13 मार्च को मुज़फ्फर पुर में जेयनयू पर एक मीटिंग के लिए राजधानी से पटना जा रहा था. हमारे कैबिन के सहयात्रियों में जेयनयू में स्पेनिश तृतीय वर्ष की एक छात्रा के माता पिता भी थे. मुझे आउटलुक में जेयनयू पर लेख पढ़ते हुए देख उसकी मां ने सहमते हुए जेयनयू के बारे में मेरी राय जानना चाहा. मैंने हंस कर कहा कि वहां जाकर सब ऐसा बिगड़ते हैं कि मेरी तरह बुढ़ापे तक बिगड़े रहते हैं. फिर मैंने उनकी बेटी, उनके बेटे तथा उसकी उम्र की और लड़कियों और उनकी बेटी मे फर्क के बारे में पूछा. सहमें चेहरे पर चमक आ गयीं. उन्होने बताया कि उनकी बेटी बाकी लड़के-लड़कियों से सोच-समझ, आत्म विश्वास, अभिव्यक्ति के साहस, निर्भीकता में बहुत आगे है. हमारी बातें सुन एक जनेऊधारी फौजी का खून खौलने लगा मैंने उसे समझाया कि उसकी गलती नहीं है वर्दी पहनने के साथ दिमाग की हरकतें बंद हो जाती हैं तो खून ही खौलता है, लेकिन ज्यादा खौलेगा तो इवॉपरेट होने लगेगा. जब वह जेयनयू के लड़के-लड़कियों के बारे में ऊल-जलूल बोलने लगा तो मुझे लगा कि बेटी का करेक्टर मां में प्रवेश कर गया है. बाप रे, उस फौजी को ऐसा धोया की पूरी कैबिन सन्नाटे मे. मैंने फौजी से ईमानदारी से बताने को कहा कि वह और कोई नौकरी न पाकर नौकरी के लिए फौज में गया है या देशभक्ति के लिए? नाम भूल गया. बेटी को सलाम जिसने मां में जेयनयू के विचार का संचार किया. मां को तो सलाम है ही. ये सारी माताएं, गोर्की के मां के पावेल की मां की याद दिलाती हैं.
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