Atul Srivastava /Arti Srivastava अनायास विषयांतर के लिए क्षमा. उस समय आभासी दुनिया से बाहर के किसी संदर्भ में स्वस्फूर्त तुकबंदी हो गयी. क्षेपक समझ नज़रअंदाज करें.@Surjit Srivastav मित्र मेरे कमेंट को निजी न लें. संस्कार की सांस्कृतिक विरासत में मिले सामाजिक मूल्यों को हम अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं. जब वे टूटते हैं तो हमें कल्चरल शॉक मिलता है. यौनकुंठाओं वाले ज्यादातर लोग उम्र के ब्रैकेट के परे, सार्जनिक रूप से यौन सुचिता का ढोंग करते हैं तथा जेयनयू की वीरांगनाओं के लिए मुक्त-प्रेम को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं. मैंने विवाह के समझौता तथा संस्कार की बात पर कमेंट किया था. विवाह तथा परिवार को मैं एक संकीर्ण संरचना मानता हूं. मैंने 20 साल पहले ENCOUNTER जर्नल में एक लेख 'Western Philosophy and Indian Feminism में लिखा था, " ...... thus family became the first institution in the process of social development and also first institution to breed unfreedom and inequality." परिवार का जनतांत्रिककरण तथा रिश्तों के प्रति मिल्कियत बोध से मुक्ति इस असमानता तथा वर्चस्व से मुक्त समाज की तरफ एक कदम होगा. अलख निरंजन अगर आपका इशारा मेरी तरफ इशारा है तो मैं तो अक्सर अति-अल्प मत में होता हूं, क्योंकि मेरी बातें आत्मसात पितृसत्तात्मक-ब्राह्मणवादी मुल्यों पर चोट करती हैं.न तो मैं शरीफ हूं न शरीफाई के सर्टिफिकेट/ठप्पे बाटता हूं. 2 विश्वविद्यालयों से छात्र के रूप में निष्कासित हूं तथा कई नौकरियों से. एक शैक्षणिक दुर्घना से स्थाई नौकरी मिल गयी जिससे निकालना मुश्किल प्रक्रिया है. युवाओं में भी पचासेतरों की यौनकुंठा दृष्टिगत होती है. इस कुंठा से निज़ात का एक ही तरीका है सेक्सुअल्टी की मर्दवादी अवधारणाओं से उबरकर लड़कियों को लड़की से पहले एक समान इंसान मानें, देखिए कितनी अच्छी दोस्त होती हैं लड़कियां, अच्छे पुरुष दोस्तों की ही तरह. 1987 में लिखे एक पेपर का लिंक दे रहा हूं जो परोक्ष रूप से विषय से संबंधित है. पढ़ें तो आभारी रहूंगा.
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