Arti Srivastava वैसे तो इलाबादी आभासी समूहों में कमेंट करने में डर लगता है. लेकिन तुमने टैग ही कर दिया तो कुछ कहना ही पड़ेगा.कई ग्रुप्स के मालिकों ने, शायद, नाम में प्रो. और मिश्र की क्रमशः प्रेफिक्स तथा सफिक्स देखकर भर्ती संतप्त हो बिन बताए बहिष्कृत कर दिया. खैर मुद्दे पर आते हुए दोहराना चाहूंगा कि मर्दवाद कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही कोई साश्वत विचार. मर्दवाद (जेंडर) विचार नहीं बल्कि विचारधारा है जिसे हम अपने नित्य प्रति के आचरण तथा विमर्श से निर्मित-पुनर्निर्मित करते हैं. सेक्सुअलिटी की सारी वर्जनाएं तथा निषेध फिमेल सेक्सुअल्टी पर नियंत्रण के जरिए फिमेल व्यक्तित्व पर नियंत्रण की मर्दवाद की रणनीति है. विचारधारा की खास बात यह है कि वह उत्पीड़क तथा पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है. मसलन अगर तुम्हें किसी बात पर बेटा कहकर शाबासी दूं तो न सिर्फ मैं तुम्हें बेटा कह कर साबाशी दे रहा हूं बल्कि तुम भी इसे साबाशी ही समझ रही हो. मेरी बेटियों की तरह "Excuse me, I do not take it as complement.." कहने वाली लड़कियों की तादात मंद गति से बढ़ रही है. किसी लड़के को बेटी कह दूं तो सब हंस पड़ेंगे. विचारधाराओं के पोषण के लिए मिथकों तथा (कु)रीतियों का हवाला दिया जाता है. अहिल्या, सीता, सावित्री आदि मिथक इसीलिए गढ़े गये तथा उन्हें स्त्रीत्व के रोल मॉडल के रूप में पेश किया जाता है. मेरा मिथकों का कोई गंभीर अध्ययन नहीं है तथा तार्किक विष्लेषण में मैं उन्हें कपोल-कल्पित मानता हूं. मुझे लगता है इन मिथकों का काल मनुस्मृति के आस-पास का है जब स्त्रियों की आजादी प्रतिबंधित होना शुरू हुई, इसीलिए तो मनुस्मृति में स्त्रियों की आज़ादी को समाज के लिए विनाशकारी बताया गया है. राहुल सांकृत्यायन के ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि उत्तरवैदिक गणतंत्रों में स्त्रिया सैनिक कर्म समेत सभी काम करती थीं जो पुरुष करते थे. कौटिल्य के अर्थशास्त्र का समाज पितृसत्तामक तो है लेकिन वेश्याओं समेत सभी स्त्रियों को पर्याप्त अधिकार प्राप्त थे. एकल महिला के उद्यम की व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी थी. गुप्तचर विभाग में महिलाओं की खास भूमिका थी. जैसे-जैसे महिलाओं पर मर्दवाद का शिकंजा कसता गया उसकी वैधता के लिए तर्क तो हो नहीं सकते इसलिए मिथकीय और दैविक कुतर्क गढ़े जाने लगे. अहिल्या की कहानी का मोरल यही है कि महिलाओं की सेक्सुअलटी पर नियंत्रण के जरिये उनके व्यक्तित्व पर वर्चस्व स्थापित किया जा सके. चूंकि सांप्रदायिकता तथा जातिवाद जैसी विचारधाराओं की ही तरह मर्कादवाद का निर्माण तथा पोषण हमारे रोजमर्रा के जीवनक्रम तथा विमर्शों द्वारा होता है, इसीलिए इसका निषेध भी हर स्तर पर अपने हर शब्द तथा कर्म से करने की जरूरत है.
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