ज्ञान, शिक्षा तथा वर्चस्व
ईश मिश्र
“हर ऐतिहासिक युग में शासक वर्ग के विचार
ही शासक विचार होते हैं, यानि समाज की भौतिक शक्तियों पर जिस वर्ग का शासन होता है वही
बौद्धिक शक्तियों पर भी शासन करता है. भौतिक उत्पादन के शाधन जिसके नियंत्रण में
होते हैं, बौद्धिक उत्पादन के साधनों
पर भी उसी का नियंत्रण रहता है, जिसके चलते सामान्यतः बौद्धिक उत्पादन के साधन से वंचितों के विचार इन्हीं
विचारों के आधीन रहते हैं.” (कार्ल मार्क्स, जर्मन विचारधारा)
कार्ल मार्क्स का यह कथन
आज नवउदारवादी संदर्भ में कम-से-कम उतना ही प्रासंगिक है जितना 1845 में इसके लिखे
जाने के वक्त. शासक वर्ग का विचार ही युग का विचार या युग चेतना होता है. युगचेतना
मिथ्या चेतना होती है क्योंकि यह एक खास संरचना को सार्वभौमिक तथा अंतिम सत्य के
रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करती है. शिक्षा संस्थान बौद्धिक उत्पादन के
सबसे महत्वपूर्ण कारखाने हैं. 1995 में विश्वबैंक ने शिक्षा को एक व्यापारिक सेवा
के रूप में गैट्स (जनरल ऐग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड सर्विसेज़) में शामिल कर
लिया है. वैसे सिद्धांततः मनमोहन सरकार भी इस दस्तावेज पर दस्तखत करने को सिद्धाततः
सहमत थी लेकिन किया मोदी सरकार ने. दोनों विश्व बैंक की मातहदी में एक-दूसरे के
प्रतिद्वंदी हैं. शासक वर्ग समाज के मुख्य अंतरविरोध की धार को कुंद करने के लिए राज्य
के वैचारिक उपकरणों से अपने आंतरिक अंतरविरोधों को समाज के मुख्य अंतरविरोध के रूप
में प्रचारित करता है. उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमला गैट्स को लागू कर
शिक्षा को पूरी तरह कॉरपोरेटी भूमंडलीय
पूंजी के हवाले करने की भूमिका है. गैट्स के विभिन्न प्रावधानों की
चर्चा की गुंजाइश (स्कोप) यहां नहीं है लेकिन खेल के सम मैदान (लेबेल प्लेइंग
फील्ड) की संक्षिप्त चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी. यानि अगर सरकार दिल्ली
विश्वविद्यालय को अनुदान देती है तो लब्ली विश्वविद्यालय को भी दे नहीं तो दिल्ली
विश्वविद्यालय का भी अनुदान बंद करे. जब तक सार्वजनिक वित्त पोषित संस्थान रहेंगे
तो निजी खिलाड़ियों के ‘खुले’ खेल में दिक्कत होगी. दिल्ली विश्वविद्यालय तथा अन्य
विश्वविद्यालयों के शिक्षक मानव संसाधन मंत्रालय और रीढ़विहीन विश्ववियालय अनुदान
आयोग के तुगलकी फरमानों के खिलाफ महीनों से आंदोलित हैं.
चुनावी ध्रुवीकरण के गुजरात प्रयोग के महानायक नरेंद्र मोदी के केंद्र
में सत्ता में आते ही आरयसयस ने अपने संसदीय और “असंसदीय” घटकों के माध्यम
से उच्च शिक्षा तथा उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमला बोल दिया. भारत को माता मानने
वाले को ही शिक्षित मानने वाली, मानव संसाधन मंत्री, स्मृति इरानी ने शिक्षा में
आमूल परिवर्तन के संकेत दिए हैं. हिंदुत्व के प्रथम परिभाषक वीडी सावरकर मातृभूमि
की नहीं पितृभूमि की बात करते हैं. भारत को पिता मानने वाले सावरकर को ये शिक्षित
मानती हैं कि नहीं, वही जानें. सरकार की मौजूदा नीतियां शिक्षा के भगवाकरण की
द्योतक हैं जैसा कि राजस्थान के शिक्षामंत्री ने साफ साफ कहा है कि उनकी सरकार
शिक्षा के भगवाकरण के लिए कटिबद्ध है. आगरा में विश्व हंदू परिषद के मंच से
मुसलमानों के सफाया की गुहार लगाने के लिए चर्चा में आए केंद्रीय मानव संसाधन
राज्य मंत्री ने साफ साफ कह दिया, “हिंदुस्तान में नहीं तो क्या पाकिस्तान में
भगवाकरण होगा?” यहां मकसद भगवाकरण की
अंतर्वस्तु की व्याख्या नहीं है, वह एक अगल चर्चा का विषय है. सरकार की नई शिक्षा
नीति तथा इस सरकार का शिक्षा संस्थानों में स्थापित जनतांत्रिक मूल्यों और
अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला भी इस का मकसद नहीं है, वह भी एक अलग चर्चा का विषय
है. इस लेख का विचार इस जिज्ञासा से उभरा कि क्यों सभी ऐतिहासिक युगों
में शासक वर्ग और उनके ‘जैविक’ बुद्धिजीवी (चारण) ज्ञान को शिक्षा के माध्यम से एक
खास ढांचे में परिभाषित करते हैं और शिक्षा पर एकाधिकार कायम करते हैं? क्या
शिक्षा और ज्ञान मे कोई समानुपाती रिश्ता है? इन्ही सवालों के जवाब की तलाश में
यहां और शिक्षा तथा शासक वर्ग के वैचारिक वर्चस्व के अंतर्सबंधों पर ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में एक चर्चा का प्रयास किया गया है.
लगता है ज्ञान तथा शैक्षणिक
डिग्री में समानुपातिक संबंधों की मान्यता के चलते भारत के प्रधानमंत्री तथा मानव
संसाधन मंत्री की डिग्रियां विवाद के घेरे में हैं. आम आदमी पार्टी के कुछ नेता
दिल्ली विश्वविद्यालय से मोदीजी और स्मृति इरानी जी के पंजीकरण तथा परीक्षा
संबंधित दस्तावेज मांगा है. अखबारों की खबरों से पता चला कि दिल्ली विश्विद्यालय को समृति इरानी के दस्तावेज
मिल ही नहीं रहे. अरुण जेटली ने को जो डिग्री और मार्क्सशीट मीडिया को दिखाया उनके
नामों और रोल नंबरों में विसंगतियां हैं. गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति ने
मीडिया में मोदी जी की “संपूर्ण राजनीतिशास्त्र (एंटायर पोलिटिकल साइंस)” में एमए की डिग्री पेश की.
यह अलग बात है दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय में इस नाम का विषय नहीं दर्ज है.
इस विवाद पर मोदी जी का मन मौन है. यहां मकसद इनकी शैक्षणिक योग्यता पर चर्चा नहीं
है, न ही इस बात पर कि झूठा
हलफनामा भारतीय दंड संहिता की किस धारा में आता है. अगर उन्होंने सचमुच हलफनामें
में सच बोला है तो अपनी डिग्रियां व मार्क्सशीट सार्वजनिक क्यों नहीं करते? यह भी इस लेख की चर्चा का
विषय नहीं है. मोदी जी के राजनैतिक कौशल को कोई चुनौती नहीं दे सकता क्योंकि गोधरा
के प्रायोजन से शुरूकर दिल्ली के तख्त की राजनैतिक यात्रा का वृतांत उसकी काट के रूप में
मौजूद है. इस विवाद के जिक्र का यहां मकसद महज इस बात की ओर इंगित करना है कि
इन्हें अपने ज्ञान की वैधता के लिए शैक्षणिक योग्यता का तथाकथित फर्जी बयान क्यों
जरूरी लगा? क्या शिक्षा और “ज्ञान” के अंतःसंबध इतने गहन हैं? क्यों यह सरकार एक-एक कर उच्च-शिक्षा परिसरों को साम-दाम-भेद-दंड से खास रंग में रंगना चाहती है? क्यों सरकार तथा संघ के सभी
भोपू नारों से देशभक्ति और देशद्रोह परिभाषित करना चाहते है? इतिहास के इस अंधे मोड़ पर जब कॉरपोरेटी फासीवाद
आक्रामक रूप से मुखर हो, इन सवालों पर विमर्श जरूरी हो गया है.
फेसबुक पर एक अमरीकी ने एक पोस्टर शेयर किया था, “ट्रंप को रोकना
समाधान नहीं है; समाधान उस शिक्षा प्रणाली को खारिज करना है, जो इतने ट्रंप समर्थक
पैदा करती है.” देश में मोदी-भक्तों में उच्च-शिक्षितों की संख्या देखते हुए यही
बात हमारी शिक्षा पद्धति पर भी लागू होती है. 2014 के चुनाव में दिल्ली
विश्वविद्यालय के शिक्षकों का बहुमत, विकासपुरुष के गुणगान कर रहा था. संस्थागत
परिभाषा में प्रोफेसर सर्वोच्च ज्ञानी माना जाता है. जिससे भी पूछता था कि भाई,
अपने आराध्य का एक गुण बता दीजिए जिसके चलते वह उन्हें देश का उद्धारक, दिव्य
पुरुष लगते हैं? उनका वही जवाब होता था जो वास्तविक तथा फेसबुक जैसी आभासी दुनिया
में बजरंगी लंपटों का. “16 मई को बताएंगे.” मुझे तरस आता था सर्वोच्च शिक्षित इन
प्रोफेसरों पर कि सामाजिक विश्लेषण में एक प्रोफेसर तथा बजरंगी लंपट में कोई फर्क
नहीं है क्या?” इस तरह का पूर्वाग्रह-दुराग्रह तथा
कुतर्क ज्ञान हो सकता है क्या? यदि नहीं तो क्या शिक्षा और ज्ञान में कोई
समानुपातिक संबंध है क्या?
ज्ञान तथा शिक्षा के अंतःसंबंधों
के इतिहास पर दृष्टिपात के पहले आइए जरा कुछ सर्वोच्च शिक्षित समूहों पर एक उड़ती
नज़र डालते हैं. अंधविश्वासों, धार्मिक पूर्वाग्रह-दुराग्रहों तथा सामाजिक
कुरीतियों के खिलाफ मुहिम चलाने वाले डाभोलकर की हत्या का मुख्य आरोपी तवाड़े
विशेषज्ञ डाक्टर है, जहालत से नफरत का मशीहा विहिप का नेता तोगड़िया भी डाक्टर है.
कुछ साल पहले देहरादून के आईआईटी से उच्च शिक्षा प्राप्त एक व्यक्ति द्वारा अपनी
पत्नी की हत्या के बाद लाश को बोटी-बोटी करके
रिफ्रीजरेटर में रख कर “वैज्ञानिक तरीके” किस्तों में ठिकाने लगाने की खबर
छपी थी. इसी तरह की खबर दिल्ली में मुनिरका में रहने वाले एक अन्य आईआईटियन के बारे में छपी थी. सर्वविदित है कि
गुरात के दर्जनों आईपीयस/आईएयस अपनी संवैधानिक भूमिका निभाने की बजाय अमानवीय
जनसंहार की देख-रेख और मोदी सरकार के इशारों पर, मंत्रियों के निजी चाकरों की तरह
मासूमों को फर्जी मुठभेड़ों में मार रहे थे. य़े उदाहरण इस लिए दिया जा रहा है कि
इन संसथानों तथा सेवाओं में, माना जाता है की देश की प्रतिभा की मलाई जाती है. जिस
समाज की उच्चशिक्षित मलाई इतनी अमानवीय हो तो तलछट कैसा होगा, आसानी से समझा जा
सकता है.
ज्ञान का इतिहास शिक्षा के इतिहास से पुराना है. आदिम कुनबों तथा
कबीलों में ज्ञानी माने जाने वाले ही कबीले का मुखिया, पुजारी या सेनापति होते थे. मानव जाति ने भाषा; आग; धातुविज्ञान; पशुपालन; विनिमय/विपणन तथा आत्मघाती
युद्ध का ज्ञान किसी भी शिक्षा व्यवस्था के पहले ही हासिल कर लिया था. प्रकृति से अनवरत संवाद से
अर्जित अनुभवों तथा प्रकृति के साथ प्रयोगों और उनपर चिंतन-मनन से मनुष्य अनवरत
रूप से ज्ञानाजर्न करता रहा है तथा इसके माध्यम से श्रम के साधनों का विकास.
इसीलिए कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता बल्कि ज्ञान एत अनवरत प्रक्रिया है. हर पीढ़ी पिछली
पीढ़ियों की उपलब्धियों को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है. निजी संपत्ति के आगाज के चलते
कबीलाई ज़िंदगी के विखराव के दौर में, सामूहिक संपत्ति के बंटवारे में ज्ञानियों की चतुराई से सामाजिक वर्ग-विभाजन के बाद वर्चस्वशाली
वर्गों ने वर्चस्व की वैधता के लिए ज्ञान को अपने वर्गहित में परिभाषित किया.
ज्ञान की इस सीमित परिभाषा को ही अंतिम ज्ञान के रूप में समाज पर थोपने के मकसद से
ज्ञान को शिक्षाजन्य बना देशकाल के अनुकूल शिक्षा प्रणालियों की शुरुआत की.
मार्क्स के उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि पूंजीवाद महज उपभोक्ता माल का ही नहीं, विचारों भी उत्पादन करता
है. शासक वर्ग के विचारक, शासक विचारों को राज्य के वैचारिक उपकरणों से अंतिम सत्य बता युग के
विचार के रूप में प्रतिष्ठित कर युग चेतना का निर्माण करते है. ये विचार
प्रकारांतर से यथास्थिति को यथासंभव सर्वोचित तथा सर्वाधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था के
रूप में स्थापित करते हैं.
इस तरह की मिथ्या चेतना का निर्माण जरूरी नहीं कि छल-कपट के भाव से
किया जाता हो. प्रायः ये बुद्धिजीवी खुद को धोखा देते हैं, क्योंकि वे खुद मिथ्या को
सच मानने लगते हैं. ये तमाम तर्क-कुतर्कों से बताते हैं कि पूंजीवाद ही सर्वोत्तम
व्यवस्था है जिसमें हर किसी को योग्यतानुसार पुरस्कृत या दंडित किया जाता है.
समाजवाद वगैरह के विकल्प अव्यावहारिक हैं और असफल साबित हो चुके हैं. जाने-माने
मार्क्सवादी विचारक ऐतोनियो ग्राम्सी ने अपने वर्चस्व के सिद्धांत में खूबसूरती से
दर्शाया है कि किस तरह युगचेतना के प्रभाव में, शोषित सहमति से शोषित होता है. शासक वर्गों के हाथ में संस्थागत
शिक्षा युगचेतना के निर्माण का एक प्रमुख उपकरण है. यह ज्ञान को परिभाषित और सीमित
करती है. प्राचीन कालीन यूनानी चिंतक अरस्तू शिक्षा की भूमिका नागरिकों में खास
ढंग से, सोचने की आदत डालना तय करता
है. इसीलिए सभी सरकारें शिक्षा के अनुकूलन का प्रयास करती हैं. आधुनिक शिक्षा में
शैक्षणिक डिग्रियों को आम तौर पर किसी के ज्ञान का मान दंड मान लिया जाता है. उच्च
शिक्षा प्राप्त भक्तों की भीड़ देख, लगता है कि पढ़े-लिखे अज्ञानियों का प्रतिशत काफी है.
कृषि तथा शिल्प के विकास के साथ हमारे अर्धखानाबदोष ऋगवैदिक पूर्वजों
की पशुपालन की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित हो गयी और वे स्थाई गांवों में रहने लगे.
कुछ चतुर-चालाक लोगों ने श्रम विभाजन के नाम पर समाज को वर्गों(वर्णों) में बांटकर
पवित्रतता-अपवित्रता के सिद्धांत गढ़कर जन्मजात बना दिया. वर्णाश्रम व्यवस्था के
औचित्य तथा वैधता के लिए ग्रंथ लिखे गये जिन्हें ज्ञान का श्रोत मान लिया गया.
अमानवीय वर्गविभाजन को दैविक रूप देकर शासक वर्गों (वर्णों) के हित में युगचेतना
के निर्माण के लिए शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली शुरू हुई. समूचे प्राचीन तथा
मध्ययुगीन इतिहास में, समतामूलक बौद्ध समुदायों को छोड़ दें तो शिक्षा तथा ज्ञान की
दावेदारी शासितत वर्गों के लिए वर्जना ही रही है. मुग़लकाल के पहले शिक्षा का
माध्यम संस्कृत थी. शिक्षा तथा उससे प्राप्त ज्ञान पर, ब्रह्मा की इच्छानुसार, ब्राह्मण पुरुषों का
एकाधिकार था. जैसा कि मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है, शूद्रों तथा महिलाओं द्वारा शिक्षा का प्रयास घोर दंडनीय उपराध था.
आम जन की भाषा पाली में लिखे बौद्ध ग्रंथों तथा बौद्ध संघों की जनतांत्रिक शिक्षा
प्रणाली की मिशाल छोड़ दिया जाय, तो प्राचीन तथा मध्यकालीन इतिहास में शायद ही कहीं आमजन की भाषा ज्ञान की भाषा या शिक्षा का
माध्यम रही हो. इंगलैंड में कैंब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में क्रमशः
1892 और 1894 में विषय तथा शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को शामिल किया
गया. गौर तलब है कि इंग्लैंड के निम्न वर्गों ने लंबे संघर्ष के बाद 1880 के दशक
में मताधिकार हासिल किया था. भारत में अंग्रेजी शासक भाषा थी, इंग्लैंड में आमजन की.
मुगलकाल में शासकीय भाषा फारसी होने से ज्ञान की भाषा बन गयी. ‘पढ़े फारसी बेचे तेल, ये देखो कुदरत का खेल’ एक मशहूर कहावत है. चूंकि
मध्य युग में सत्ता की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म वैधता की विचारधारा. धर्म-ग्रंथो में वर्णित
ज्ञान ही ज्ञान था एवं धर्म ग्रंथों का
अध्ययन ही शिक्षा का विषय. इसलिए पाठशालाओं तथा मदरसों पर क्रमशः ब्राह्मण पुजारियों तथा
मौलवियों का नियंत्रण होता था. औपनिवेशिक शासन में अंग्रेजी शिक्षा और ज्ञान
की भाषा बन गयी. शिक्षा के सार्वभौमिक संवैधानिक प्रावधान से शिक्षा की
ब्राह्मणवादी वर्जनाएं खत्म हुईं. राजकीय तथा केंद्रीय विश्वविद्यलयों तथा अन्य
उच्च शिक्षा के संस्थानों में वंचित तपकों के लड़के-लड़कियां पहुंचने लगे. शिक्षा
के जरिए ज्ञान पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी. विश्व बैंक की इच्छा
के अनुकूल, शिक्षा को प्रकांतर से
पूर्णरुपेण व्यावसायिक सामग्री बनाकर, सरकार की नई शिक्षा नीति नये तरह की वंचना तथा वर्जना की साज़िश है.
सिर्फ अमीर ही शिक्षा प्राप्त कर सकेगा. गरीबों को भी शिक्षा चाहिए तो कर्ज़ लेकर
पढ़े जिसे चुकाने के लिए भविष्य गिरवी रखना पड़ेगा.
प्राचीन यूनान में प्लेटो
की एकॆडमी की स्थापना के पहले अमीर नागरिक अपने बच्चों की शिक्षा की निजी व्यवस्था
करते थे. प्लेटो की एकेडमी पहला सार्वजनिक शिक्षा संस्थान था. प्लेटो के ग्रंथ रिपब्लिक में शिक्षा को इतना अधिक स्थान
दिया गया है कि जन-संप्रभुता के सिद्धांत के प्रवर्तक 18वीं शताब्दी के दार्शनिक
रूसो ने उसे शिक्षा पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ बताया है. करनी-कथनी के
अंतरविरोध का दोगलापन पूंजीवाद की ही नहीं, वर्ग समाजों के इतिहास का अभिन्न हिस्सा रहा है. यह दोगलापन सर्वाधिक
उसकी शिक्षा व्यवस्था में परिलक्षित होता है. एक तरफ प्लेटो कहता है कि शिक्षा का
काम विद्यार्थी को बाहर से ज्ञान देना नहीं है. मष्तिष्क गतिशील है तथा उसके पास
अपनी आंखें हैं. शिक्षा काम सिर्फ प्रकाश दिखाना है, यानि मष्तिष्क की गतिशीलता के लिए परिवेश (एक्सपोजर) प्रदान करना है. वह खुद-ब-खुद ज्ञान के विचारों की तरफ चुंबकीय प्रभाव से आकर्षित
होगा. दूसरी तरफ जन्म से ही शुरू होने वाली शिक्षा व्यवस्था के लिए सख्त पाठ्यक्रम
की योजना पेश करता है, सख्त सेंसरशिप से चुनी गयी विषय वस्तु के साथ. वर्णाश्रम की तर्ज पर
उसके आदर्श राज्य में ज्ञानी राजा होगा. शिक्षा के माध्यम से श्रम(वर्ग) विभाजन
होता है. ज्ञानी (दार्शनिक) राज तकरता है; साहसी सैनिक होता है तथा बाकी भिन्न-भिन्न आर्थिक उत्पादन का काम
करते हैं. जैसे ब्रह्मा ने विभिन्न लोगों को अपने शरीर के विभिन्न अंगों से पैदा
करके सामाजिक असमानता का निर्माण किया वैसे ही प्लेटो दार्शनिक राजा यह मिथ फैलाता
है कि ईश्वर ने लोगों को सोना, चांदी और पीतल-तांबे जैसे तुच्छ धातुओं के गुणों के साथ पैदा किया है
जो कि अपरिवर्तनीय है. सोने के गुण वाला दार्शनिक राजा होता है, चांदी वाला सैनिक और तांबे
पीतल वाले आर्थिक उत्पादक. अंधकार युग कहे जाने वाले मध्ययुग में और जगहों की तरह
यूरोप में भी सत्ता की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म उसकी विचारधारा. धार्मिक
ज्ञान ही ज्ञान था तथा पादरी ही शिक्षक भी था और ज्ञान की परिभाषा का ठेकेदार भी.
धार्मिक शिक्षा के ज्ञान के अतिक्रमण के ‘अपराध’
में
वैज्ञानिक ब्रूनो को सन् 1600 में जिंदा जला दिया गया था. उनपर कैथलिक आस्था की कई
बुनियादी मान्यताओं के खंडन के आरोप में 7 साल मुकदमा चला था. ज्ञान की स्थापित
परिभाषा के उल्लंघन के आरोप में गैलेलियो का हश्र सर्वविदित है. रूसो को अपने
उपन्यास एमिली में चर्च नियंत्रित शिक्षा
की आलोचना के लिए फ्रांस छोड़कर भागना पड़ा. कहने का मतलब जो भी शासकवर्ग की ज्ञान
की परिभाषा का अतिक्रमण करता है उसे दंडित किया जाता है, चाहे वह ब्रूनो, गैलेलिओ, रूसो हों या हैदराबाद
विश्वविद्यालय या जेयनयू के शिक्षक-छात्र हों.
नागपुर से संचालित मौजूदा
सरकार ने सत्ता की बागडोर संभालते ही शिक्षा तथा जमीन के कानूनों में तब्दीली शुरू
कर दिया. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, राज्य सभा में बहुमत की कमी के चलते पारित नहीं हो सका. प्रस्तावित
शिक्षा नीति को संसद में पेश किए बिना ही, आज्ञाकारी, “स्वायत्त” विश्वविद्यालय आयोग (यूजीसी) तथा मानव संसाधन मंत्रालय के फरमानों के
जरिए, उसके प्रावधानों को उच्च
शिक्षा संस्थानों में लागू करना शुरू कर दिया है. इसके विरोध में शिक्षक तथा छात्र
लगातार आंदोलित हैं. इस क्रम में यूजीसी पर 16 मई को हजारों शिक्षकों ने धरना
दिया. फरवरी में,
जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ (जेयनयूयसयू) के नेतृत्व में महीनों से चल रहे ऑक्यूपाई यूजीसी आंदोलन को पटरी से उतारने
के लिए, खोखले नारेबाजी में
परिभाषित देशभक्ति का उन्माद खड़ा करके उच्च शिक्षा परिसरों पर धावा बोल दिया.
रोहित वेमुला की शहादत से उपजे राष्ट्रव्यापी छात्रों के उभार तथा हैदराबाद तथा
जेयनयू के शिक्षक-छात्र आंदोलन के दमन पर काफी लिखा जा चुका है, उस पर चर्चा इस लेख का विषय
नहीं है.
1833 में, ब्रिटिश संसद में भारत में
अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू करने के पक्ष में बोलते हुए मैकाले ने कहा था कि
इससे (शिक्षा पद्धति लागू करने से) बिना अपनी भौतिक उपस्थिति के अंग्रेज 1,000 साल तक भारत पर बेटोक
राज कर सकेंगे. कितनी सही निकली मैकाले की भविष्यवाणी. औपनिवेशिक साम्राज्यवाद तथा
विश्वबैंक-अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश संचालित नवउदारवादी साम्राज्यवाद में यह फर्क
है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गये हैं. यानि ऐतिहासिक रूप से, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान
को शासक वर्ग हित के सीमित दायरे में परिभाषित कर उस पर एकाधिकार स्थापना से
वर्चस्वशाली के वर्चस्व को बरकरार रखना और मज़बूत करना है. जैसा ऊपर मार्क्स के
हवाले से कहा गया है, मार्क्स ने लिखा है कि पूंजीवाद माल का ही नहीं विचारों का
भी उत्पादन करता है. युगचेतना के निर्माण तथा पोषण में शिक्षा की निर्णायक भूमिका
होती है. ऐंतोनियो ग्राम्सी के शब्दों में, शिक्षा शासक वर्ग के वर्चस्व के लिए जैविक एवं परंपरागत बुद्धिजीवी पैदा करती है.
मुख्यधारा से ही विद्रोही धाराएं भी निकलती हैं. इसके विपरीत विचारों के प्रसार को
रोकने का शासक वर्ग हर संभव उपाय करता है, क्योंकि युगचेतना को चुनौती इसके वर्चस्व को चुनौती है.
विश्वबैंक के दबाव में
भूमंडलीय पूंजी की हितपूर्ति में जो नीतिगत तथा संस्थागत परिवर्तन मनमोहन सरकार, शायद लोकलज्जा की वजह से, मंद गति से कर रही थी, मोदी सरकार ने बागडोर
संभालते ही आक्रामक ढिठाई से आगे बढाना शुरू कर दिया. पिछली शताब्दी के तीसरे दशक
के अंतिम सालों में शुरू हुए उदारवादी पूंजीवाद के संकट का श्रोत अतिरिक्त उद्पादन
था. अधिकतम मुनाफे के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था में शोषणपूर्ण उत्पादन-विनिमय
प्रणाली के चलते,
कामगर
वर्ग तबाही के कगार पर था तथा बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही थी. समाज के व्यापक
तपके में क्रयशक्ति के अभाव से मांग-आपूर्ति का समीकरण गड़बड़ा गया और पूंजीवाद
ध्वस्त होने की कगार पहुंच गया. इस संकट का समाधान निकला केंस के अर्थशास्त्र से
जिसके सिद्धांतों पर अहस्तक्षेपीय संवैधानिक राज्य की जगह कल्याणकारी राज्य ने ली.
कल्याणकारी राज्य की मिश्रित अर्थव्यवस्था में तर्कशील मानव संसाधन की आवश्यकता के
लिए स्वायत्त उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना हुई तथा पहले से ही मौजूद
संस्थानों को पुनर्गठित किया गया. पाठ्यक्रम की रूपरेखा तथा क्लासरूम की पढ़ाई से
स्वतंत्र, विश्वविद्यालय उन्मुक्त
चिंतन-मनन; विचार-विमर्श; शोध-अन्वेषण तथा अन्याय के
विरुद्ध विचार-निर्माण के केंद्र भी हैं. इंसानी दिमाग के गतिविज्ञान के नियम पूरी
तरह निर्धारित, नियंत्रित नहीं किये जा
सकते. उन्हें पाठ्यक्रम की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता. इतिहास गवाह है कि
शिक्षा की मुख्यधारा से ही विद्रोही, वैकल्पिक धाराएं भी प्रस्फुटित होती हैं.
जहां उदारवादी पूंजीवाद के
संकट की जड़ में आमजन की क्रयशक्ति की कमी से, अतिरिक्त उत्पादित माल का संकट था, नवउदारवादी भूमंडलीय
पूंजीवाद का संकट फायदेमंद, सुरक्षित निवेश के नीड़ की तलाश में अतिरिक्त पूंजी का है. रीयल यॅस्टेट के बाद शिक्षा
को निवेश का सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र माना जा रहा है. कहने का मतलब कि वर्चस्व
की हिफाज़त के लिए जैविक तथा पारंपरिक बुद्धिजीवी पैदा करने की शिक्षा की भूमिका
में एक अतिरिक्त आयाम और जुड़ गया, व्यावसायिक आयाम. विश्वबैंक द्वारा इसे खरीद-फरोख्त की व्यापारिक
सेवा के रूप में गैट्स में शामिल करने के पहले से ही शिक्षा अत्यंत लाभकारी व्यवसाय बन चुका
है. सारे कॉरपोरेट,
खासकर
रीयल यस्टेट के कारोबारी, “ज्ञान” के प्रसार में जी-जान से
जुट गये हैं. यदि विश्वबैंक अपने मंसूबे में कामयाब रहा तो अन्य उपक्रमों की ही तरह
शिक्षा का भी पूर्ण कॉरपोरेटीकरण हो जाएगा तथा उसकी अंतःवस्तु की बात छोड़िए, उच्च शिक्षा गरीब तथा
दलित-आदिवासियों की पहुंच से ही बाहर हो जायेगी और शैक्षणिक कर्ज अतिरिक्त आवारा
पूंजी का एक और ठिकाना बन जायेगै.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, राज्य के वैचारिक औजारों
द्वारा साम्यवाद विरोधी अभियान के बावजूद अमेरिका के विश्वविद्यालय परिसर
क्रांतिकारी विमर्श तथा गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभर रहे थे. शीत युद्ध
में अमेरिका और सोवियत संघ आपस में नहीं युद्ध कर रहे थे बल्कि अपने-अपने आंतरिक “शत्रुओं” से निपट रहे थे. शीतयुद्ध
के आवरण में सोवियत संघ के साथ
साम्यवादी विचारधारा को ही राष्ट्रीय दुश्मन घोषित कर शिक्षा संस्थानों पर हमला
बोल दिया था. देशद्रोह का हव्वा खड़ा कर कम्युनिस्टों तथा उनके समर्थकों की
धर-पकड़ शुरू हो गयी थी. भारत के मौजूदा यूएपीए की ही तरह खतरनाक पैट्रियाट
तथा अन्य काले कानूनों के तहत तमाम बुद्धधिजीवियों, फिल्मकारों, शिक्षाविदों को निशाने पर लिया गया. आइंस्टाइन की निगरानी के लिए
यफबीआई में एक अलग सेल थी लेकिन सेलिब्रिटी स्टेटस ने उन्हें बचा लिया. मैनहट्टन
प्रयोजना से जुड़े रहे रोजेनबर्ग पति-पत्नी को परमाणु बंम से संबंधित फार्मूला लीक
करने के आरोप में मौत की सजा दे दी गयी. हजारों शिक्षकों तथा छात्रों को प्रताड़ित
किया जा रहा था. ऩई
शिक्षा
नीति में प्रणाली तथा पाठ्यक्रम ऐसे बनाए गये जिससे चिंतनशीलता को कुंद कर राज्य
पर बौद्धिक निर्भरता सिखाया जा सके. अमेरिकी अपनी शिक्षा पद्धति का मजाक उड़ाते
हुए उसे “बहरा बनाने की
प्रक्रिया(डंबिंग प्रॉसेस)” कहते हैं.
नरेंद्र मोदी की सरकार ने
सत्ता की बागडोर संभालते ही शिक्षा नीति में बदलाव शुरू कर दिया तथा परिसरों पर
हमला. जिस तरह कोई अंतिम सत्य नहीं होता, उसी तरह कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता. ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है.
हर पीढ़ी पिछली पीढियों की उपलब्धियों तथा योगदानों को सहेज कर उसे आगे बढ़ाती है.
वैचारिक द्वंद्व इस प्रक्रिया को गति देता है. मैं अपनी पहली क्लास में, हर साल, कोर्सेतर अन्य बातों के साथ
दो बाते जरूर बताता हूं. पहली
कि किसी भी ज्ञान कि कुंजी है, सवाल-दर-जवाब-दर-सवाल, अपने वैचारिक संस्कारों से शुरू कर अनपवाद हर बात
पर सवाल. दूसरी बात कि उच्च शिक्षा की ये संस्थाएं ज्ञान देने के लिए नहीं बनी
हैं. इनका वास्तविक मकसद विद्यार्थियों को ऐसी सूचनाओं एवं दक्षताओं से लैस करना
है जिससे व्यवस्था को बरकरार रखा जा सके, यद्यपि घोषित उद्देश्य चिंतनशील नागरिक तैयार करना है. ज्ञान के लिए अलग से प्रयास
करना पड़ता है. इसी अलग से
प्रयास की जुर्रत में मोदी सरकार तथा संघ गिरोह ने देशद्रोह का हव्वा खड़ा करके
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय तथा जेयनयू पर पूर्वनियोजित हमला बोल दिया. इन
विश्वविद्यालयों से ही चिंतनशील इंसान भी निकलते हैं तथा विद्रोह की आवाज बुलंद
करते हैं, शिक्षा के चलते नहीं शिक्षा
के बावजूद.
वैसे तो विश्व बैंक के
आदेशानुसार, शिक्षा के पूर्ण
उपभोक्तातरण तथा व्यावसायीकरण का सिलसिला कहीं लुके-छिपे, कहीं खुले-आम, उसी समय शुरू हो गया था जब
नरसिंह राव सरकार ने 1991 में डव्लूटीओ
प्रस्तावित भूमंडलीकरण के प्रस्तावों पर दस्तखत किया था. अटलबिहारी वाजपेयी के
नेतृत्व में यनडीए सरकार के शासनकाल में, जब शिक्षा मंत्रालय, मानव संसाधन मंत्रालय बन गया
तब से यह सिससिला धड़ल्ले से खुलेआम हो गया. पिछले ढाई दशकों में इंजीनियरिंग तथा
मैनेजमेंट के तमाम निजी क़ालेज तथा विश्वविद्यालय कुकुरमुत्तों की तरह देश के कोने
कोने में उग आए. दिल्ली में इन शिक्षण दुकानों को संबद्धता दिलाने के लिए, 1998 में सुषमा स्वराज के
तहत भाजपा शासन काल में, राज्य विश्वविद्यालय के रूप में इंदप्रस्थ विश्वविद्यालय की स्थापना
की गयी. 1995 में विश्व बैंक ने शिक्षा को सेवाओं के व्यापार पर समस्त समझौता (गैट्स) में व्यापारिक सेवा के रूप
में शामिल कर लिया. यूपीए सरकार इस दस्तावेज पर दस्तखत को सिद्धांततः राजी थी लेकिन शायद शैक्षणिक जगत में व्यापक विद्रोह के भय से इस पर दस्तखत
नहीं कर पाई. 2015 में नैरोबी में यनडीए सरकार इस पर दस्तखत कर आई. इसके लिए पथ प्रशस्त करने के
लिए सरकार ने शिक्षानीति में व्यापक फेर-बदल शुरू कर दिया तथा उच्च शिक्षा
संस्थानों पर तीन तरफा हमला. शिक्षा नीति में परिवर्तन; उच्च शिक्षा संस्थानों के
मुखिया के पद पर संदिग्ध शैक्षणिक योग्यता वाले आरयसयस पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की
नियुक्ति तथा शिक्षक-छात्रों के प्रतिरोध का दमन. दमन में आरयसयस गिरोह की छात्र
इकाई एबीवीपी पांचवे कॉलम का काम करती है, जैसा कि हैदराबाद तथा जेयनयू के उदाहरणों से स्पष्ट है. शिक्षा को
छिन्न-भिन्न करने की कवायद पिछली, यूपीए सरकार के समय ही शुरू हो गया था. मौजूदा सरकार उस एजेंडे को और
आक्रामक तरीके से लागू कर रही है.
पिछली सरकार के कार्यकाल
में दिल्ली विश्वविद्यालय आनन-फानन में, कोर्स परिवर्न के सारे स्थापित मानदंडों को धता बताते हुए, हड़बड़ी में चार-साला
स्नातक कार्यक्रम (यफवाईपी) शुरू कर दिया था जिसका विश्वविद्यालय समुदाय ने व्यापक
विरोध किया. यूपीए शासनकाल के इस विरोध में भाजपा समर्थक संगठन यनडीटीयफ भी था.
मोदी सरकार के आते ही इसे रामबाण बताने वाले, विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष को यह कार्यक्रम नियमों का उल्लंघन
लगा. चारसाला कार्यक्रम रद्द कर उसे तीनसाला में बदल दिया गया तथा कुछ ही साल पहले
शिक्षकों तथा छात्रों के विरोध के बावजूद वार्षिक प्रणाली की जगह थोपी गई सेमेस्टर
प्रणाली की वापसी हो गई. साल भीतर ही सरकार ने शिक्षानीति में आमूल परिवर्तन शुरू
कर दिया. केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम समेत प्रस्तावित उच्च शिक्षानीतियां, यदि पारित हो गयीं तो
विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता नष्ट हो जायेगी तथा चिंतन-मनन एवं शोध-अन्वेषण के
ये केंद्र कुशल कारीगर पैदा करने के कारखाने बन जायेंगे. विश्वविद्यालय ज्ञान के
केंद्र से कारीगरी सिखाने के वर्कशॉप बन जाएंगे.
यह लेख इस बात से खत्म करना
चाहूंगा कि इंसान अनुभव, अध्ययन, प्रयोग तथा दिमाग के प्रयोग से ज्ञान अर्जित करता है. शिक्षा शासक
वर्ग के विचारों को युग का विचार
बताकर शासक वर्ग के हित में युगचेतना का निर्माण करने तथा बरकरीर रखने के मकसद से
के ज्ञान को एक खास दिशा में परिभाषित करती है, शासक विचारों के प्रसार से युग चेतना का निर्माण करती है. देश भर में
जारी छात्र आंदोलन युगचेतना के विरुद्ध सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की दिशा में एक
निर्णायक पहल है.
ईश मिश्र
राजनीति शास्त्र विभाग
हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली 110007
मोबाइल : 9811146848
mishraish@gmail.com