझा खेती और दलित सामूहिकता का गठन किया.
खेड़ी: सामाजिक न्याय का मजाक
1976 में खेड़ी गांव के भूमिहीन किसानों को आवासीय प्लॉट आबंटित किए गये. पंजाब-हरयाणा उच्च न्यायालय के एक आदेशानुसार, आबंटन के 3 साल के अंदर अगर मकान न बने तो पंचायत जमीन वापस ले लेगी. लेकिन 4 साल पहले तक उन्हें इसकी सूचना ही नहीं थी.  खेड़ी के दलितों ने जेडपीयससी के नेतृत्व में अपनी जमीन को लाल झंडे से घेर कर वहीं डेरा डाल दिया है. धनी किसानों तथा पुलिस के उत्पीड़न तथा धमकियों की परवाह न कर वे अपनी जमीन पर डटे हैं तथा सामूहिक खेती का मामला तो नहीं है लेकिन साझा रसोई का प्रयोग वे कर रहे हैं. धनी किसानों, पुलिस तथा प्रशासन के दमन-उत्पीड़नों को धता बताते हुए, आंधी-बारिस से लड़ते हुए वे अब अपनी जमीन से हटने के लिए तैयार नहीं हैं, कुछ भी हो जाये.
इनकी जमीन छीनने के लिए धनी किसान पुलिस-प्रशासन की मदद से फर्जीवाड़े की कोशिस में लगे हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर आखिरी सांस तक कब्जा न छोड़ने के लिए दृढ़ संकल्प हैं. सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपमान झेलते हुए बड़ी जातियों के किसानों के खेतों में बुआई-कडाई करने वाले इन दलितों के लिए अपनी जमीन का विचार ही किसी सपने सा है. ज़ेडपीयससी के 54 साल के एक कार्यकर्ता, बात करते करते 2 साल पहले की नुभूतियों में खो गये जब ज़िंदगी में पहली बार ‘अपने’ खेत में फावड़ा चलाया था. वे उन 700-800 के आंदोलनकारियों में थे जिन्होंने 2014 के संघर्ष किया. उस समय भी पुलिस ने ऐसी ही बर्बरता दिखाई थी. वे इतनी बुरी तरह घायल हुए थे कि जटिल सर्जरी करनी पड़ी थी. “चोट का दर्द काफी था लेकिन अपने खेत के विचार की मन की खुशी से दब गया था.” शासन की पुरानी रणनीति है आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमें. लेकिन पंजाब के दलितों ने मुकदमों से डरना बंद कर दिया है.   इस पूरे आंदोलन में पुलिस-प्रशासन की भूमिका दलित विरोधी रही है.
निष्कर्ष
ये आंदोलन इस धारणा के खंडित करते हैं कि पंजाब के खेतिहर संबंध सामंती की बजाय पूंजीवादी हैं क्योंकि जैसा कि स्पष्ट है कि ऊंची जातियों तथा प्रशासन में दलितों के प्रति भेदभाव आज भी एक सच्चाई है. 1961 में जमीन आरक्षण का कानून पास हुआ लेकिन अब तक वह कागजों पर ही रहा. वैसे तो सरकार को चाहिए कि पंचायती जमीन की हर साल नीलामी के बजाय सामूहिक को लंबी अवधि के लिए पट्टे पर दे दे. छात्रों की पहल पर दलितों ने जमीन के हक़ की जो लड़ाई शुरू की है उसमें व्यापक जनांदोलन की संभावनाएं छिपी है.
(28.06.2016)





       
 

  
     



Sunday, June 26, 2016

Dalit movement for land

Dalit Collective: The Unity of Struggle to Fraternity of Commune Life
Ish Mishra
The Context
            For the last two years, the villages of Malwa region of Punjab are witnessing a new caste/class conflict between the landless Dalits and landowning upper caste rich farmers in collusion with the administration. The rise of Dalits for their rights is partly owing to the steep rise in Dalit consciousness in terms of scholarship and assertion. In about 65 villages, the Dalits are agitating for their rights.  Though the Dalits have acquired access to their share of Shalmat (collective) land through protracted struggles only in over a dozen of the over 12,000 villages of Punjab, yet the Dalit Collectives that emerged from the experience of collective crusade for their land rights, have been eyesore of the upper caste rich farmers, who have been fraudulently occupying and cultivating the Panchayat land reserved for Scheduled Caste    The Dalits of Balad Kalan, who after acquisition of the land through valiant struggle undented by severe repression have been doing Sanjha (collective) farming, a novel way of egalitarian commune-building from below without any directing authority from above, on the Panchayat land reserved for the members of SC community. Their united struggle under the banner of Zamin Prapti sangharsh Committee (ZPSC) had foiled the prior practice of usurpation of the land by rich farmers in 2014.  This year again the Sarpanch (village head) in collusion with revenue and development officials were again trying to enact the farce of   auction through proxy claims on 24th May 2016. The protest against it by the Dalits under the banner of ZPSC was brutally attacked by Police seriously injuring many protesters including women.
                                                                                                                                        Janhastakshep, concerned with the gravity of the situation, resolved to send a fact-finding team to study the ground reality. The team consists of Senior journalists, Rajesh Kumar and Anil Dube; Vikas Pajpey, Assistant Professor at JNU and Ish Mishra, Associate Professor, at Hindu College, Delhi University. The team visited 3 villages, Balad Kalan, Baupur and Khedi and interacted with various cross-section and telephonic interview with the district collector, who was not available to meet in person. 
The background
            Punjab has 2 categories of Shamlat land belonging to village Panchayats. Nazul land was constituted by the land of those who migrated/fled to Pakistan after the partition and of those who die without leaving behind the legal heir. The other is the common village land called Panchayati land. Consequent to the land struggles (1946-52), known as Mujara movement in Punjab and its aftermath,  The Punjab Village Common Lands (Regulation) Act, 1961  was enacted that mandatorily reserves 33% of all available Shalmat or common land in all the villages Panchayats. But in reality the upper caste farmers in complicity of village Sarpanch and revenue and development officials have been invariably hosting dummy SC claimants to deprive the most Dalits access to the land. The Nazul/Panchayat land can neither be sold nor bought. The Nazul land is one time allotment but the Panchayat land is auctioned yearly.  On papers 56,000 acres have been allotted to Dalits but practically remained under the occupation of rich farmers.

The Benra struggle: The new beginning
This state of affairs of deceptively grabbing the common land reserved for Dalits by the upper caste rich peasants continued uncontested in any substantial way till 2008, when Behal Singh of Benra village mobilized all the 250 Dalit families of village under the banner of Pendu Mazdoor Union. The united mobilization of Dalits created an awareness of their rights and the importance of the strength of unity among the ‘wretched of the earth’.  This created an atmosphere that finding a SC dummy by upper caste rich farmers became impossible. They collectively got the 33% of land on collective lease. The 9 acres leased at lowered rates proved to be life line for the Dalits in terms of self-respect and human dignity. The fresh memories of being co-victims, realization of the strength of unity and experiences of collective struggles gave them insight of collective ownership, production process and equitable distribution. This became the experiment-field of creating a model of Dalit Collective and its advantages. The land was too little for cultivation of food grains as each family’s share would be just 10 Bishwa. In a planned departure from the traditional paddy-wheat cycle, the Dalit Collective collectively cultivates fodder crops – Chari (sorghum) and Berseem (clover) round the year. As has been said above the access to the land is not so important for the Dalits owing to the little shares of each family, it’s more important in terms of the self-respect and dignity.. The landless Dalits, particularly women had to go to for off places to collect fodder weeds for their cattle. The green weeds became confined to the banks of the canals and their distributaries and the fringes of the fields of the landowners. The women going to the fields of the upper caste (generally Jat) for weeds had to face disdainful contempt and many kinds of insults including physical and verbal abuses. Now they have their own fields and do not need to go to the landowners’ fields. As was clear from the reactions of all the women we met during our visit, this gave them the sense of self-respect and confidence to fight for their rights may what come. Thus this struggle gave the idea of new collective, probably the first of its kind in the recent history of the country. The Dalit Collective that emerged from this struggle created a precedence and model for collective ownership of means of production, its working and distribution of the product.  An elected committee of 11 members manages the collective production process and the equitable distribution with sufficient saving for the bidding year after year. The idea of the Dalit Collective can play the foundational role in building rural communes whenever revolutionary transformation of society takes place. 

The idea of Dalit Collectives became the driving force and immanently innate feature of all the subsequent land right movements of Dalits. The Benra experiment for over half a decade did not expand into other areas but its ideas spread all over the Punjab, particularly in the Malwa region, creating a panic among the rich farmers who have been deceitfully cultivating the land earmarked for Dalits.

 Shekha: The setting
The second phase of land acquisition by Dalits began in 2014 with claiming and occupying 7 acres of land by the Dalits of Shekha, in Barnala district, under the guidance of the students’ activists belonging to Punjab Students Union (PSU). As told by Sukhvinder Singh Pappi, the leader of the Punjab  Naujawan Bharat Sabha, the PSU activists came to know by examining the government documents that the Dalits (mostly landless), have never been practically accessed the reserved land. The initiation and participation of students in land movement is a good omen for future. In Shekha village, the students mobilized the Dalit families made them aware of their legal rights over the 1/3rd of the village common land and equipped them with idea of collective lease. They identified the land from the documents, occupied it and fenced it with red flags. They held Dharnas and protests at BDO/DDO offices and succeeded in getting occupation on the land, through collective lease in the annual auction that legally belonged to them but was occupied by higher castes. This victory was not as important in terms of economics as in terms sociology. It saved them from humiliation and indults at the hands of the upper caste big, middle and small farmers. 
In Shekha after acquiring the land through struggles, the Dalit families began Sanjha Kheti (collective farming) on the pattern of the Berna village’s Dalit Collective, once again refuting the prevalent notion of self-seeking individualism. This collective ownership and collective labor process has provided the Dalits a platform for labor socialization in Marxist terminogy. It is not only economic gain for the mostly landless Dalits but more than that, it is the gain in terms of dignity and self-respect. Owing to mechanization of farming and use of herbicides, the weeds for fodder became scarce. They could be found only on the forage along the canals and on the fringes of the agricultural lands. The Dalit women going to collect fodder weeds to the fields of Jat farmers were usually insulted with physical and verbal abuses and casteist contempt.  Once they have access to land and grow fodder crops, they save themselves from such abuses. Therefore for Dalits, it’s not merely economic but social struggle for human dignity. One of the peculiarities of this land movement is that it is not only supported but initiated by the students with continuing active participation. In order to coordinate various movements, and spearhead new ones, an organization on the principles of democratic collectivity, an organization Zmain Prapti Sangharsh Committee (ZPSC)  was formed after prolonged deliberations. It adopted the red flag with thde sun in the center as it flag of struggle and construction. ZPEC henceforth became the revolutionary organization that is leading the movement for liberating the reserved Shalmat land for Dalits in many villages of Sangrur, Barnala, Patiala and other districts of Malwa. Most important has been the struggle in Balad Kalan, the center of the present controversy, where the size of the Panchayati land is huge, 375 acre with 125 acres reserved for the SC community. Henceforth the Dalit movements for access to their share of Shalmat  land has been steadily spreading in, many villages of the 5 districts of Malwa region – Sangrur, Mansa, Jullundur, Barnala and Patiala.
 Balad Kalan: Consolidation
            After success in Sheka other villages too witnessed the rise of Dalits for collectively claiming the Panchayati land reserved for the SCs. Rise of Dalits in Balad Kalan holds special significance for 2 interlinked reasons. The first is the size of the land. Total Panchayati land is 375 acres of which 125 acres are reserved for yearly auction to the SC community. Secondly, just because of the size of the land and assertion by otherwise subdued Dalits on it, made the rich peasants who had been by deception and fraud reaping the fruits of that land and hence it faced the brutal repression police and the administration in complicity of the rich farmers. For all these years after the passage after passage of the law regarding this in 1961 till April 2014, the Dalits of Balad Kalan remained deprived of their land rights. The awareness among the Dalits of the village of the might of the Dalit Collectives motivated them towards the collective crusade for the rights and they organized themselves into an unit of ZPSC and held protests and launched protracted agitation for their rights. There were lathicharged beaten up leading to seriousies injuring many men & women. 41 people were detained for 59 days, as is the usual method of breaking the strike, charged under various IPC charges including attempt to murder. ZPSC took a decision of not applying for bail of the arrested agitators but to pressurize the government to withdraw the false cases through agitations. There were protests for their release all over Punjab. Eventually the struggle yielded fruit and the Dalit Collective formed under ZPSC won the battle and secured the release of the comrades and the lease of the land. That proved to be a historic victory.
The 54 year old Karnail Singh was overwhelmed recollecting the experiences of those days. He was among the arrested agitators. His forearm was severely injured in brutal lathicharge that needed stainless steel prosthesis and still pains. He feels that pleasure of the access to land after working for generations as laborer on the fields of Jat Zamindars.  It brought about a new spring in the lives of the 143 Dalit families of Balad Kalan. As Sandip Kaur, who had been badly beaten up by male cops in the thighs and back in brutal police action on 24th May 2016 to break the protest, recalled the inhuman insults inflicted of the Jat Zamindars whenever they went to collect weeds for the cattle in their fields. The access to land was a kind of emancipation. Notwithstanding the pain of nearly fresh injuries she proudly expressed her determination not to lift the collective occupation of land and to fight till the end.
The activists of ZPSC visited the village and held the meetings with Dalits and made them aware of their rights and the experiences of Dalit Collectives. On June 27, 2014, all the Dalits of Balad Kalan came out came out of their homes to battle a 500-strong posse of Punjab Police men called out to support panchayat and revenue officials attempting to subvert the auction of 125 acres of common land reserved for lease to SCs. "They were brutal," says Paramjit Kaur, 40, who spent weeks in a coma after a particularly vicious policeman repeatedly pounded her on the head with his baton. Balad Kalan became a precedent of transformation that is overtaking rural Punjab, quietly but firmly challenging, even demolishing, age-old caste equations. Dalit Collectives like in Balad Kalan have managed to take control of common land legally reserved for Scheduled Caste communities in as many as 16 Sangrur villages.

 The Dalits had already the experience of advantages of Sanjha Kheti (collective farming) in relatively smaller pieces. Applying that experiment at a relatively larger scale was a challenge that the Dalits Collective of the accepted and carried on successfully in the advantage of all. It proved to be vitally advantageous vis-à-vis individual farming as practiced by rich and middle upper caste farmers. The guiding principle of collective is the common ownership of the means of production, collective labor process and equitable distribution of the product. The successful implementation of Dalit Collective that is not only an economic unit but the social and cultural unit too, has provided an alternative model to self-seeking individualistic perception of humans. It has also provided a platform of socialization and organization and association with other Dalit Collectives that have already come up  in over dozen of villages and join hands with upcoming such movements. The functioning of the collective is supervised by an elected committee of the Collective that manages the efficiency in production and equitable distribution after saving the money for next auction. 
This year as mentioned above, the administration connived with the village Sarpanch representing the interests of the Jat farmers tried to subvert the auction through proxy claimants. Once again all the men and women of Dalit families and their supporters from outside and the members of other collectives came out on Roads and blocked the road at Bhawanipur and once again they were brutally attacked by the Police. Like in 2014, this time too male Police dragged and beat up women along with men. 4 girls were going to attend coaching classes, despite all their pleadings; they were dragged and brutally beaten up with rifle butts and lathis. 8 people are arrested with the usual charges of attempt to murder, obstructing lawful authority et.al. At the time of writing this report they are still in Jail. The women’s participation is quite encouraging. Out of around 400 protesers, half of them were women. May what come, Dalit Collective is determined not to give up their legitimate occupation of the land and have begun the process of cultivation of the Kharif crop. The threats of the withdrawal of MNREGA and BPL cards, arrests and false cases have not been able to dent into their courage and determination to fight for their legitimate right to land. The Balad Kalan ZPSC President, Kishan Singh categorically told the team that their struggle was not for any charity from the government but regular work.
Badau: Study to Struggle
            In Badou, we met the villagers in Raidas Dharmshala whose walls were decorated with quotations from revolutionary Punjabi poet Pash; Che Guerra and Bhagat Singh. A ZPSC whole timer Pirthi Singh Longowal from Longowal village of the district is camping there as a whole timer of ZPSC to consolidate the Dalit awakening and organization and take the experiment and struggles of Dalit Collective to other villages. In the villages where Dalit Collectives are active, as told by Prithi Singh during our visit to the village, they plan to open libraries. On being asked about priority for library he quoted Ambedkar’s famous teaching that to end the suffering one has to struggle and to struggle one has to study as struggle without knowledge is doomed to fail. Here too 22.5 acres for 180 families is not enough for forming the food grain and hence they too adopted round the year fodder crop cycle. Team went the field with greeneries all around the pump in the middle. A year ago when ZPSC launched the movement, the stotry of Police and Zamindar brutality was the same as at Balad Kalan. Many including 3 women were injured. The Police did not spare even the rag picker women. 
At the time of writing this report, Sukhvinfer Singh of the Naujawan Bharat Sabha telephonically informed that in Badau, Janedi and Grachon villages the Dalit Collectives have eventually been allotted the land of their share and Balad Kalan and other villages there is status-quo. The Dalit Collective is spreading fast. As yet Dalits in more than 16 villages have gained the access to the Shamlat land and movement is on. Sukhvinder also informed that in attempt to expand the Dalit Collective to other villages, Pirthi Singh reached Mandera village near Longowal. As they were holding the protest meetimg Police cracked down and arrested him along with 13 others. They are still in Jail. In the struggle
Other Movements:
            During the 2014-15 land movement under the leadership of ZPSC, according to Basheshwar Prasad from the Associaton for Democratic Rights (AFDR), Punjab, over 250 acres of Shamalat land reserved for SC has been occupied by the Collectives. The villages having Dalit Collectives include Bijda, Namod, Kalara, Chandeli, Bavpur, Janedi and others.   
The Dalit Mahapanchayat
The ZPSC, in order to consolidate the gains and spread the movement to other parts of the Malwa region, organized a Dalit Mahapanchayt in March 2015 ahead of the auction in May. It was attended by the delegates from 80 villages of the 5 districts mentioned above. The strength of the Panchayat and revolutionary deliberations alerted the Jat farmers and the administration about the possible rise of Dalits in other villages. Their fear was not baseless. Collectives came up in few more villages’ including Matoi in Sangrur district. In continuation of the Mahapanchayat, ZPSC and various other peasants’; students’ and human rights organizations have given a joint call to protest the Police action and demand the withdrawal of fake charges on the agitators and their release along with the main demand of access to the land to Dalits reserved for them,   district headquarters of Punjab. On 20 March 2016 there was another ZPSC convention in Grachon village in which Dalit Collective had won the lease of the reserved Panchayat land. The convention was attended by over 400 Dalits from 102 villages. It pledged to carry on the land movements for the Dalit Collective in all the villages of Punjab. The movement is opposed by Bhartiya Kisan Union And Punjab Kisan Union as they represent the interest of the rich farmers.
Ever since, many meetings and convention attended by Dalit representatives of various villages from Sangrur, Mansa, Barnala and Patiala districts have been organized with purpose of elevating radical Dalit consciousness and awareness about their land rights and advantages of Collectives. The ZPSC held a meeting of 80 villages but attracted people from over 100 villages. In 2015 the meeting in Mansa at PSU Office was attended by over 1000 delegates. Another convention of 4,000 Dalits from 102 villages was held at Grachon village. One of the common agenda of all these conventions and meetings has been occupation of the reserved land and creation of Dalit Collectives as not only economic but also as socio-political platform and educational center for the radicalization of Dalit consciousness.
Janedi: The rational rebuttal of criminal attack by Zamindars on the Collective 
            Janedi village is another village where the Dalit Collective was able to secure the lease of the reserved land and to institutionalize the collectively farm. The collective was attacked by the goons of the Zamindars. The goons were beaten up by the members of the collective and their guns snatched and deposited in Police station and Police was forced to arrest few goons. There was a murder in Baupur in personal rivalry; the leaders of the Collective were arrested in false cases. One of the accused named in the 24th May is already in Jail.
Dalit Collective in Matoi : Women’s Empowerment
            One of the special features of the movements of these Dalit Collectives has been participation of women in significant number. In the protest gathering of over 400 in Dalad Kalan on 24th May number of women was well over 200, according to the villagers we talked to.  Another significant feature has been the initiative and participation of students. Learning about the Dalit Collective of the Shekha village, created on the initiative of the students of Punjab Students Organization (PSU). Few female students under the leadership Sandip Kaur of Matoi village in Sangrur sought to experiment of Dalit Collective in her village. She mobilized the educated Dalit girl from her college and other villages in 2014 and led a protracted agitation and finally won the lease of 17 Bighas of farmland reserved for SC communities. Like Shekha, Berna and Badou, the Matoi Collective also adopted to cultivate fodder crops round the year. Now the women of the village no longer needed to forage for fodder for the cattle.
Khedi: The Travesty of Social Justice
            The case of Khedi is mind boggling. 56 Dalit families were allotted residential plots in 1976 but they never got its notification and hence the possession. Punjab & Haryana High Court gave a judgement that if the house on the plot is not built within 3 years of allotment the land shall be taken over by the Panchayat. It is only during the land movements in other villages, the students associated with PSU explored the reality. The Dalits have identified from the documents and occupied the land under the banner of ZPSC. For all these years it had been leased for agriculture. The allottees were made aware of their rights by ZPSC. Learning about the experiences of other movements and Collectives, the Dalits organized them into Collective and occupied the land, erected tents under the red banner of ZPSC with the ZPSC red flags marking the boundaries. Octavian Nakshtra Singh, an ex-army man, oozing with confidence, narrated how they confronted the attackers. There was some quarrel between two families of the village for which the Sarpanch’s husband, acting as the de-facto Sarpanch, on the behest of the rich upper caste farmers accused the agitators and Police lodged FIR against 18 people and confiscated a Scooty and a motor bike from 2 Dalit boys.  4 People are still in jail.
The Sapanch’s husband terminated 4 women’s work from the MNREGA project and threatened them with withdrawal of their BPL letter. It is to be noted that these 4 women are from the families whose houses were demolished for road construction without any compensation as they didn’t have any land documents. They also don’t figure in the list of 56 allottees.  It is also to be noted that the ZPSC of Khedi have in principle have resolved to accommodate these families too. The Sarpanch’s husband, when confronted took the plea to be SC himself and counter questioned us why the issue is being raised only now? The position in the village is reserved for SC and Woman.  The Dalits are camping in the open enduring the heat and wind but the pleasure of struggle for rights keeps them untired. All the men and women were unanimous in their determination to fight till they breathe last.    
 The Collective Kitchen
            The other Collectives practice collective ownership of land, collective farming and equitable distribution Near, Khedi has Collective kitchen of 200 people. Each member contributes one’s share and the collectively cook and dine. They have constructed Raidas temple adjacent to common kitchen where plenty of utensils and plates can be seen. In the context of propagation of individualism, as the ruling principle of society, the collective kitchen is a model and inspiration of collective ventures.
The Role of Police and Administration
            The role of the administration has always been against the Dalit agitators and tp break their united struggle all kind of repressive actions including violence by Police and registration of false cases against the agitators. (Details from Vikas’s draft)
Observations
·         The notion that agriculture in Punjab has transcended feudal social relations to capitalist stand refuted by the prevalent caste biases, particularly against Dalits.
·         To fulfill its constitutional obligations under the Directive Principles of the State Policy, the Punjab Government passed legislation in 1961 to reserve the allotment of the 1/3rd of the collective land in every village for SC communities. But this reservation had remained futile for over half of a century, as in practice, the Dalits remained landless and their share of land was fraudulently appropriated by the high caste farmers using dummy/proxy Dalit claimants in connivance with the administration, Police and politicians.  
·         With the rise of Dalit scholarship and assertion owing to historical reasons during the last 3 decades, there have been corresponding rise in the Dalit consciousness and awareness among them about their constitutional rights.
·         As a matter of pleasant surprise, after the precedent of Benra Dalit Collective, the initiative of Dalit mobilization for their rights was taken by students indicating future alliances of radical movements. 
·         The participation of women has been significant alluding to rose in the feminist consciousness in the rural Punjab. The movement for claim and occupation of the Panchayat land reserved for Dalits in Matoi by female students, not belonging to any organized group, is incredible, symptom of a dialectical unity of Dalit and feminist consciousness that needs to be channelized.
·         The administration and Police have always sided with the rich farmers to crush the Dalit demands for their legitimate rights in the collective land. The not only aid and abet the usurpation of rights of Dalits by upper castes but actively participate in perpetuating the fraud, using the government machinery and its coercive apparatuses.
·         When the determined, fearless might of the collectivity of the oppressed, with ‘nothing to lose attitude’ rises for the right, no repression can stop it. Eventually it would have its way, as exemplified by Dalit Collectives of ZPSC.
·         The functioning of the Dalit Collectives and the solidarity among its members is a strong refutation of the privatization model of development.
            Demands
1.  Review of land reforms implementation and redistribution of the land.
2.  Survey of all the collective (Shamlat) land and allotment of 1/3rd of it to real and not the fictional Dalits.
3.  Immediate recognition of the claim of residential plots of the Dalits of Khedi.
4.  Release of all the agitators, withdrawal of false cases against them and action against the Policemen who mercilessly thrashed men and women.
  



दलित सामूहिकता

दलित सामूहिकता: पंजाब में दलितों का भूमि आंदोलन
ईश मिश्र
      7 जून 2016 को संगरूर में जमीन के अधिकार के लिए आयोजित रैली में जिले के विभिन्न गांवो के हजारों लोगों ने शिरकत की. तस्वीरों में ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी के लाल झंडे के साथ महिलाएं ज्यादा दिख रहीं हैं. खबर है कि अन्य जिलों के मुख्यालयों पर ऐसे ही प्रदर्शन हुए. तस्वीरें दलित चेतना और नारीवादी चेतना के एकसाथव उभार तथा जनवादीकरण के स्वस्फूर्त संगम की कहानी कहती हैं. 25 मई 2016 के पंजाब के अखबारों में प्रदेश के संगरूर जिले की भवानीगढ़ तहसील के बालद कलां गांव के जमीन के अधिकार के लिए आंदोलत दलितों पर पुलिस की बर्बर कार्रवाई की खबर छपी. जनहस्तक्षेप के साथियों ने वहां जाकर सच्चाई जानने का फैसला किया 28-29 मई को हमारी टीम ने आंदोलन के कुछ गांवो का दौरा किया. संगरूर से हमारे साथ असोसिएसन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (एयफडीआर) हो लिए. बालद कलां के दलित अनसूचित जाति समुदाय के लिए आरक्षित पंचायती जमीन की नीलामी में ‘फर्जीवाड़ा’ का विरोध कर रहे थे.
पंजाब की ग्रामीण संरचना में जातीय वर्चस्व का आधार आर्थिक संसाधनों, मुख्यतः खेती की जमीन पर मिलकियत में गैरबरारी है. इसीलिए जमीन कि यह लड़ाई जातिवादी दमन तथा जातिवाद के विरुद्ध भी है. दलित आंदोलनकारियों ने सामाजिक और आर्थिक मुक्ति की लड़ाई को जोड़ दिया है क्योंकि भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रहे हैं. जमींदार या बड़े-छोटे-मझले किसान ज्यादातर ऊंची जातियों (प्रमुखतः जाट) के हैं, दलित ज्यादातर भूमिहीन. गांवों में दो तरह की शलमात (सामूहिक) जमीनें हैं, नजूल और पंचायती. नजूल  जमीन ज्यादातर ऐसी जमीनें हैं, जिनके मालिक बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गये और जो पंजाब के उस तरफ से आये लोगों को बंटित करने के बाद बच गयी तथा जिन जमीनों के मालिक बिना उत्तराधिकारी या विरासत के मर गये. हर ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र में कुछ सार्वजनिक जमीन पंचायत के आधीन होती है. पंजाब विलेज कॉमन लैंड रेगुलेसन ऐक्ट, 1961 के तहत खेती की शलमात (सार्वजनिक) जमीन में एक-तिहाई पर अनुसूचित जातियों के आरक्षण का प्रावधान है. आंदोलन से जुड़े पंजाबी कवि तथा नवजवान भारत सभा के कार्यकर्ता सुखविंदर सिंह पप्पी ने बताया कि कागजों पर 56,000 एकड़ जमीन दलितों को आबंटित थी, लेकिन जमीन पर एक इंच भी नहीं. पंचायती जमीन की सालाना नीलामी होती है. आरक्षित जमीन की नीलामी की राशि बाकी की तुलना में आधी होती है. धनी किसान किसी डमी दलित किसान के नाम से बोली लगाकर जमीन पर कीबिज रहते रहे हैं. शिक्षा के प्रसार के साथ आई दलित चेतना में उभार से दलित अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए. बहुत दिनों से उनके प्रतिनिधि तमाम मंचों से ‘डमी’ दावेदार की चालबाजी से धनी किसानों द्वारा उनके हिस्से की जमीन हड़पने की बात करते रहे हैं, लेकिन पहली ठोस शुरुआत हुई 2008 में बरनाला जिले के बनरा गांव में.
पंजाब में किसान आंदोलनों का लंबा इतिहास है. लेकिन ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (ज़ेडपीयससी) के तत्वाधान में पंजाब के मालवा क्षेत्र बहुत से गांवों में चल रहा भूमि आंदोलन कई मायनों में पहले के आंदोलनों से अलग है. यह एक नये किस्म का जातीय/वर्ग संघर्ष है. इस संघर्ष में एक तरफ पंचायती ज़मीन की एक-तिहाई के असली हक़दार गांव के दलित हैं, दूसरी तरफ फर्जीवाड़े से उस पर, प्रशासन की मिलीभगत से काबिज रहे ऊंची जातियों (प्रायः जाट) के धनी किसान. इस आंदोलन में छात्रों की उल्लेखनीय भागीदीरी ही नहीं है, ज्यादातर मामलों में उन्ही की पहल से आंदोलन शुरू हुए. महिलाओं की बराबर की भागीदारी तो है ही, वे संघर्ष की अगली कतारों में हैं. इस आंदोलन की एक जो बहुत खास बात, जो कि भूंडलीय कॉरपोरेटी, भोंपुओं के हमले के चलते सामाजिक चेतना के व्यक्तिवादीकरण आक्रामक मुहिम को चुनौती देते हुए दलितों ने सामूहिकता की एक नई मिशाल कायम की है. संघर्षों के साथी जीने के साथी बन गये. संघर्ष की सामूहिकता की बुनियाद पर जिन गांवों के दलितों ने खेती की जमीन हासिल की है वहां उन्होंने सामूहिक खेती के प्रयोग से, सामूहिक श्रम तथा उत्पादों के जनतांत्रिक वितरण की प्रणाली के सिद्धांतों पर ज़ेडपीयससी के परचम तले दलित सामूहिक के विचार का निर्माण किया. झंडे का लाल रंग और केंद्र में सूरज का निशान व्यापक विचार-विमर्श के बाद अपनाया गया. ज़ेडपीयससी के कार्यकर्ताओं तथा अन्य लोगों ने बताया कि 16 से अधिक गांवों में संघर्ष से दलित सामूहिक बन चुके हैं तथा 100 से अधिक गांवों में संघर्ष जारी है. कुछ आंदोलनों के मार्फत दलित सामूहिक (दलित कलेक्टिव) की व्याख्या की कोशिस करेंगें.    
बनरा संघर्ष: एक नई शुरुआत
धोखा-धड़ी तथा प्रशासन की मिलीभगत के फर्जीवाड़े से दलितों के लिए आरक्षित पंचायती जमीन पर ऊंची जातियों के धनी किसानों का नियंत्रण बना रहा. 2008 में पहली बार बनरा गांव के दलितों ने इस रीति को ठोस चुनौती दी. बनरा गांव के बहाल सिंह ने क्रांतिकारी पेंदू मजदूर यूनियन के परचम तले गांव के 250 दलित परिवारों को लामबंद किया तथा उन्हें उनके अधिकारों के बारे में अवगत कराया. एकताबद्ध लामबंदी से न सिर्फ वे अपने अधिकारों के बारे में सचेत हुए बल्कि सामूहिकता की शक्ति के बारे में भी. आंदोलित लामबंदी ने ऐसा माहौल खड़ा कर दिया कि जाट जमींदारों तथा धनी किसानों के लिए कोई बिकाऊ डमी दलित मिलना असंभव हो गया. गौरतलब है कि इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रही थी. आंदोलन से सामूहिकता की विचारधारा ने जन्म लिया. सामूहिक बोली से बनरा के दलितों ने गांव की 33% पंचायती जमीन (9एकड़) पर सामूहिक पट्टा करवा लिया. आत्मसम्मान तथा मानवीय प्रतिष्ठा की दृष्टि से यह 9 एकड़ जमीन बनरा के दलितों के लिए जीवनरेखा साबित हुई. जातीय उत्पीड़न की पीड़ा की ताजी साझा यादों तथा साझे संघर्ष के अनुभव से एकता की शक्ति के अनुभव से उत्पन्न हुई सामूहिकता की समझ. जमीन पर उन्होने सामूहिक स्वामित्व, सामूहिक श्रम तथा समान वितरण के सिद्धांत पर दलित सामूहिकता का भवन खड़ा किया. खाद्यान्न उत्पादन के लिए जमीन बहुत कम है, प्रति परिवार 10 बिस्सा. सोची-समझी योजना के तहत वे धान-गेहूं की पारम्परिक फसल चक्र की बजाय सामूहिक जमीन पर चरी और बरसीम जैसी चारे की खेती का बारहमासी फसलचक्र अपनाया. यह आंदोलन सामूहिकता के भावी निर्माण तथा उसके फायदों की शिक्षा की प्रयोगस्थली बन गया. जमीन में हर परिवार की बहुत छोटी हिस्सेदारी को देखते हुए आर्थिक दृष्टि से जमीन की सुलभता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी कि आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा की दृष्टि से. 11 लोगों की निर्वाचित समिति उत्पादन तथा समुचित वितरण की देख-रेख करती है. वितरण अगले साल की बोली की रकम की बचत के बाद होता है. जैसा कि ऊपर कहा गया है कि खेती के मशीनीकरण और कीटनाशकों के इस्तेमाल से मवेशियों के चारे के लिए गांव की महिलाओं को दूर दूर जाना पड़ता था या जमींदारों के खेतों में जहां उन्हें अपमानित होना पड़ता था. जमीन का यह संघर्ष जातीय वर्चस्व के विरुद्ध आर्थिक संघर्ष है, सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों का संगम.
दलित सामूहिकता भावी आंदोलनों की प्रेरक शक्ति और अभिन्न प्रवृत्ति बन गयी. बनरा प्रयोग का प्रसार 5 साल से अधिक समय तक एक ही गांव तक सीमित रहा लेकिन दलित सामूहिकता का विचार पूरे मालवा में फैल गया जिससे उन धनी किसानों में हड़कंप मच गया जो फर्जीवाड़ा करके अभी तक दलितों के हिस्से की जमीन हथियाते रहे थे.

शेखा: सामूहिकता का अगला चरण
जैसा ऊपर कहा गया है कि बनरा सामूहिकता के विचार का अगला प्रयोग 2014 में बरनाला जिले के  शेखा गांव में हुआ. बनरा दलित सामूहिकता के प्रयोग से उत्साहित पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन (पीयसयू) से संबद्ध कुछ छात्रों ने सरकारी दस्तावेजों की छान-बीन से बनरा गांव की पंचायती जमीन में दलितों का हिस्सा मालुम किया तथा गांव के दलित परिवारों को लामबंद किया.  इस गांव के भूमिहीन दलितों को आरक्षित जमीन का फायदा कभी नहीं मिला था. छात्रों के नेतृत्व में दलित ग्रामीण विकास तथा प्रशासनिक दफ्तरों पर धरना, प्रदर्शन घेराव आदि के जरिए बनरा की ही तरह सामूहिक बोली से दलितों के लिए आरक्षित जमीन हासिल करने में सफल रहे. बनरा की ही भांति शेखा के दलितों ने भी प्राप्त जमीन पर साझा खेती की प्रणाली को ठोस रूप दिया. व्यक्तिवादी सोच को खारिज करते हुए साझा खेती की दलित सामूहिकता दलितों के विचार-विमर्श तथा लामबंदी का स्थाई मंच सा बन गया है. मार्क्सवादी शब्दावली में साझा खेती तथा दलित सामूहिकता श्रम सामाजीकरण की विद्यापीठ सा है. बनरा की ही तरह मानवीय प्रतिष्ठा तथा आत्म सम्मान के अर्थों में शेखा संघर्ष भी आर्थिक के अलावा सामाजिक न्याय की लड़ाई है. बनरा की ही तरह शेखा के दलितों ने भी पारंपरिक फसलचक्र से हट कर चारे की सामूहिक खेती शुरू की. महिलाओं को चारा के लिए दूर-दूर जाना या जमींदारों की जमीन में. ‘अपने’ खेत से अवमानना सह कर बड़ी जातियों के किसानो के खेतों से चारे की घास काटने से मुक्ति मिल गयी. इस आंदोलन की एक खास बात यह है कि इसे छात्रों ने शुरू किया. अन्य गांव के दलित छात्रों के पास पहुंचने लगे. पूरे राज्य में आंदोलन के विस्तार, संघर्ष को सांगठनिक आयाम देने तथा विभिन्न आंदोलनों के समन्वय के उद्देश्य से जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी(ज़ेडपीयससी) का गठन किया गया. मालवा (संगरूर, मानसा, पटियाला, जलंधर तथा लुधियाना जिले) के सैकड़ों गांवों में आंदोलन ज़ेडपीयससी के नेतृत्व में चल रहे हैं और दोआबा क्षेत्र से भी ऐसे आंदोलनों की भनक आना शुरू हो गयी है.

बालद कलां: आंदोलन का समेकीकरण
. इन आंदोलनों में मौजूदा विवाद का कारण, बालद कलां का आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है. यहां कुल शालमात जमीन का रकबा काफी है – 375 एकड़ जिसमें दलितों के लिए आरक्षित जमीन का रकबा 125 एकड़ है. पंचायती जमीन की नीलामी में पुलिस-प्रशासन तथा ऊंची जातियों की मिलीभगत से फर्जीवाड़े के विरुद्ध 24 मई 2016 को संगरूर जिले की भवानीगढ़ के बालद कलां के दलितों के सड़क-रोको आंदोलन पर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया तथा आंदोलन गोलीबारी की. कई आंदोलनकारी बुरी तरह घायल हो गये और कई गिरफ्तार. पुलिस बर्बरता की शिकार कई महिलाएं भी हैं. दो लड़कियां कोचिंग सेंटर जा रही थीं उन्हें भी पुलिस ने घसीट-घसीट कर पीटा. इस पुनीत काम को पुरुष पुलिस वालों ने ही अंज़ाम दिया.  28 मई को जब जनहस्तक्षेप की टीम  संगरूर जिले के कुछ आंदोलित गांवों के दौरे पर उन महिलाओं से मिली तो पैरों पर 4 दिन पुरानी चोट के ताजे नीले घाव दिखाते हुए उनके चेहरे पर खौफ नहीं, आत्मविश्वास और संघर्ष के दृढ़ संकल्प के भाव थे. उन्होंने कहा, “पुलिस कुछ भी कर ले, जान चली जाये पर जमीन नहीं छोड़ेंगे.” उन्होंने और बाकियों ने भी बताया कि यह उनके लिए सिर्फ आर्थिक मुद्दा नहीं है बल्कि सामाजिक भी. यह इज्जत का भी मामला है. पंजाब में खेती के मशीनीकरण तथा कीटनाशकों के प्रयोग से पशुओं के चारे के लिए घास की संभावनाएं कम होकर नहरों के तटों तथा खेतों की मेड़ों तक सिमट गयी हैं. दलितों के पास जमीन नहीं है. महिलाएं जब ऊंची जातियों के किसानों के खेतों से घास काटने जातीं तो उन्हें जमीन वालों के हाथों काफी अपमान एवं दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता था. अब उन्हें यह अपमान बर्दाश्त करने की बाध्यता नहीं है.
 2014 में ज़ेडपीयससी के नेतृत्व में लंबे संघर्ष के बाद सामूहिक बोली के जरिए जमीन प्राप्त करने के पहले तक दलितों को एक इंच जमीन नहीं मिली. अप्रैल 2014 से शुरू संघर्ष पर जमींदारों ने पुलिस-प्रशासन की मिलीभगत से बहुत कहर बरपाए लेकिन संघर्ष की एकता तोड़ने में नाकाम रहे.
शेखा की सफलता के बाद अन्य गांव भी आंदोलित होना शुरू हो गये जिनमें जमीन के ज्यादा रकबे तथा दमन की गहना के बालद कलां का आंदोलन काफी महत्वपूर्ण है. 1961 में कानून बनने के बावजूद गांव के दलित अपने हिस्से की जमीन से वंचित थे तथा धनी किसान डमी दलित की बोली के आधार पर दलितों के हिस्से की जमीन हड़पते रहे. अपने अधिकार तथा सामूहिकता की ताकत की चेतना से लैस दलितों ने खुद को ज़ेडपीयससी की इकाई के रूप में संगठित कर संघर्ष छेड़ दिया. सामूहिक बोली से नीलामी में पट्टा हासिल कर साझा खेती शुरू कर दिया. यहां भी 11 लोगों की निर्वाचित कमेटी सामूहिक उत्पादन-वितरण की देखरेख करती है. अगली बोली के लिए आमदनी बचाकर उत्पाद सब परिवारों में बंट जाता है. थोड़ी जमीन में चारे की फसलें -- चरी व वर्सीम – की खेती के अलावा बाकी ज़मीन पर खाद्यान्न उपजाते हैं. कल तक जमींदार जिन्हें पैर की जूती समझते थे आज उनका सम्मान से जीना उन्हें रास नहीं आ रहा है. उन्होंने प्रशासन की मिलीभगत से इस बार फिर दलितों के हिस्से की जमीन हड़पने के चक्कर में हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर डटे हैं, कुछ भी हो जाये वे जमीन न छोड़ने को कटिबद्ध हैं. बालद कलां पूरे पंजाब में मिशाल बन गया है तथा सैकड़ों गांवों के दलित सदियों पुराने जातीय समीकरण को तोड़ते हुए जमीन की लड़ाई को व्यापक जनसंघर्षों में तब्दील करने को आंदोलित हो उठे हैं जिनकी कोई खबर मीडिया की मुख्यधारा में अछूत बनी हुई है.
 2014 के आंदोलन में पुलिस की बर्बर मार से हफ्तों  कोमा(बेहोशी) में रही गांव की 40 वर्षीय परमजीत कौर पुलिस की बर्बरता की याद कर रो पड़ीं, लेकिन उन्होंने बताया कि अपनी जमीन के चलते जमींदारों के अपमान से मुक्ति की खुशी में पुलिस की यातना की पीड़ा छोटी दिखती है. बालद कलां की सफलता के बाद, जैसा कि आंदोलन में शरीक पीयसयू के पृथवी सिंह ने बताया, संगरूर और बरनाला जिलों के लगभग 20 गांवों में दलित सामूहिक (दलित कलेक्टिव) बन चुके हैं तथा मालवा के बाकी गांवों में भी दलित सामूहिकता के आधार पर लामबंद हो रहे हैं. छोटी जमीनों पर सांझा खेती के बाद इतनी बड़ी जमीन पर साझा खेती एक चुनौती थी जिसे दलितों ने स्वीकार किया तथा साझा खेती के फायदे को चिन्हित. यहां भी सामूहिकता का सैद्धांतिक आधार सामूहिक स्वामित्व, सामूहिक श्रम प्रक्रिया तथा जनतांत्रिक वितरण है.  
बड़ौ: संघर्ष के लिए अध्ययन
बड़ौ दलित सामूहिकता ने संघर्ष को गतिमान बनाने के लिए संघर्ष के लिए पढ़ाई-लिखाई को प्राथमिकता दी है. जनहस्तक्षेप की टीम गांव वालों से रैदास धर्मशाला में मिली और दीवारों पर भगत सिंह, पाश तथा चे ग्वेरा के लेखन के उद्धरण यह देख खुशी से दंगस रह गयी. ज़ेडपीयससी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय पृथ्वी सिंह ने बताया कि जिन जिन गांवों में जलित सामूहिकता का गठन हो चुका है उनमें संगठन पुस्तकालय खोलने की योजना हना रहा है. पुस्तकालय की जरूरत के बारे में पूछने पर एक युवक ने अंबेडकर को उद्धृत करते हुए बताया कि पीड़ा से मुक्ति के लिए लड़ना पड़ेगा और लड़ाई के लिए पढ़ना पड़ेगा. एक साल पहले जब आंदोलन शुऱू हुआ था तो यहां भी पुलिस ने बर्बरता की वही कहानी दुहराया था यहां तक कि एक कबाड़ी बटोरने वाले को भी निर्ममता से पीटा था.
दलित महा पंचायत
मई में पंचायती जमीन की नीलामी से पहले अप्रैल 2015 में जेडपीयससी ने भवानीगढ़ में दलित महापंचायत का आयोजन किया जिसमें मालवा के उपरोक्त 5 जिलों के लगभग 100 गांवों से हजारों लोगों ने भागीदारी की. पंचायत ने जिन गांवों में दलित सामूहिकता बन चुकी है उन्हें और सुदृढ़ करने तथा अन्य गांवों में इसके विस्तार पर विचार-विमर्श किया.
20 मार्च को ग्राचों गांव में एक और दलित पंचायत हुई. इस गांव के दलितों ने भी जमीन हासिल कर सामूहिकता का निर्माण कर लिया है. 102 गांवों के लगभग 400 दलितों ने इस सम्मेलन में भागीदारी की. तब से कई सम्मेलन हुए. जनेड़ी गांव के सम्मेलन पर ऊंची जातियों के हमले का गांव वालों ने मुहतोड़ जवाब दिया.
मतोई: महिला सशक्तीकरण की मिशाल
वैसे तो कई गांवों में दलितों के संघर्ष जारी हैं लेकिन मतोई का संघर्ष गौरतलब है केयोंकि इस गांव के आंदोलन की शुरुआत और नेतृत्व छात्राओं ने किया. बनेरा में पीयसयू के छात्रों की पहल से उत्साहित मतोई गांव की शहर में पढ़ने वाली संदीप कौर के नेतृत्व में कॉलेज में पढ़ने वाली छात्राओं ने और गांवों की दलित छात्राओं तथा समर्थकों  के साथ मिल कर दलित परिवारों को लामबंद किया तथा लंबे संघर्ष के बाद जमीन हासिल कर साझा खेती और दलित सामूहिकता का गठन किया. वैसे तो कई गांवों के आंकड़े हैं लेकिन खेड़ी का मामला अनूठा है
खेड़ी: सामाजिक न्याय का मजाक
1976 में खेड़ी गांव के भूमिहीन किसानों को आवासीय प्लॉट आबंटित किए गये. पंजाब-हरयाणा चिच न्यायालय के एक आदेशानुसार, आबंटन के 3 साल के अंदर अगर मकान न बने तो पंचायत जमीन वापस ले लेगी. लेकिन 4 साल पहले तक उन्हें इसकी सूचना ही नहीं थी. गांव के कुछ पढ़ने वाले लड़कों ने जब जानकारी हासिल की तो सरपंच तथा प्रशासनिक अधिकारियों ने यह कह कर टालने की कोशिस की कि मियाद खत्म हो चुकी है. लेकिन बालद कलां और अन्य गांवों के आंदोलनों से प्रेरित, खेड़ी के दलितों ने जेडपीयससी के नेतृत्व में अपनी जमीन को लाल झंडे से घेर कर वहीं डेरा डाल दिया है. धनी किसानों तथा पुलिस के उत्पीड़न तथा धमकियों की परवाह न कर वे अपनी जमीन पर डटे हैं तथा सामूहिक खेती का मामला तो नहीं है लेकिन साझा रसोई का प्रयोग वे कर रहे हैं. धनी किसानों, पुलिस तथा प्रशासन के दमन-उत्पीड़नों को धता बताते हुए, आंधी-बारिस से लड़ते हुए वे अब अपनी जमीन से हटने के लिए तैयार नहीं हैं, कुछ भी हो जाये. इन्होंने तो सामूहिक रसोई में सारे परिवार मिल बांट कर बनाते-खाते हैं.    
इनकी जमीन छीनने के लिए धनी किसान पुलिस-प्रशासन की मदद से फर्जीवाड़े की कोशिस में लगे हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर आखिरी सांस तक कब्जा न छोड़ने के लिए दृढ़ संकल्प हैं. सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपमान झेलते हुए बड़ी जातियों के किसानों के खेतों में बुआई-कडाई करने वाले इन दलितों के लिए अपनी जमीन का विचार ही किसी सपने सा है. ज़ेडपीयससी के 54 साल के एक प्रमुख कार्यकर्ता, जिनका नाम जानबूझकर नहीं लिख रहा हूं, बात करते करते 2 साल पहले की नुभूतियों में खो गये जब ज़िंदगी में पहली बार ‘अपने’ खेत में फावड़ा चलाया था. वे उन 700-800 के आंदोलनकारियों में थे जिन्होने नीलामी में दलितों की सामूहिक बोली के लिए 2014 में चले लंबे संघर्ष के हिस्सा थे. उस समय भी पुलिस ने ऐसी ही बर्बरता दिखाई थी. वे इतनी बुरी तरह घायल हुए थे कि जटिल सर्जरी करनी पड़ी थी. टांगों में पड़ी स्टील अब भी दर्द करती है. न्होंने बताया, चोट का दर्द काफी था लेकिन अपने खेत के विचार की मन की खुशी से दब गया था. भूमिका अंग्रेजी राज के ही दिनों से आंदोलन तोड़ने, कमजोर करने का शासन की पुरानी रणनीति है आंदोलन क् प्रमुख कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमें. लेकिन पंजाब के दलितों ने मुकदमों से डरना बंद कर दिया है.   इस पूरे आंदोलन में पुलिस-प्रशासन की भूमिका दलित विरोधी रही है.
निष्कर्ष
ये आंदोलन इस धारणा के खंडित करते हैं कि पंजाब के खेतिहर संबंध सामंती की बजाय पूंजीवादी हैं क्योंकि जैसा कि स्पष्ट है कि ऊंची जातियों तथा प्रशासन में दलितों के प्रति भेदभाव आज भी एक सच्चाई है. राज्य की नीति निर्देशक सिद्धांत के संवैधानिक प्रावधान के तहत दलितों के लिए 1961 में जमीन आरक्षण का कानून पास हुआ लेकिन अब तक वह कागजों पर ही रहा. वैसे तो सरकार को चाहिए कि पंचायती जमीन की हर साल नीलामी के बजाय सामूहिक को लंबी अवधि के लिए पट्टे पर दे दे. जनेड़ी गांव में दलित सामूहिक को 23 हजार प्रति एकड़ की बोली पर पट्टा मिला वहीं गोशाला के लिए 7000 की दर पर 30 साल का पट्टा  दे दिया. दलितों की मांग है कि उन्हें भी उसी दर पर बोली  की छूट होनी चाहिए. छात्रों की पहल पर दलितों ने जमीन के हक़ की जो लड़ाई शुरू की है उसमें व्यापक जनांदोलन की संभावनाएं छिपी है. दलित प्रज्ञा और दावेदारी के प्रसार के साथ दलितों ने अपने हक़ के लिए लड़ना तो शुरू ही किया है साथ साथ सामूहिकता की मिशाल पेश की है जिसे ग्रामीण कम्यून निर्माण के लिए सैद्धांतिक बुनियाद के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.
ईश मिश्र
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